चचा ग़ालिब ने कहा है –
‘रंज से खूगर (अभ्यस्त) हुआ इंसां तो, मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पडीं, इतनी, कि आसां हो गईं.’
इसी अंदाज़ में जोश मलिहाबादी ने अपना पहला शेर कहा –
‘हाय, मेरी मुश्किलों, तुमने भी क्या धोखा दिया,
ऐन दिलचस्पी का आलम था, कि आसां हो गईं.’
पर आजकल के हालात को देख कर जोश साहब के इस शेर को दुरुस्त कर के
मुझको कहना पड़ रहा है -
‘हाय, मेरी मुश्किलों, तुमने भी क्या धोखा दिया,
दस पुरानी हल करीं, सौ और पैदा हो गईं.’
वाह!
जवाब देंहटाएंतारीफ़ के लिए शुक्रिया अनिता जी.
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-03-2022) को चर्चा मंच "कटुक वचन मत बोलना" (चर्चा अंक-4385) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'कटुक वचन मत बोलना' (चर्चा अंक - 4385) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंइसी का नाम तो मुश्किलें है। जो आसानी से हल हो जाये वो मुश्किलें नही रहती। उनकी हमशक्ल होती है।
जवाब देंहटाएंग़म से अब घबराना कैसा, ग़म सौ बार मिला।
जवाब देंहटाएंसाहिर साहब।
मुश्किलों से अब क्या डर भैया
मुश्किले लाखों मिली।