गुरुवार, 10 मार्च 2022

गिरे हुए शहसवार के ख़ुद से ही चंद सवालात

 

वो जो दिन रात रहता था गुलज़ार कभी,
गुलो-बुलबुल का हसीं बाग, उजड़ता क्यूं है?
रास लीला में मगन रहते हैं, कितने नेता,
इक तिरा किस्सा ही, अख़बार में, छपता क्यूं है?
तेरे सज्दे में झुके रहते थे, आला अफ़सर,
अदना प्यादा भी तुझे आज, घुड़कता क्यूं है?
खाते थे क़सम जहाँ, लाखों वफ़ादारी की,
साया भी साथ निभाने से, मुकरता क्यूं है?
अब किराए के भी श्रोता, नहीं जुट पाते हैं,
तालियां सुनने को, दिल तेरा, तड़पता क्यूं है?
न तो फ़ीता, न ही कैंची, न कोई माइक है,
ख़ुदकुशी करने से, फिर भी, तू हिचकता क्यूं है?

11 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (११ -०३ -२०२२ ) को
    'गाँव की माटी चन्दन-चन्दन'(चर्चा अंक-४३६६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. 'गाँव की माटी चन्दन-चन्दन' (चर्चा अंक - 4366) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता.

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  3. बहुत सुंदर सारगर्भित रचना नितांत सामयिक और यथार्थवादी।अंतिम पंक्ति पढ़कर तो हंसी ही आ गई .. अब ऐसा भी न कहिए, नहीं तो उकसाने के इल्जाम आएंगे सर पर ।
    आभार आपका बोलती हंसती सी रचना पढ़वाने के लिए 👏💐😀

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    1. मेरी व्यंग्य-रचना की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा !
      छल-कपट और मक्कारी करने वाले नेताओं के उत्थान पर हमको रोना आता है और उनके पतन पर हँसना ! लेकिन क्या करें, ऐसे हंसने के मौके कम ही मिलते हैं.

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  4. 'रहिमन’ चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन को फेर ।
    जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर ॥
    रहिम दास जी का ये दोहा
    शायद इन गिरे.....सहसवारों का नया संबल है।

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    1. कुर्सी से ज्योंही हटे, भक्तन बिन घर सून,
      रिश्ते-नाते टूटते, पानी होता खून.

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  5. फिर कभी बिल्ली के भाग्य से छींका टूटेगा तो गिरगिट की तरह रंग बदलते भी देर नहीं लगेगी। धारदार लेखन।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद अमृता तन्मय !
      उम्मीद पे दुनिया क़ायम है. हाँ, पांच-छह बार ज़मानत ज़ब्त होती रहेगी तो फिर और कोई धंधा तलाश किया जाएगा.

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  6. हमेशा ये ही तो होता रहा है मेरे अज़ीज़
    किसी की जीत तो कोई किसी से हार गया
    - नज़ीर मेरठी
    किसी भी हार-जीत से कोई फर्क नहीं.पड़ता है सर राजनीति के इन खिलाड़ियों को ,महामूर्ख जनता आपस में माथाफुटव्वल करती है इनके ख़ातिर।

    आपका लेखन हमेशा की तरह सारयुक्त।

    प्रणाम सर
    सादर।

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    1. मेरी व्यंग्य-रचना की प्रशंसा के लिए धन्यवाद श्वेता !
      मूर्ख जनता तो ऐसे ठगों से ठगे जाना डिज़र्व ही करती है.
      लेकिन इन महारथियों के चारों खाने चित्त होने पर किसी भी अक्लमंद को तकलीफ़ नहीं होती. ख़ास कर मुझे तो इनके पतन में मज़ा आता है.

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