महात्मा बुद्ध और उनके शिष्य ‘पूर्ण’ की एक प्रेरक कथा –
महात्मा बुद्ध का शिष्य था
- पूर्ण !
बहुत दिनों तक उनके पास रहा, जब
शिक्षा पूरी हो गयी तो महात्मा बुद्ध ने उस से कहा –
‘शिष्य ! अब तुम मेरे प्रेम और अहिंसा के संदेश को हिंसक
लोगों के बीच ले जाओ!’
पूर्ण अपने गंतव्य की ओर
जाने को तत्पर हुआ तो भगवान ने उसे सावधान करते हुए कहा –
‘वहाँ के लोग तो बहुत उग्र हैं ! वे तुम्हें गाली
देंगे तुम्हारा अपमान करेंगे!’
पूर्ण बोला –
‘ भगवन ! कोई बात नहीं , मैं तो ऐसे लोगों को दयालु ही मानता हूँ कि वे गाली ही तो
देंगे, अपमान
ही तो करेंगे, पत्थर
तो नहीं मारेंगे !’
महात्मा बुद्ध बोले -
‘पूर्ण,
वे पत्थर भी मार सकते हैं !’
पूर्ण बोला -
‘भगवन, मैं तो ऐसे लोगों को दयालु ही मानता हूँ कि वे पत्त्थर ही
तो मारेंगे, जान
से नहीं मार डालेंगे !’
भगवान बुद्ध ने पूर्ण को
फिर सचेत किया –
‘पूर्ण,
पर वे तो तुम्हें जान से भी मार सकते हैं !’
पूर्ण ने उत्तर दिया –
‘हे गुरुदेव ! तब तो वे सचमुच ही दयालु हैं कि मुझे ऐसे जीवन से मुक्त कर
देंगे, जिसमें कि मैं कभी भी भटक सकता हूँ !’
अपने शिष्य को विदा करते
हुए महात्मा बुद्ध ने कहा –
‘वत्स ! अब तुम जाओ , तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है !’
इस पवित्र कथा पर आधारित
किन्तु मेरे द्वारा संशोधित,गुरु-घंटाल
और उसके महा-घाघ शिष्य की एक अपवित्र कथा –
ढपोलशंख की वाक्पटुता, मदारी
के जैसा मजमा इकठ्ठा करने का हुनर, ख़ुद को दूध पिलाने वाले को डसने वाले सांप के गुण और
इन्सान को समूचा निगलने के बाद भी डकार न लेने की विद्या सिखाने के बाद गुरु-घंटाल
ने अपने शिष्य महा-घाघ से कहा –
‘महा-घाघ! मुझे जो-जो तिकड़म आती थीं वो मैंने तुझे सिखा दीं
हैं. अब तू अंधेर-नगरी में राजनीति के रण-क्षेत्र में कूद पड़.’
शिष्य महा-घाघ अंधेर-नगरी
में अपनी राजनीति का चक्कर चलाने के लिए तत्पर हुआ तो गुरु-घंटाल ने उसे सावधान
किया –
‘अंधेर-नगरी के लोग बड़े खूंख्वार हैं. हर नेता का स्वागत
करने के लिए उनके ऊपर जूते बरसाने को वो हमेशा तैयार रहते हैं.
महा-घाघ ने कहा –
‘कोई बात नहीं , मैं पुराने जूतों की एक दूकान खोल लूँगा. वैसे ऐसे लोगों
को मैं दयालु ही मानता हूँ कि वे जूते ही तो बरसाएंगे, पत्थर
तो नहीं मारेंगे !’
गुरुघंटाल बोले -
‘शिष्य ! वे पत्थर भी मार सकते हैं !’
बेफ़िक्र हो कर महा-घाघ ने
उत्तर दिया -
‘कोई बात नहीं, गुरुदेव ! मैं हेल्मेट और छाती पर पैड वगैरा लगा कर
जाऊंगा. वे पत्थर ही तो मारेंगे,
जान से तो नहीं मार डालेंगे !’
गुरुघंटाल ने शिष्य को
डराने के लिए कहा –
‘शिष्य ! वे तो तुझे जान से भी मार सकते हैं !’
महा-घाघ ने उत्तर दिया –
‘गुरुदेव, उन हत्यारों से निपटने के लिए मेरे साथ क्या किराए के
गुंडे नहीं होंगे?
वैसे भी ए० के० छप्पनधारी
मेरी प्राइवेट सेना के सामने वो कितनी देर टिक पाएंगे?'
शिष्य की शिक्षा-दीक्षा से
संतुष्ट हो कर गुरुघंटाल
ने उसे विदा करते हुए कहा –
‘वत्स ! अब तू अंधेर-नगरी के राजनीतिक दलदल में कूद पड़.
मेरी ओर से तेरी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है !’
महा-घाघ ने अपने हाथ जोड़ कर
गुरुघंटाल से कहा –
‘गुरु जी ! आपकी चरण-धूलि तो ले लूं और यह भी सुनिश्चित कर
लूं कि यह महा-घाघ विद्या आप किसी और को न दे पाएं !’
इतना कहकर महा-घाघ ने
गुरुघंटाल को उनके पैर से उठा कर,
उन्हें ज़मीन पर पटक दिया और फिर उनका गला दबा, उनको
अपना अंतिम प्रणाम कर, वह
अंधेर-नगरी जीतने के लिए चल पड़ा.
और यहीं से सतयुग और राम राज्य की नींव पडी।
जवाब देंहटाएंमित्र, त्रेता-युगीन राम-राज्य में अगर भाई के साथ विश्वासघात करने वाले को लंका का राज मिल सकता है तो फिर अपने गुरु को इस लौकिक संसार से मुक्ति दिलाने वाले आदर्श शिष्य को आधुनिक राम-राज्य की गद्दी क्यों नहीं मिल सकती?
हटाएंवर्तमान के ज्यादातर शिष्य ऐसे ही है।
जवाब देंहटाएंज्योति, भारतीय राजनीति में कई सफल नेताओं ने अपने-अपने गुरु के साथ ऐसा ही व्यवहार किया है.
हटाएंकटु सत्य
जवाब देंहटाएंकाश कि सत्य में कभी करेले और नीम की जगह गुड़ के गुण आ जाएं.
हटाएं'अट्टहास करता बाज़ार' (चर्चा अंक - 4392) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंआपका कहने का अंदाज निराला है सर फिर से पढ़कर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन 👌
सादर
अनीता, मेरा मानना है - 'मस्तराम बन के ज़िंदगी के दिन गुज़ार दे'
जवाब देंहटाएंचिंतनपूर्ण पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा, इस पोस्ट की कथा में तो आदर्श शिष्य ने अपने गुरु जी को चिंता-मुक्त कर दिया फिर तुम इसे चिंतनपूर्ण क्यों कह रही हो?
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