रानीखेत एक्सप्रेस से दिल्ली-काठगोदाम का सफ़र कर के मैं काठगोदाम पर अल्मोड़ा जाने वाली एक शेयर्ड टैक्सी की तलाश में था.
जल्द
ही अल्मोड़ा जाने वाली एक खाली टैक्सी मिल गयी.
मैं
पीछे की विंडो वाली एक सीट पर बैठ गया.
कुछ
देर बाद एक लड़की और उसके पिता श्री मेरे बगल में आ कर बैठ गए.
लड़की
के पिता श्री बीच में और वह लड़की दूसरी विंडो वाली सीट पर विराजमान हो गयी.
अपनी
सहयात्री लड़की को तो मैं नहीं जानता था पर उसके पिता श्री का चेहरा मुझे काफ़ी
जाना-पहचाना सा लग रहा था पर यह बिलकुल भी याद आ रहा था कि उनको मैंने कहाँ देखा
है.
मेरी
एक अजीब सी आदत है. सफ़र के दौरान किसी न किसी गाने का रिकॉर्ड मेरे दिमाग में बजता
रहता है.
इस
वक़्त फ़िल्म – ‘तुम हंसीं मैं जवां’ का नग्मा –
‘आपको पहले भी कहीं देखा है,
ख्व़ाब
में या रूबरू, पर देखा है ’
मेरे
दिमाग में बज रहा था. बड़ी मुश्किल से मैंने उस नग्मे को अपनी ज़ुबान पर आने से रोका
था.
आगे
की सीट की सवारियां मिलते ही हमारी टैक्सी अल्मोड़ा के लिए चल पड़ी.
हमारी
सहयात्री वह लड़की मुझे बड़े गौर से देख रही थी फिर अचानक ही उसने नमस्कार करते हुए
मुझ से पूछा –
‘आप क्या जैसवाल सर हैं?’
मैंने
हाँ में उत्तर दिया फिर उस लड़की से पूछा –
‘तुम मुझको कैसे जानती हो? मुझे तुम अपनी स्टूडेंट तो नहीं लगती हो.’
लड़की
ने जवाब दिया –
‘सर, दो साल पहले मैंने अल्मोड़ा कैंपस से
बी० ए० किया था.
मैं
हिस्ट्री की स्टूडेंट नहीं थी पर 15 अगस्त के और 2 अक्टूबर के फ़ंक्शंस में मैं
आपके भाषण ज़रूर सुनती थी.
आपके
भाषण मुझे बहुत अच्छे लगते थे.’
मैंने
अपनी प्रशंसिका बालिका को धन्यवाद दिया.
इस
वार्तालाप से लड़की के पिता श्री बड़े प्रसन्न हुए और फिर मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर
बोले –
‘अरे वाह, आप तो गुरु जी निकले ! अब तो हम
रास्ते भर आप से हिस्ट्री पढ़ते हुए जाएंगे.’
मुझे
रास्ते भर अपने सहयात्रियों को हिस्ट्री पढ़ाने में कोई ऐतराज़ नहीं था पर ऐसा कर
पाना मेरे लिए क़तई मुमकिन नहीं था क्योंकि मेरे इन श्रद्धालु छात्र के मुंह से
शराब की ज़बर्दस्त दुर्गन्ध छूट रही थी.
मेरे
ख़याल से इन सज्जन ने टैक्सी में बैठने से पहले पूरी एक बोतल तो गटक ही ली होगी.
मैंने
बिना तक़ल्लुफ़ अपने मुंह पर एक रूमाल लगाया और बगल से आने वाली किसी गाड़ी से टकराने
के खतरे की परवाह किए बिना अपना चेहरा विंडो से करीब-करीब बाहर निकाल लिया.
मेरे
दिमाग में अपने इस सहयात्री को ले कर अब भी वही नग्मा गूँज रहा था –
‘आपको पहले भी कहीं देखा है,
ख्व़ाब
में या रूबरू, पर देखा है ’
कुछ
देर बाद उन सहयात्री महोदय ने एक सिगरेट सुलगाई फिर मेरे कंधे पर हल्के से हाथ
मारते हुए उन्होंने मुझ से पूछा –
‘गुरु जी, सिगरेट?’
मैंने
निहायत अदब से उनका ऑफ़र अस्वीकार करते हुए जवाब दिया –
‘मैं सिगरेट नहीं पीता.’
मेरी
खातिर करने को बेक़रार सहयात्री महोदय ने मुझ से कहा –
‘आप सिगरेट नहीं पीते तो कोई बात नहीं. लेकिन गुटका तो खाते होंगे. लीजिए, आपकी सेवा में दिलबहार गुटका प्रस्तुत है.’
मैंने
एक बार फिर विनम्रता से उनका ऑफ़र ठुकराया फिर मुस्कुरा कर उन्हें जवाब दिया –
‘शराब, सिगरेट, गुटका, पान, तम्बाकू आदि के सेवन के बिना ही अपनी ज़िंदगी चैन से कट रही
है.’
मेरे
जवाब को सुन कर अचरज से अपना मुंह खोल कर सहयात्री महोदय ने दुर्गन्ध का एक और
भभका मेरी तरफ़ छोड़ते हुए मुझ से पूछा –
‘शराब आप नहीं पीते,
धूम्रपान आप नहीं करते, गुटके-तम्बाकू का सेवन आप नहीं करते, फिर यह बताइए कि इत्ती मोटी तनख्वाह जो आप पाते हैं, उसका आप करते क्या हैं?’
मैंने
बेवड़ा बन्धु के सवाल का जवाब दिए बिना उनसे पूछा –
‘यह बताइए कि आप रोज़ाना शराब, सिगरेट, गुटका, वगैरा पर खर्च करने के लिए इत्ती मोटी रकम कहाँ से लाते
हैं?’
बेवड़ा
बन्धु ने फ़ख्र के साथ जवाब दिया –
‘मैं अल्मोड़ा के सी० जे० एम० का पेशकार हूँ. आप तो जानते ही
होंगे कि सी० जे० एम० के पेशकार का क्या रुतबा होता है और क्या उसकी आमदनी होती
है.’
मैंने
पेशकार साहब को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और फिर उन से कहा –
‘सी० जे० एम० के पेशकार के रुतबे को और उसकी आमदनी को मैं
अच्छी तरह से जानता हूँ क्योंकि मेरे पिताजी ख़ुद सी० जे० एम० थे. लेकिन सी० जे० एम० होते हुए भी न तो आपके जैसा उनका रुतबा था, न ही आपकी जैसी उनकी आमदनी थी और न ही आपके जैसे उनके शौक़
थे.’
मेरे
इस विस्फोटक जवाब से पेशकार साहब पर मानों घड़ों पानी पड़ गया. फिर रास्ते भर
उन्होंने मुझ से कोई बात नहीं की.
वैसे
भी पेशकार साहब अब बातचीत करने की हालत में भी नहीं थे. बेचारे बार-बार टैक्सी
रुकवा कर उल्टियाँ कर रहे थे.
शर्मिंदा
और रुआंसी पेशकार-पुत्री बार-बार होने वाली– ‘रुकावट के लिए खेद है’के लिए मुझ से माफ़ी मांग रही थी.
अब
उसने खुद बीच वाली सीट पर बैठ कर अपने पिता श्री को अपनी सीट पर बिठा दिया था ताकि
वो आराम से आक-थू, उऐ-उऐ वगैरा कर सकें.
अपने
बगल के हानिकारक बापू की सीट का तबादला हो जाने से मैं बड़ी
राहत
महसूस कर रहा था पर फिर भी उनको ले कर मेरे दिमाग में वही नग्मा गूँज रहा था –
‘आपको पहले भी कहीं देखा है,
ख्व़ाब
में या रूबरू, पर देखा है ’
सवाल
उठ रहा था कि इन बेवड़ा साहब को मैंने कहाँ देखा है -
‘क्या कचहरी में?
लेकिन कोर्ट-कचहरी तो मैं पिछले दो साल से गया ही नहीं.
तो
क्या बाज़ार की किसी दुकान में या फिर रास्ते में?
पर
राह चलते या दुकान पर खरीदारी करते किसी शख्स की सूरत दिमाग में ऐसे कहाँ घर कर
जाती है?’
फिर
अचानक मेरे दिमाग की बत्ती जल उठी.
मुझे
फ़ौरन याद आ गया कि इन बेवड़े साहब को मैंने कहाँ देखा है.
ये
वही सज्जन थे जो कि आए दिन, थाना बाज़ार से लाला बाज़ार तक, कहीं भी, झूमते, गाते, लड़खड़ाते या फिर कभी-कभी टुन्न
अवस्था में नाली में पड़े देखे जाते थे.
इस
ज्ञान को प्राप्त होते ही मेरे दिमाग में गूंजने वाला नग्मा –
‘आपको पहले भी कहीं देखा है,
ख्व़ाब
में या रूबरू, पर देखा है ’
ऑटोमेटिकली
बंद हो गया और उसकी जगह उसी नग्मे की धुन पर यह स्वरचित नग्मा गूंजने लगा –
‘आपको गाते-बहकते देखा है,
टुन्न
हो नाली में, लेटा देखा है ---’
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-9-22} को "श्रद्धा में मत कीजिए, कोई वाद-विवाद"(चर्चा अंक 4549) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
'श्रद्धा में मत कीजिए, कोई वाद-विवाद' (चर्चा अंक 4549) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कामिनी जी.
हटाएं😃😃😃👌आदरनीय गोपेश जी, रोचक शैली में आपके बतरस को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। जिज्ञासु शिष्या के अतिजिज्ञासु इतिहास प्रेमी पिता श्री के साथ आप जैसे निर्व्यसनी व्यक्ति का गुजारा कहाँ होना था।समझ आता है कि आप शालीनता वश उन महाशय को कुछ बोल ना पाये होंगे,अन्यथा अगर उन्हें उनका सही परिचय शुरु में ही मिल जाता तो हो सकता है कि वे मारे शर्म के अपनी टैक्सी बदल लेते और खामखाँ के आज़ाब से आपको मुक्ति मिल जाती।बहरहाल अपनी मासूम बिटिया को अपने भद्दे आचरण से लज्जित करने वाले इन सज्जन के साथ इस मर्मांतक सफर का बडा रोचक परिचय दिया है आपने।कुछ पल बेबाकी से हँसाने के लिए शुक्रिया आपका 🙏
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद रेणुबाला.
हटाएंहंसी-मज़ाक की बात से अलग बात करें तो इस किस्से में इस बात का भी जिक्र है कि एक बेटी के लिए शराबी बाप का साथ कितना कष्टकारी और कितना अपमानजनक होता है.
अल्मोड़ा में ऐसी बहुत सी बेटियों के दर्द को मैंने शिद्दत के साथ महसूस किया है.
मैंने शराबियों के बेटों के दर्द का ज़िक्र नहीं किया है क्योंकि अधिकतर सपूत इस मामले में अपने बाप के ही नक्शेकदम पर चलते हुए देखे जाते हैं.
रोचक संस्मरण आपकी स्वरचित पंक्तियों पर जा कर समाप्त हुआ ।
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा की प्रशंसा के लिए धन्यवाद संगीता जी.
हटाएंमार-काट और तनाव-उठापटक वाले इस विषाक्त वातावरण में कभी-कभी हास्य-विनोद की हल्की-फुल्की बात करना मैं ज़रूरी समझता हूँ.
वाह
जवाब देंहटाएं'वाह' के लिए धन्यवाद दोस्त !
हटाएंकाश! चाचा नीतीश जैसा वहां भी कोई शराबबंदी लगा देता। बाद में भतीजे का भी साथ मिल जाता। सुंदर संस्मरण।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मित्र !
हटाएंउत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में नैनीताल, मसूरी आदि पर्यटन स्थलों को छोड़ कर बहुत सालों तक शराबबंदी रही और इस शराबबंदी के दौरान वही सब कुछ होता था जो बिहार और गुजरात में आज हो रहा है.
चोरी-छुपे कच्ची-पक्की शराब बनती थी, बाहर से शराब की स्मगलिंग भी होती थी, आयुर्वेदिक औषधि के रूप में खूब शराब बनाई जाती थी और कुछ भी न मिलने पर लोगबाग नीट पोदीन हरा और कफ़ सिरप तक पी जाते थे.
और अब उत्तराखण्ड में तो शराब की बहार ही बहार है.
गोपेश भाई, शराबी पिता के बेटियों पर क्या गुजरती है यह मैं अच्छे से जानती हूं। मेरी एक कामवाली का पति बहुत पीता है। वो अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाती रहती है।
जवाब देंहटाएंऐसे विषयों में भी आप व्यंग और हास्य ढूंढ लाते हो यह आपकी लेखनी का क़माल है।
मेरी लेखनी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति !
हटाएंमैं यह मानता हूँ कि अपने लेखन में शराबियों की अगर केवल निंदा करो तो पढ़ने वाला उकता जाता है.
कभी इस दुर्व्यसन को ले कर हंसी-मज़ाक भी किया जा सकता है पर यह बात ज़रूर ध्यान में रखनी चाहिए कि कभी भी मयनोशी को महिमामंडित या जस्टिफ़ाई नहीं करना चाहिए.
व्यंग्य की धार तेज है फिर भी न जाने क्यों कोफ्त होती है ये सब देख सुन कर।
जवाब देंहटाएंपतन का आखिर अंत कहां होगा।
कुसुम जी,
हटाएंजिसके पास धन है, पद है या फिर जिसका आतंक है, उसी का मान-सम्मान है.
तो आपके सवाल का जवाब है -
समाज रसातल में है और आगे चल कर इसका हशर और भी बुरा होने वाला है.