1. पीठ में भोंका छुरा, ऐ दोस्त ! तू हमदर्द था,
बे-रहम दुनिया में, जी पाना, बड़ा सरदर्द था.
2. सीने में दुश्मन की गोली, झेल, दोस्त बच जाता है,
मगर पीठ पर वार तिरा, यमलोक उसे पहुंचाता है.
3. दिल अभी उद्धव का, टूटा है नहीं,
अपने दल के भी, विभीषण चाहिए.
राजनीति में दोस्त बनाने की भूल जो करेगा वो भुगतेगा ही।
जवाब देंहटाएंयहाँ लोग खुद के सगे नही होते तो दोस्त की तो दूर की बात है।
बहुत सटीक आदरणीय सर। सादर नमन सुप्रभात 🙏
दोस्त, दोस्त ना रहा, भतीजा, भतीजा, ना रहा,
हटाएंसाज़िशों के सामने, मन का चाहा, नतीजा ना रहा.
ना कोई सीना, ना कोई गोली,
जवाब देंहटाएंनहीं किसी ने जंग जीती है।
पीठ-छूरा मौसेरे भाई ,
मित्र ! बेरहम यह राजनीति है।।
जिसमें नीति का नामो-निशान न हो उसे 'राजनीति' क्यों कहते हैं? उसे तो शाह-नीति कहना चाहिए.
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२४ -११ -२०१९ ) को "जितने भी है लोग परेशान मिल रहे"(चर्चा अंक-३५२९) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
'जितने भी लोग मिल रहे, परेशान मिल रहे' (चर्चा अंक - 3529) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता जी.
हटाएंलोकतंत्र के नये मंत्र।
जवाब देंहटाएंजोकतन्त्र के नए-नए ढंग, सभी कुओं में पड़ी है भंग.
हटाएंचर्चाएं फैली है बहुत, शाह नीति की गति तेज है बहुत,
जवाब देंहटाएंतंत्र मंत्र सब बेकार है पीठ में छुरा खाने को लोग खुद ही तैयार हैं
... कम शब्दों में पूरी महाराष्ट्र की राजनीति का लेखा-जोखा आपने प्रस्तुत कर दिया बहुत ही शानदार लिखा
धन्यवाद अनिता लागुरी 'अनु' जी. अभी यह किस्सा ख़त्म नहीं हुआ है. इस काण्ड की शान में कुछ और गुस्ताखियाँ आप सबकी नज़र करूंगा.
हटाएंसुन्दर...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रिषभ जी.
जवाब देंहटाएंआप जिस निति की बात कर रहे हैं उसके गंदे बीज सन ४७ से डले हुए हैं जो आज उन्ही को / जनता को काट रहे हैं ... बबूल बोते हुए जब किसी ने नहीं सोचा तो अब पेड़ को दोष काहे का ...
जवाब देंहटाएंदिगंबर नासवा जी, देखा जाए भारतीय राजनीति में स्वार्थपरता और सत्ता-मोह तो 1937 में प्रांतीय सरकारों के गठन से ही प्रारंभ हो गया था. और इस से पहले ही प्रेमचंद ने 'गबन' उपन्यास में अपने पात्र देवीदीन के मुख से कहलवाया था कि भारतीयों के सत्ता में आने पर उनके कारनामे, अंग्रेज़ों के काले कारनामों से भी ज़्यादा काले होंगे.
हटाएंइसीलिए मैं 'नीति' की नहीं, बल्कि उस 'अनीति' की बात कह रहा हूँ जिसका पालन करके अजातशत्रु ने अपने पिता को मारा था, अशोक ने और औरंगज़ेब ने अपने भाइयों को मारा था और आज भतीजा, चाचा को मार रहा है.
यहीं तक बस कहां है बस देखते जाइये
जवाब देंहटाएंये सियासत का खेल है कुछ ना बोलिए।
कब कौनसी पटखनी हो बस साम दाम दंड भेद को कुशलतापूर्वक कौन ले सकता कितना, बस इसी का सुराग लगाते जाइए।
आपने थोड़े में सब लिख दिया ,पर इनकी रणनीति पर और भी बहुत लिखने के मौके आते रहेंगे आपकी धारदार कलम बस चलती रहे।
मन की वीणा !
जवाब देंहटाएंइन सियासतदानों को मेरी धारदार कलम की नहीं, बल्कि किसी के धारदार फरसे की ज़रुरत है.
आदरणीय गोपेश जी -- चार पंक्तियाँ और प्रबुद्धजनों का सार्थक वार्तालाप सभी बहुत ही रोचक और सार्थक है | सादर
हटाएंधन्यवाद रेणु जी.
जवाब देंहटाएंआम आदमी की सारी ज़िंदगी में अगर सियासतदानों के एक दिन के जितने भी षड्यंत्र, विश्वासघात, उठा-पटक, उलट-पलट और दांव-पेच होने लगें तो वह ख़ुद ही अपने गले में फन्दा लगा कर लटक जाएगा.