मंगलवार, 27 जुलाई 2021

फ़ैसला

वकीलों के बीच, मेरे पिताजी अपने अति गंभीर व्यवहार और नो-नॉनसेंस एटीट्यूड के लिए काफ़ी प्रसिद्द थे, बल्कि सच कहूँ तो काफ़ी बदनाम थे.
उनके कोर्ट में अगर कोई वक़ील काला कोट पहन कर न आए या अधिवक्ताओं वाला सफ़ेद बैंड लगा कर न आए तो वो उसे कोर्ट से बाहर का रास्ता दिखा देते थे. कोर्ट में हास-परिहास या मुद्दे से हट कर कोई भी बात उन्हें क़तई गवारा नहीं थी. नौजवान वक़ील साहिबान तो उनसे बहुत डरा करते थे.
कोर्ट में बहस के दौरान वो कभी उनकी क़ानूनी अज्ञानता पर उन्हें टोका करते थे तो कभी उनकी गलत-सलत अंग्रेज़ी पर.
बढ़ती हुई बेरोज़गारी के ज़माने में कचहरियों में काले कोट-धारियों की फ़ौज जमा होने लगी थी पर उनकी संख्या में बेशुमार वृद्धि की तुलना में वहां काम में वृद्धि की तो कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था.
शुरू-शुरू में नए-नए बने वकील साहब चमचमाती साइकिल पर नया कोट और टिनोपाल लगी सफ़ेद पैंट में सर्र-सर्र लहराते हुए किसी फ़िल्म के हीरो लगा करते थे पर कुछ दिनों बाद ही धूल भरी साइकिल पर उड़े हुए रंग के काले कोट, मटमैली हो रही सफ़ेद पैंट में, वो स्लो मोशन में चलते हुए किसी पारिवारिक फ़िल्म में बाबूजी का रोल निभाने वाले नाना पलसीकर या नज़ीर हुसेन जैसा कोई चरित्र अभिनेता लगने लगते थे.
पिताजी खाली बैठे इन वकीलों की बढ़ती तादाद को लेकर बहुत परेशान रहते थे. अक्सर वो इशारों-इशारों में इन नौजवान बेरोजगारों को कोई दूसरा पेशा इख़्तियार करने की सलाह देने लगे थे.
कब इन नौजवानों पर अपना गुस्सा या रौब झाड़ने से ज़्यादा उन्हें उनकी फ़िक्र होने लगी थी, कब इन कठोर, उसूलों के पक्के, मजिस्ट्रेट साहब पर एक रहमदिल और फिक्रमंद बाप हावी हो गया, हमको पता ही नहीं चला पर उन नौजवान वकीलों को पता चल गया.
उन्हें मालूम हो गया कि मजिस्ट्रेट साहब कंपटीशन की तैयारी करने वालों की हर तरह से मदद करने को तैयार रहते हैं और उन्हें ऐसे लोगों को कंपटीशन से सम्बंधित होम वर्क देने में और उसको जांचकर उसमें आवश्यक सुधार करने में बड़ा आनंद आता है.
वकीलों को हमारे घर पर आने की इजाज़त तो नहीं थी पर पिताजी जब मोर्निंग वॉक के लिए जाते थे तब पी. सी. एस. जे. या ए. पी. ओ. (असिस्टेंट प्रोसीक्यूशन ऑफिसर) की परीक्षा की तैयारी कर रहे दो-चार बेरोजगार नौजवान वक़ील साहिबान उनके साथ हो लेते थे.
टहलने के दौरान लगातार गुरु-शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर होते रहते थे.
पिताजी का यह बदला हुआ रूप देख कर हमको बड़ा मज़ा आता था.
कभी पिताजी का कोई शागिर्द किसी परीक्षा में सफल हो जाता था तो वो अपनी डायबटीज़ की परवाह किए बगैर मिठाई ज़रूर खाते थे. पर ऐसे मौक़े बहुत कम आते थे.
अक्सर उनके फ़ाकों और उनकी परेशानियों की दास्तानें ही पिताजी को दुखी करती रहती थीं.
1972 की बात है. उन दिनों पिताजी मैनपुरी में पोस्टेड थे.
पिताजी की मोर्निंग वॉक के उनके एक छात्र और कंपटीशन की तैयारी में लगे एक वक़ील साहब बहुत फटे हाल में थे. टूटे पेडल वाली उनकी खटारा साइकिल में आए दिन पंचर भी होते रहते थे. वकील साहब अपनी साइकिल पर बैठते कम थे, साइकिल के किसी पहिए में पंचर हो जाने पर या उसका पेडल निकल जाने पर, उसे घसीटते ज़्यादा थे.
एक दिन पिताजी के कोर्ट के हाते में उन्हीं नौजवान वकील साहब और किसी बड़े वक़ील के मुंशी में ज़ोर-ज़ोर से बहस हो रही थी.
पिताजी ने उन दोनों को बुला कर उन्हें शोर मचाने के लिए फटकारा फिर उनसे उनकी बहस का कारण पूछा.
लगभग रोते हुए नौजवान वकील साहब ने पिताजी से कहा –
‘साहब, मुंशीजी केस में पेशी की तारीख़ बढ़वाना चाहते हैं. बड़े वकील साहब तो आए नहीं हैं, तारीख़ बढ़ाने की अर्जी में मुंशीजी को मेरे दस्तख़त चाहिए. पर ये मुझे इसके लिए बस -- ‘
मुंशीजी ने वकील साहब की बात पूरी नहीं होने दी और फिर उन्होंने हाथ जोड़ कर पिताजी से कहा –
‘हुज़ूर, ये वकील साहब दिन भर तो बैठे मक्खी मारते रहते हैं. पर मैं ज़रा से दस्तखत करने के इन्हें दस रूपये दे रहा हूँ तो ये मुझ से तीस रूपये मांग रहे हैं.’
आम तौर पर ऐसी बात सुन कर वकील साहब और मुंशीजी दोनों को ही पिताजी तुरंत कोर्ट-निकाला दे देते पर पता नहीं कैसे उसूलों और अनुशासन के पक्के मजिस्ट्रेट साहब पर एक फिक्रमंद बाप हावी हो गया.
यह घटना आज से क़रीब उन्चास साल पहले की थी फिर भी किसी वकील के लिए मात्र 10 रूपये का मेहनताना तब भी बहुत कम था.
पिताजी ने मुंशीजी को लताड़ लगाई फिर उन्हें प्यार से समझाते हुए कहा –
‘मुंशीजी, हो सकता है कि कल यह लड़का मजिस्ट्रेट या जज बन जाए.
आज भी यह एडवोकेट तो है ही, तुम वक़ालत के पेशे की थोड़ी तो इज्ज़त करो. इसी के सहारे तुम्हारी भी रोज़ी-रोटी चलती है.
चुपचाप इसको तीस रुपए दे दो और तारीख बढ़वाने की अर्जी जमा करवा दो.’
मुंशीजी ने साहब को सलाम ठोकते हुए वक़ील साहब को तारीख बढ़वाने की अर्जी पर दस्तखत करने के तीस रूपये थमा दिए.
अंत भला तो सब भला. अदालत बर्ख्वास्त होने पर पिताजी जब कोर्ट से बाहर निकल रहे थे तो जेब में तीस रूपये सम्हालते हुए लेकिन अपनी खुशी का बेलगाम इज़हार करते हुए वकील साहब ने उनसे कहा –
‘हुज़ूर, आज बहुत दिनों बाद हडिया भर रसमलाई खरीद कर घर ले जाऊँगा.’
साहब ने रसमलाई की खरीद पर रोक लगाते हुए अपना सख्ती भरा फ़ैसला सुना दिया –
‘तुम कोई रसमलाई वगैरा नहीं खरीदोगे.
तुम कोर्ट से सीधे साइकिल की दुकान पर जाओ. इन तीस रुपयों से अपनी साइकिल का टूटा पेडल और पिछले पहिए के टायर-ट्यूब बदलवाओ.’

27 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. धन्यवाद मित्र !
      आज भी मेरी यादों में पिताजी जीवित हैं.

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद संगीता स्वरुप (गीत) जी.

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  3. 'उद्विग्नता' (चर्चा अंक - 4139) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता !

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  4. अब आप रंगने लगे हैं ब्लोगिंग में।

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  5. ब्लॉगिंग में रमना तो हमने सुशील जोशी से ही सीखा है.

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  6. वाह!! रोचक संस्मरण.. वकील भी खूब था...

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  7. मेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद विकास नैनवाल 'अंजान' जी.

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  8. बहुत ही बेहतरीन संस्मरण सर

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    1. संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद मनीषा.
      पिताजी को याद करते हुए मैं आज भी भावुक हो जाता हूँ.

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    1. मेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद शुभा जी.

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  10. बहुत ही सुंदर फैसला ... रोचक संस्मरण।

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  11. सदा की तरह लाजवाब । ऐसे गुरुजी सबको मिले । सुन्दर संस्मरण ।

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    1. धन्यवाद मीना जी.
      पिताजी याद आते हैं तो कलम अनायास ही चलने लगती है.

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    1. मेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद डॉक्टर कुमारी शरद सिंह !

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    1. संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ओंकार जी.

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  14. सुन्दर संस्मरण..इन नौजवानों पर अपना गुस्सा या रौब झाड़ने से ज़्यादा उन्हें उनकी फ़िक्र होने लगी थी, कब इन कठोर, उसूलों के पक्के, मजिस्ट्रेट साहब पर एक रहमदिल और फिक्रमंद बाप हावी हो गया, हमको पता ही नहीं चला पर उन नौजवान वकीलों को पता चल गया. उन्हें मालूम हो गया कि मजिस्ट्रेट साहब कंपटीशन की तैयारी करने वालों की हर तरह से मदद करने को तैयार रहते हैं,..
    . आपकी बात से सहमत हूं,मैने भी अनुभव किया है कि वो ऐसा दौर था जब बड़े अपने अनुभवों के आधार पर अपने से छोटों को समझाते वक्त अपनेपन में बहुत गुस्सा हो जाया करते थे,पर उसी इंसान को सही राय देने में कभी नहीं कमी रखते थे,चाहे अगला समझे या न समझे, समझाना अपना हक और कर्तव्य समझते थे,अब ऐसे लोग कहां हैं ?आज तो लोग कहते है ? कि बिना मांगे हम राय नहीं देते।...ऐसे पिताजी को मेरा सादर नमन🙏💐

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    1. मेरी कलम की और पिताजी की प्रकृति की, प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा. वाक़ई, पुरानी पीढ़ी, तब की युवा पीढ़ी को अपने अनुभव का और अपने ज्ञान का लाभ देने में कोई संकोच नहीं करती थी.
      आज ज़माना बदल गया है. सूचना के सारे चैनल पेड-चैनल हो गए हैं.

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