गुरुवार, 29 जुलाई 2021

निंदक नियरे राखिए

आमतौर पर बेचारे आलोचकों को निंदकों की श्रेणी में रखा जाता है और कोई भी अपने आँगन में उनके रहने के लिए कुटिया नहीं बनवाता है.
मेरी यह बात सोलह आने खरी है, इसको प्रमाणित करने के लिए चैंपियन आलोचक कबीरदास का उदाहरण पर्याप्त है.
हिन्दू-मुसलमान का आपस में सर फोड़ना, पंडित-मौलवी का पाखण्ड, मंदिर-मस्जिद की निरर्थकता, जप और छापे का ढोंग, तस्बीह-माला फेरने का दिखावा, गंगा-स्नान और तीर्थ-यात्रा, हज के नाम पर, ख़ुद को ठगने की मूर्खता, अज़ान दे कर अपने और दूसरों के कान फोड़ना, दिन में रोज़ा रख कर रात को समूची गाय डकार जाना, दुनिया भर की लड़कियां छोड़ कर अपनी ही खाला की बेटी ब्याहना और वेद-पुराण-क़ुरान की प्रामाणिकता पर सवालिया निशान लगाने वाले इस शख्स को समाज का तो क्या, अपने बेटे कमाल का भी साथ नहीं मिला.
पंडित-मुल्ला उस से नाराज़, सुल्तान उस से खफ़ा, बेटा उसके ख़िलाफ़ और साहित्य के पंडित उसकी अटपटी भाषा की वजह से उसे साहित्यकार तक मानने को तैयार नहीं !
फिर उसके लिए अपने आँगन में कौन कुटी छवाता?
बेचारा फटे छप्पर के नीचे अपने करघे पर झीनी चदरिया बुनते-बुनते परलोक सिधार गया.
इसी कबीरदास की आलोचक-निंदक परंपरा का निर्वाह करने वाला मैं गरीब भी, न तो समाज में किसी का साथ पाता हूँ और न ही अपने घर में !
कबीर की ही तरह मुझे पूजा-स्थलों में भक्ति के नाम पर अपने धन का प्रदर्शन सहन नहीं होता है.
मुझे राजस्थान के अलवर जिले में स्थित जैन तीर्थ तिजारा जी जाने का कई बार सौभाग्य मिला है. वहां जा कर मन को बड़ी शांति मिलती है लेकिन मुख्य मन्दिर में मुझे एक बात बेहद खटकती है -
मन्दिर के मुख्य-कक्ष की अंदरूनी छत पर, यानी की भगवान जी की मूर्ति से भी बीस फ़ीट ऊपर एक किसी बिजली वाले दानकर्ता का नाम अंकित है. इसके साथ यह भी मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है - बिजली के हर प्रकार के काम के लिए संपर्क करें -- श्री --- मोबाइल नंबर ---- !'
'पारस', 'जिनवाणी' और 'अरिहंत' चैनलों पर मुनि महाराजों के प्रवचन, भगवान के अभिषेक, तीर्थ-दर्शन आदि को स्पांसर करने वाले पुण्यार्जक अधिकतर व्यापारी होते हैं जो कि धर्म की सेवा और उसका प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ न सिर्फ़ अपनी तूूर की दाल का और कच्ची घानी के सरसों के तेल का विज्ञापन करते हैं, बल्कि कभी-कभी तो टोटके, वशीकरण-मन्त्र और बांझपन के शर्तिया इलाज के लिए भी संपर्क करने के लिए अपना नंबर दे देते हैं.
अब समझ में नहीं आता कि पहले भगवान को प्रणाम किया जाए या फिर उन से बीस फ़ीट ऊपर विराजे बिजली वाले दानी महात्मा को !
यह भी समझ में नहीं आता कि इन धार्मिक चैनलों से पहले धर्म-लाभ प्राप्त करूं या फिर इन में विज्ञापित सामानों की उपादेयता का परीक्षण करूं.
मैंने अपने सवाल अपने आत्मीयजन के सामने जब भी रखे तो उन्होंने मुझे न सिर्फ़ डांटा, बल्कि धिक्कारा भी !
मुझे मन्दिरों में फ़िल्मी गानों की धुनों पर गाए जाने वाले भजनों से बहुत चिढ़ है.
'हरे रामा, हरे कृष्णा --' गाते हुए अगर पंडित जी - 'है अपना दिल तो आवारा' की धुन पर झूमने लगें तो हमारी आँखों के सामने भगवान जी की मोहनी मूरत आएगी या फिर देवानंद की?
हमारे देश में कांकर-पाथर जोड़ कर कहीं न कहीं, किसी न किसी, भव्य पूजा-स्थल का निर्माण होता रहता है.
क्या किसी ने कभी पूछा है कि इस पूजा-स्थल के निर्माण में कितना काला धन लगा है और कितना धरम की कमाई का?
मैं जब भी ऐसा सवाल उठाता हूँ तो फिर मेरी सार्वजनिक भर्त्सना तो होती ही होती है.
अब धर्म से हट कर साहित्य-चर्चा कर ली जाए.
मेरी एक सहयोगी थीं. एक कवियित्री के रूप में उनकी प्रतिष्ठा थी. मेरी ख़ुशकिस्मती थी कि वो अपनी कविताएं मुझे दिखा कर उनके विषय में मेरी राय भी जान लिया करती थीं.
एक बार उन्होंने शुद्ध-प्रांजल भाषा में लिखी हुई अपनी एक कविता दिखाई. उस कविता में शब्द थे -
'किसलय का अंचल डोल रहा'
मैंने इन शब्दों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कुछ और शब्द जोड़ कर पंक्तियां पूरी कर दीं -
'खग कुल, कुल-कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु-मुकुल नवल रस गागरी.
बीती विभावरी जाग री ---'
मेरे इस संशोधन से मोहतरमा इतनी नाराज़ हो गईं कि फिर उन्होंने अपनी कविताओं को मुझे कभी नहीं दिखाया.
एक अध्यापक के रूप में अपने विद्यार्थियों को उनकी गल्तियों पर टोकने की और उन्हें सुधारने की, मेरी आदत अवकाश-प्राप्ति के दस साल बाद भी छूटी नहीं है.
फ़ेसबुक पर मैं अक्सर अपने मित्रों की भाषा की अशुद्धियों पर उन्हें टोकता रहता हूँ और उन्हें दुरुस्त करने का दुस्साहस भी करता हूँ लेकिन अब मैं यह टोका-टोकी सिर्फ़ 'मेसेंजर' के सहारे प्रेषित करता हूँ.
इस सावधानी को बरतने से मेरे दोस्त मेरी ऐसी गुस्ताखियों के लिए मुझे कभी-कभी माफ़ भी कर देते हैं.
मेरे प्रथम गुरु, मेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल मेरे आलोचक हैं, मेरे सलाहकार हैं और मेरे परम श्रद्धेय निंदक हैं.
मेरी बात सुनते ही या फिर मेरी रचना पढ़ते ही भाई साहब की अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रिया तुरंत आ जाती है -
'तुमने फ़लां जगह ये ग़लत लिख दिया'
'इस शब्द को इस तरह लिखा जाना चाहिए था'
'ये वाला कथन तुमने उस व्यक्ति का कैसे बता दिया?'
''तुमने फ़ैज़ की इस नज़्म की व्याख्या सही ढंग से नहीं की है'
ऐसी तमाम बातों को मैं सुनता हूँ, उन पर मनन करता हूँ और फिर तुरंत आवश्यक संशोधन भी कर लेता हूँ.
पुनर्जन्म में मेरा कोई विश्वास नहीं है लेकिन अगर मेरा कभी पुनर्जन्म होगा तो मैं चाहूँगा कि उस जन्म में भी निंदक के रूप में मेरे बड़े भाई साहब अवश्य मेरे नियरे रहें.
आजकल फ़ेसबुक पर स्वनामधन्य साहित्यकार खुलेआम प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाओं में ज़रा सा फेर-बदल कर उन्हें अपनी रचना कह कर प्रस्तुत करते रहते हैं. सबसे दुःख की बात यह है कि उनकी चोरी पर वाह-वाह करने वालों की कभी कोई कमी नहीं रहती है.
ग़लत-सलत उर्दू बोलने-लिखने वाले स्व-घोषित मिर्ज़ा गालिबों और जावेद अख्तरों को, टोकने पर न जाने कितनी बार मेरी जान को ख़तरा हुआ है लेकिन मैं अपनी इस टोकू आदत से बाज़ नहीं आता.
'श' को - 'स' और 'ज़' को - 'ज' सुनते ही मेरे कानों को कुछ-कुछ होने लगता है.
फ़ेसबुक पर 'फ़ुरसतिये' पर एक से एक चुटकुले आते हैं. इन चुटकुलों में सारे के सारे चुटकुले बासे होते हैं, चुराए हुए होते हैं लेकिन चोर के द्वारा इन्हें हमेशा अपना कह कर ही पेश किया जाता है. कोई भी पाठक इनको बासा और पुराना कहने का या फिर चोरी का बताने का साहस नहीं करता.
भारत के प्राचीन गौरव का गुणगान करने वाले हमारे देशभक्त नेतागण पुष्पक विमान के होने के प्रमाण जुटाते हैं, गणेश जी के कटे सर के स्थान पर प्लास्टिक सर्जरी से हाथी का सर लगवा देते हैं, नील आर्मस्ट्रोंग से पहले न जाने कितने ऋषि-मुनियों को चन्द्रमा की सैर करा देते हैं पर ऐसी बातों पर मेरे जैसे किसी धृष्ट व्यक्ति के सवाल उठाए जाने पर वो उसका सर काटने के लिए दौड़ पड़ते हैं.
आक़ाओं को तो निंदक फूटी आँख नहीं भाते हैं. उनके लिए तो -
'चारण नियरे राखिए' वाली उक्ति ही सही बैठती है.
इन चारणों को कभी मलाई खिलाई जाती है तो कभी राज्यसभा के लिए मनोनीत भी किया जाता है और अंत में इनकी एक्सपायरी डेट बीत जाने पर इन्हें कहीं का राज्यपाल भी बना दिया जाता है.
दिव्य वस्त्र पहनने के मुगालते में नंगे राजा को नंगा बताने की हिम्मत या तो कोई बच्चा कर सकता है या फिर कोई कबीर.
यह तय है कि कोई सयाना तो इस बारे में अपना मुंह खोलने की जुर्रत भी नहीं कर सकता !
मित्रों, ऐसी बातें तो अनंत काल तक चलती रह सकती हैं किन्तु अब मैं अपनी लेखनी को इस अंतिम प्रश्न के बाद विराम देता हूँ -
क्या है कोई माई का लाल जो कि अपने आँगन में मेरे जैसे निंदक के लिए कुटी छवाएगा?

14 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा रखा तो है आपको नजदीक :) बहुत सुन्दर।

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    1. तारीफ़ के लिए शुक्रिया दोस्त !
      वैसे तुमने मुझे कहाँ नज़दीक रखा है?
      अल्मोड़ा और ग्रेटर नॉएडा में बहुत दूरी है.

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  2. बहुत सुंदर सारगर्भित,और सार्थक भी। आदरणीय सर आपके लिए कुटिया तो मिल जायेगी पर आजकल कबीर जी जैसी कुटिया में रहना बहुत मुश्किल है,गर्मी बहुत है,बारिश भी हो रही है,कुटिया में बिजली भी नहीं होगी और घाटों का पानी भी पीने लायक नहीं,अतः कुटिया में तो रहना मुश्किल होगा। आप हमारी गलतियां इंगित करते रहें किसी भी तरह,आपका आभार होगा, आपकी हर सलाह का हार्दिक स्वागत है, धृष्टता के लिए क्षमा करें।आपको मेरा सादर नमन🙏💐

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    1. जिज्ञासा, तुम्हारी यह दरियादिली है कि तुम मेरी धृष्ट सलाह का भी स्वागत करती हो वरना मेरी सलाह पर लोगबाग तलवार निकाल कर मेरे पीछे दौड़ पड़ते हैं.
      अब रही कुटिया की बात तो ऋषिकेश से ऊपर कहीं गंगा किनारे एक कुटिया छाई जा सकती है. आर. ओ. से भी पवित्र गंगा का शुद्ध-निर्मल पानी और बिना पंखे-कूलर-ए. सी. के, ठंडी मंद बयार !

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  3. 'शांत-स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्जवल' (चर्चा अंक - 4141) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने किए बहुत-बहुत धन्यवाद मीना जी.

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  4. आलोचना अगर सार्वजनिक होती है तो लोग ये आपेक्षा रखते हैं की सामान रूप से हर किसी की आलोचना हो ... चाहे धर्म हो, राजनीति हो, व्यवहार हो, आचार हो ... फिर आलोचना केवल आलोचना तक तो ठीक रहती है जब वो किसी की भावनाओं को चोट करने लगती है तो आलोचना न रह कर उपहास करना भर रह जाता है ...
    मेरा ऐसा मानना है ... किसी का सहमत होना ज़रूरी नहीं ...

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    1. आपका कहना बिलकुल सही है दिगंबर नासवा जी. सार्वजनिक निर्मम आलोचना तो एक प्रकार की हिंसा है लेकिन आँख-मूँद कर किसी की बेवकूफ़ियाँ या चोरियां स्वीकार कर लेना या तो हमारी काहिली है या फिर हमारी कायरता है.
      कुछ दिन पहले हमने एक महान कवि के ब्लॉग पर उनकी एक छोटी सी कविता पढ़ी थी. कविराज - 'कर दूं' को - करदु' लिखते हैं तो - 'हैं' को - 'है' और - बतलाएं' को - बतलाए' लिखते हैं. मज़े की बात है कि तमाम लोग उनकी दर्जनों गल्तियों वाली टूटी-फूटी कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं.
      अब अगर मैं उनकी गलतियाँ इंगित कर देता हूँ तो क्या यह उनका उपहास उड़ाना हुआ?

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  5. मेरे आंगन-कुटिया में आपका सदा स्वागत है गोपेश जी। मैं आपके सभी विचारों से सहमत हूं। (हिन्दी) ब्लॉग की दुनिया में जो आपने देखा और महसूस किया है, मैंने भी किया है। पर क्या करें? कबीर उंगली उठा सकते थे और इस वजह से अपना ठुकराया जाना भी सह सकते थे, लेकिन दूसरों को बदल नहीं सकते थे। बदलाव या सुधार तो आत्मालोचन से ही आ सकता है। और आत्मालोचन के लिए जो आत्मबल चाहिए, वह विरलों में ही होता है।

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    1. अपने आँगन में उदार निमंत्रण के लिए धन्यवाद जितेन्द्र माथुर जी.
      मेरे अन्दर के अध्यापक की लाल इंक वाला पेन गलतियाँ देख कर जाने-अनजाने चलने लगता है, कभी नंबर काटने को तो कभी प्रतिकूल टिप्पणी देने को तो कभी सृजनात्मक सुझाव देने को.
      वैसे अपने आलेख में मैंने केवल साहित्य-चर्चा नहीं की है.
      धर्म के और राजनीति के क्षेत्र में भी, आलोचक-निंदक की महत्ता-आवश्यकता को इस में मैंने दर्शाया है.
      हाँ, आत्म-लोकन, आत्म-शोधन की प्रक्रिया तो सर्वत्र ही स्वागत के योग्य है.

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  6. हमेशा की तरह गलतियाँ बताकर हमारा ज्ञान बढ़ाते रहिए।आपका हमारे ब्लॉग पर सदैव स्वागत है आदरणीय। बहुत सुंदर लेखन।

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    1. अनुराधा जी, मुझ निंदक ने अपने इस आलेख में केवल साहित्यकारों के निंदक की भूमिका नहीं निभाई है, बल्कि धर्म के क्षेत्र में और राजनीति के गलियारे में हो रही धांधलियों की ओर भी इशारा किया है.
      हम सब कभी न कभी कोई न कोई गलती तो करते ही हैं. कोई सदाशयता के साथ अगर हमारा संशोधन करता है तो हमको उसका स्वागत करना चाहिए.
      70 साल की उम्र में मैं अपने बड़े भाई साहब की टोका-टाकी से आज भी बहुत कुछ सीखता हूँ.
      आप की कलम का तो मैं बड़ा प्रशंसक हूँ, मैं आपको क्या सुझाव दूंगा?
      लेकिन विचारों का निसंकोच आदान-प्रदान करने से और सृजनात्मक आलोचना को सर-आँखों पर रखने से, हमारा-आपका-सबका भला होता है.

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  7. प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुमन जी.

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  8. सादर नमस्कार आदरणीय सर।
    गज़ब लिखा सर ...वाह!👌

    आजकल फ़ेसबुक पर स्वनामधन्य साहित्यकार खुलेआम प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाओं में ज़रा सा फेर-बदल कर उन्हें अपनी रचना कह कर प्रस्तुत करते रहते हैं. सबसे दुःख की बात यह है कि उनकी चोरी पर वाह-वाह करने वालों की कभी कोई कमी नहीं रहती है...👌
    सादर प्रणाम

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    1. मेरे दुस्साहसी विचारों से सहमत होने के लिए धन्यवाद अनीता !

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