मंगलवार, 21 अगस्त 2018

गीत नहीं गाता हूँ

कवि-ह्रदय श्री अटल बिहारी वाजपेयी आज हमारे बीच नहीं रहे तो सत्ता-पक्ष और विपक्ष दोनों ही उनका गुणगान कर रहे हैं. किन्तु जब अटलजी स्वयं सत्ता में थे तो राजनीति के दलदल में फंसकर उसमें से निकलने के लिए वो कैसे छटपटा रहे थे और उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, चारों ओर से उन पर कैसे कैसे हमले हो रहे थे, इसका उल्लेख मैंने अटल जी की ही एक अमर रचना में फेर-बदल कर किया था.
पाठकों की आलोचना और भर्त्सना का मैं स्वागत करूंगा क्योंकि इस धृष्टता के लिए उनकी तारीफ़ तो मिलने से रही.     
  
गीत नहीं गाता हूं
( अटलजी से क्षमा याचना सहित )
गीत नहीं गाता हूं, भाव नहीं पाता हूं ,
पिंजरे के पंछी सा , पंख फड़फड़ाता हूं ।
उड़ने की कोशिश में, आहत हो जाता हूं ,
बेबस हो पीड़ा में, जलता ही जाता हूं ।
सिर्फ़ छटपटाता हूं, गीत नहीं गाता हूं ।।

जीवन भर त्याग औ तपस्या के मन्त्र जपे ,
सत्य मार्ग, नीति-धर्म सबको पढ़ाता हूं ।
किन्तु स्वयं कुर्सी के,  मोहपाश में निबद्ध ,
सत्ता के दलदल में,  धंसता ही जाता हूं ।
   उबर नहीं पाता हूं, गीत नहीं गाता हूं ।।

पूरब की बहना को, कब तक मनाऊंगा ,
दक्षिण की रानी को, कैसे रिझाऊंगा ।
इनका निदान चलो, खोजा तो, खुद को मैं ,
इटली की आंधी से, कैसे बचाऊंगा ।
   समझ नहीं पाता हूँ,  गीत नहीं गाता हूँ ।।

रक्तपात, लूटमार, रोक नहीं पाऊंगा ,
कैसे धमाकों से, जनता बहलाऊंगा ।
मैं, ना इतिहास में झूठा कहलाऊंगा ,
छोड़ राज-पाट, मन, प्रभु में रमाऊंगा ।
   वन को अब जाता हूं, गीत नहीं गाता हूं ।।

24 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहूं तो ऐसे से ही विचारों का मंथन दो तीन दिन निरंतर चलता रहा पर हिम्मत नही जुटा पाई कुछ भी ऐसा लिखने का, जो आपने स्पाट और बिना किसी दुविधा से लिख दिया ।
    राजनिती एक ऐसा दलदल है जहां अच्छे या शातिर सभी छद्मस्त अवस्था मे दृष्टिगोचर होते हैं। और हमारी परम्परा मे ऐसा गूढ तक बैठा एक सत्य कि जीते जी किसी की अच्छी बात भी नही सुनना और महाप्रस्थान को जाते ही उसके सभी गुणों को अंबर की ऊंचाई तक ले जाकर निष्ठा व्यक्त करना।
    आपकी बदली हुई कविता अटल जी के छटपटाते मन की सही तस्वीर है।
    एक क्रांतिकारी कदम।
    सादर, ससाधुवाद।

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  2. धन्यवाद कुसुम जी. अटल जी ने 'समझौता एक्सप्रेस' चलवाई थी और समझौता सरकार चलाई थी. कविता तो पुरानी है पर मुझे लगा कि आप जैसे जागरूक इसे पसंद करेंगे. इसीलिए नई भूमिका के साथ इसे फिर से पोस्ट किया है.

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  3. जी,सर सादर प्रणाम।
    यूँ तो राजनीति और राजनीतिज्ञों में मेरी कोई खास रुचि नहीं। समसामयिक घटनाओं पर सामान्य ज्ञान के लिए दृष्टि होती होती है। पर फिर भी संदर्भ कविता का है इसलिए कहना है सर,
    आपने एक कवि हृदय राजनीतिज्ञ की वेदना को उनकी ही कविता में संशोधन कर कुछ नये भाव जोड़कर अभिव्यक्त करने का सार्थक प्रयास किया है। आपकी भावनाओं का सम्मान करते है। किंतु सर, मौलिक कविता से ही छेड़छाड़ क्यों?


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    1. जब कबीर, सूरदास,रहीम, दिनकर, मैथिली शरण गुप्त, दुष्यंत कुमार, नीरज, हरिवंश राय बच्चन, मिर्ज़ा ग़ालिब, अल्लामा इकबाल, जिगर मुरादाबादी, फ़िराक गोरखपुरी, साहिर आदि ने अपनी रचनाओं पर छेड़छाड़ का बुरा नहीं माना तो भला अटलजी क्यों बुरा मानते? श्वेता जी, मेरा यह शौक़ रहा है कि किसी प्रसिद्द कविता को मैं अपने अंदाज़ में पेश करूं. ऐसी चोरी और डाके की कविताओं की संख्या तो 100 से ऊपर होगी. वैसे मेरे अलावा ऐसी गुस्ताखियाँ और भी बहुत लोग करते हैं. इन में गुलज़ार भी शामिल हैं.

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    2. जी सर,
      पहले भी पढ़े है....कभी कह नहीं पाये,पर आज रहा न गया इसलिए कह दिये।
      खैर, सबका अपना नज़रिया है हर विषय पर।

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    3. सिर्फ़ वाह, वाह में क्या आनंद है? स्वस्थ आलोचना और बेबाक राय ही तो रचनाकार को सुधरने का मौक़ा देती हैं. वैसे गंभीर से गंभीर बात को शालीनता के साथ हास्य और व्यंग्य की शैली में प्रस्तुत करना मुझे तो भाता है. मैं कभी-कभी अपने इस प्रयास में वर्तमान व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी चोट करता हूँ.

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    1. रेनू जी, आप का कोमल ह्रदय मेरी कुल्हाड़ी के प्रहार जैसी कविता की आंशिक प्रशंसा भी करे तो यह मेरे लिए ख़ुशी की बात है. यह कविता तब की है जब अटल जी का सिंहासन डोल रहा था. उनका सिंहासन हिलाने में देश की चार वीरांगनाओं - ममता, जया, सोनिया और माया का सबसे महत्वपूर्ण योगदान था. एक स्वप्नदर्शी कवि स्वेच्छा से कुत्सित राजनीति के दलदल में फँस जाए तो उस पर उसी की कविता को ठोक बजा कर पीने व्यंग्य के रूप में इस्तेमाल करने में क्या हर्ज़ है?

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  5. आदरणीय गोपेश जी -- आपने कविता की रस्सी को सपनों से छुडाकर यथार्थ के साथ बांध दिया | बहुत ही कोरी - करारी या कहू खरी खरी लिख दी आपने | अटल जी का व्याकुल मन जरुर ऐसे ही चिंतन से व्यथित तो जरुर हुआ होगा भले वो इसे कहीं लिख ना पाए हो | राजनीती में चुनौतियां कहाँ कम होती हैं | एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता है | इसी क्रम में कार्यकाल मुक जाता है |पता नहीं मौलिक रचना से छेड़- छाड़ करना सही है या नहीं पर लोग बिना बताये भी ऐसे काम करते रहते हैं | सादर --

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    1. रेनू जी, आपकी टिप्पणी का उत्तर मैंने आपके द्वारा हटाई गयी टिप्पणी पर दे दिया है.

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    2. जी गोपेश जी - आपके ब्लॉग पर आकर मन को बहुत अच्छा लगता है | सबके सवाल और आपके मजेदार जवाब आपकी खुशमिजाजी के उदाहरण हैं | आपकी बात में एक बात और जोड़ना चाहती हूँ -- कितने ही फ़िल्मी गीतों पर सगुण भक्तों ने बस थोड़ी बहुत फेरबदल के साथ '' कथित'' मौलिक भजन बना दिए और इस चोरी को कभी स्वीकार नहीं किया पर आपमें इतनी ईमानदारी तो शेष है कि सरेआम मान तो लिया कि आप सौ से ऊपर रचनाओं की अपने अंदाज में दुर्गति कर चुके है | वैसे उपरोक्त रचना को दुर्गति नहीं कह सकते | और स्वप्नदर्शी कवि लोग भी कहाँ सत्तामोह से बच पाए हैं | चाहे- अनचाहे अक्सर इस पंक में गोता लगाने से बाज कहाँ आते हैं !!!!!

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    3. वाह रेनू जी! क्या भिगो-भिगो कर मारा है ! महान रचनाओं में फेर-बदल कर मैं उनको मुख्यतः राजनीतिक व्यंग्य के लिए इस्तेमाल करता हूँ. फ़िराक साहब का एक शेर है -
      'गरज़ कि काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त,
      वो तेरी याद में हों, या तुझे भुलाने में.'
      इस शेर की दुर्गति करके मैंने चाटुकारों पर व्यंग्य कसा है -
      'गरज़ कि काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त,
      वो तलुए चाट के गुज़रे, कि दुम हिलाने में.'
      फूहड़ हास्य मुझे अच्छा नहीं लगता. पर यह बात सही है कि अगर मैं महान रचनाओं को अपने ढंग से व्यंग्य के लिए प्रयुक्त करता हूँ तो उनके आधार पर मैं महा-कवि नहीं हो सकता. अटल जी अपनी छवि के विरुद्ध यदि सत्ता-मोह में समझौते कर रहे थे तो उन पर छींटाकशी करने में मुझे तो कोई बुराई नज़र नहीं आई और इसके लिए उन्हीं की रचना का यदि उपयोग किया गया तो इसमें हर्ज़ ही क्या था?

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    4. आदरणीय गोपेश जी -- हमने तो आपको बाइज्जत बरी कर दिया -- दूसरों का उदाहरण आप पर लागू नहीं होता | आपका लक्ष्य सही हो तो कोई हर्ज नहीं है | सबसे बड़ी है आपकी ये मासूम सी स्वीकारोक्ति | सब आपके आगे घुटने तक देते है |आपसे संवाद हमेशा रोचक रहता है | सादर --

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    5. रेनू जी, कुछ सर्वथा मौलिक और अपनी प्रिय कविताओं से आपका परिचय कराऊंगा किन्तु शर्त यही है कि उन पर आपकी राय बेबाक होनी चाहिए. लेकिन उनका विषय प्रायः राजनीतिक कुचक्रों से ही जुड़ा मिलेगा.

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    6. जी गोपेश जी -- मैं हास - परिहास की बात अलग है -- जानती हूँ आप बेहद मंझे हुए मौलिक रचनाकार हैं| जिसके लिए आपका ब्लॉग ही काफी है| और इस प्रकार का कौशल दिखाने के लिए भी बुद्धि दरकार है जिसका होने का प्रमाण आपने दे ही दिया है | इन दिनों मेरे पास समय का नितांत अभाव रहता है, सो लिखकर नहीं बस पढ़कर काम चला लेती हूँ | प्राय जब से आपके ब्लॉग से परिचय हुआ है मैं आपकी हरेक रचना पढ़ ही लेती हूँ ,पर आपको इसका प्रमाण मेरे लिखने से ही मिलता सो कई बार वो हो ना पाया |पर आगे कोशिश रहेगी वो भी बेबाकी से | आप जरुर लिखिए - आपकी नई रचनाओं का इन्तजार रहेगा | मेरी हार्दिक शुभकामनायें |

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  6. सुधर जाओ। यात्रा निकलने तक तो रुक जाओ। हा हा । आप भी ना।

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    1. उम्र सारी तो कटी, इश्क-ए-बुतां में मोमिन ,
      आख़री वक़्त में क्या खाक़ मुसलमां होंगे.'
      अपनी अतिम यात्रा निकलने तक भी हम न सुधरेंगे सुशील बाबू !

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  7. नमस्ते,
    आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
    ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
    गुरुवार 23 अगस्त 2018 को प्रकाशनार्थ 1133 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।

    प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
    चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
    सधन्यवाद।

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    1. धन्यवाद रवींद्र सिंह यादव जी. 'पांच लिंकों का आनंद' से जुड़ना मेरे लिए सदैव गर्व का विषय होता है. कल के अंक की प्रतीक्षा रहेगी.

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  8. खरी कडवी और करारी बात कह दी ...
    कवी हृदय का मन आशा वादी होता है अटल जी भी यही थे ...

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    1. हम सब अटल जी को प्यार भी करते थे पर कभी-कभी उनकी समझौतावादी नीतियों के कारण उन से ख़फ़ा भी हो जाते थे. लेकिन उनकी अच्छाइयों और कमज़ोरियों का कुल योग हमेशा धनात्मक ही होता था.

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  9. धन्यवाद अमित निश्छल जी. राजनीति के कुचक्र मुझे कुछ न कुछ नया कहने के लिए प्रेरित करते रहते हैं. अपना आक्रोश मैं शब्दों में व्यक्त कर संतुष्ट होने का नाटक कर लेता हूँ. आप के द्वारा व्यक्त प्रोत्साहन के शब्द मेरे लिए बहुत महत्त्व रखते हैं. आपको धन्यवाद और आप मुझसे उम्र में बहुत छोटे हैं इसलिए बहुत-बहुत आशीर्वाद भी !

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