मॉडल जेल -
लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में मेरे सेवा-काल का दूसरा साल था. इमरजेंसी के अत्याचार अपने शबाब पर थे. हर जगह एक अनजाना सा खौफ़ क़ायम था. 'मीसा’ (‘मेंटेनेंस ऑफ़ इंडियन सिक्यूरिटी एक्ट’) के नाम पर पुलिस किसी को भी, कभी भी, पकड़ कर ले जा सकती थी. ‘मीसा’ के अंतर्गत पकड़े जाने के लिए यह भी ज़रूरी नहीं था कि किसी ने देश के खिलाफ़ अथवा सरकार के खिलाफ़ कोई काम किया हो. इंदिरा गाँधी के दरबार में या संजय गाँधी के दरबार में रसूख रखने वाला कोई भी बन्दा अपने किसी भी दुश्मन के खिलाफ़ ‘मीसा’ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करवा कर उसे अनंत काल तक के लिए जेल में डलवा सकता था.
सत्र 1975-76 की परीक्षा के दिन थे. हमारे प्रातः कालीन सत्र के सीनियर सुपरिन्टेन्डेन्ट एग्ज़ाम्स महोदय निहायत खड़ूस किस्म के प्राणी थे. हम नौजवानों के तो वो जन्म-जात शत्रु थे. हमारी छोटी से छोटी गलती या भोली से भोली नादानी पर वो हमको काला पानी की सज़ा दिलवाने के लिए उत्सुक रहते थे. हम नौजवान उनकी पीठ-पीछे उन्हें खड़ूस सर कहा करते थे. एक सुबह अपनी इन्विजिलेशन ड्यूटी पर पहुँचने में मैं 10 मिनट लेट हो गया. मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ते हुए मैंने खड़ूस सर को नमस्कार किया. खड़ूस सर ने मुझे घूरा और फिर मुझसे पूछा –
‘जैसवाल, जेल जाओगे?’
मैंने व्यंग्य भरे लहजे में उन से कहा –
‘सर, ड्यूटी पर 10 मिनट लेट आने पर मुझे जेल भिजवाने की मेहरबानी क्यों? आप मुझे सीधे फांसी पर ही चढ़वा दीजिए.’
मेरी बात सुनकर खड़ूस सर ने रावण-स्टाइल अट्टहास किया फिर मुझ से बड़े प्यार से बोले –
‘तुम्हें फांसी पर चढ़वाने का फ़िलहाल हमारा कोई इरादा नहीं है. हम तो तुम्हें लखनऊ की मॉडल जेल में एग्ज़ाम कंडक्ट कराने की ज़िम्मेदारी सौंप रहे हैं.’
मैंने प्रोटेस्ट करते हुए कहा –
‘सर, मैं तो एग्ज़ाम्स के दौरान यूनिवर्सिटी में कभी रूम-इंचार्ज तक नहीं रहा हूँ. मॉडल जेल में मुझ जैसा नौसिखिया इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी कैसे निभा पाएगा?’
खड़ूस सर ने फ़रमाया –
‘अरे बर्खुरदार ! चिंता करने की कोई बात नहीं है. तुमको तो ‘मीसा’ में बंद एक लड़के का सिर्फ़ एग्ज़ाम कंडक्ट कराना है. वहां का डिप्टी जेलर मेरा स्टूडेंट रहा है. वो बड़ा स्मार्ट है, कैसे और क्या करना है, वो तुमको सब समझा देगा.’
उत्तर-पुस्तिका, प्रश्न-पत्र, इम्तहान से सम्बंधित अन्य ज़रूरी कागज़ात और दो बंदूकधारी कांस्टेबल अपने साथ लेकर, जीपा-रूढ़ जैसवाल साहब मॉडल जेल पहुंचे. डर, उत्सुकता और रोमांच – ये तीनों भाव, उनके दिलो-दिमाग में एक साथ तैर रहे थे.
‘जेल’ शब्द को सुनकर मुझमें कोई खौफ़ पैदा नहीं होना चाहिए था. पिताजी मजिस्ट्रेट थे और वो ख़ुद जेल-इंस्पेक्शन के लिए जाया करते थे. छुट्टी के दिनों में पुलिस द्वारा मुल्ज़िमों को हमारे घर लाया जाता था क्योंकि मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना उन्हें जेल में डाला ही नहीं जा सकता था. लेकिन मैंने ख़ुद कभी अन्दर जाकर जेल नहीं देखी थी और जेल के विषय में मेरी जानकारी का आधार मुख्य रूप से हमारी फ़िल्में ही थीं.
मॉडल जेल में क़ैदियों से मिलने से ज़्यादा उत्सुकता मुझे खड़ूस सर के पूर्व-छात्र इस जेलर से मिलने की थी. व्ही. शांताराम ने फ़िल्म ‘दो आँखें, बारह हाथ’ में गाँधी जी के अनुयायी एक आदर्शवादी जेलर की कहानी दिखाई है और उसमें मॉडल जेल यानी कि मुक्त-कारागार का विचार बड़ी खूबसूरती के साथ विकसित किया है. इस दयावान जेलर के साथ मिलकर खूंखार क़ैदी –
‘ऐ मालिक तेरे बन्दे हम !
ऐसे हों हमारे करम !
नेकी पर चलें और बदी से टलें,
ताकि हँसते हुए निकले दम.’
भजन, कितनी ख़ूबसूरती से गाते हैं !
वैसे मैं मनोज कुमार की फ़िल्म ‘शहीद’ के क्रूर जेलर और ‘बंदिनी’, ‘आशीर्वाद’ और ‘आराधना’ के रहमदिल जेलरों से भी परिचित हो चुका था.
लेकिन मॉडल जेल का हमारा नौजवान डिप्टी जेलर इन फ़िल्मी जेलरों से बिल्कुल अलग टाइप का था –
स्मार्ट, मिलनसार, जोश से भरा हुआ, गालियों का तड़का लगाकर, आँख मारते हुए अश्लील चुटकुले सुनाने वाला
औपचारिक परिचय होने के दस मिनट बाद ही वह मेरा दोस्त बन गया.
अब अपने एकमात्र परीक्षार्थी से मुझको मिलना था. डिप्टी जेलर ने बताया कि ‘मीसा’ के अंतर्गत क़ैद किया गया हमारा परीक्षार्थी एक नामी कांग्रेस-विरोधी गुंडा है. परीक्षार्थी के लिए – ‘नामी गुंडा’ शब्द सुनते ही मैं उसका इशारा समझ गया कि मुझे इन्विजिलेशन करते समय इस नामी गुंडे के साथ कितनी सख्ती बरतनी है.
बेतक़ल्लुफ़ परीक्षार्थी ने उत्तर-पुस्तिका और फिर प्रश्न-पत्र प्राप्त कर मेरे ही सामने दो मोटी-मोटी किताबें कंसल्ट करते हुए उत्तर लिखने प्रारंभ कर दिए. मैं हक्का-बक्का होकर कभी परीक्षार्थी को तो कभी अपने नए दोस्त बने जेलर को देखने लगा.
इस नज़ारे को देखकर जेलर मुस्कुरा कर मुझसे बोला –
‘गुरु जी, इन्हें हम शांति से अपना काम करने देते हैं. तीन घंटे बाद इन से कॉपी लेकर जमा कर लेंगे. आइए तब तक मैं आपको मॉडल जेल दिखाता हूँ.’
मैंने प्रतिवाद करते हुए कहा –
‘मुझे तो तीनों घंटे इन्हीं के साथ इसी कमरे में रहना होगा. मैं इन्हें छोड़ कर कैसे बाहर जा सकता हूँ?’
जेलर महोदय ने मुझे आगाह किया –
‘हमारे इन दोस्त को इम्तहान देते हुए इनविजिलेटर का सर पर खड़े रहना बिल्कुल भी पसंद नहीं है. काहे को बिना बात आप इन से पंगा लेंगे? क्या पता, इमरजेंसी ख़त्म होते ही अगले चुनाव हों और उन में जीतकर ये नई सरकार में मंत्री हो जाएं ! बाहर चलिए. हम आपको पहले बढ़िया नाश्ता कराएँगे फिर जेल घुमाएँगे और क़ैदियों से मिलवाएँगे.’
जेलर मुझे अपने कमरे में ले गया. कुछ देर बाद एक क़ैदी एक बड़ी सी ट्रे में नाश्ते का सामान लेकर आ गया - आलू के पराठे, चटनी, अचार, ब्रेड, मक्खन, जैम, जलेबी और एक बड़े टी पॉट में चाय !
मैंने हँसते हुए डिप्टी जेलर से कहा – ‘दोस्त ! अगर जेल में ऐसी खातिर होती है तो फिर यहाँ के लिए मेरी एक सीट आप आज ही बुक कर दीजिए.’
जेलर ने जवाब दिया –
‘आप जैसे दोस्तों के लिए तो जान हाज़िर है. वैसे यहाँ आम क़ैदी की खातिर तो लाठी-डंडों से ही की जाती है.’
हमको नाश्ता सर्व करने वाला किस्सागो टाइप क़ैदी फ़िल्म ‘आशीर्वाद’ में उम्र क़ैद की सज़ा भुगत रहे जोगी ठाकुर (अशोक कुमार) जैसा पढ़ा-लिखा था. अपने किस्सों के बीच श्री रामचरित मानस की चौपाइयाँ सुनाना उसकी आदत में शुमार था. बातें करते हुए वह बड़े प्यार से मेरे लिए स्लाइस पर मक्खन-जैम भी लगा रहा था. मेरे पूछने पर उसने बताया कि दो क़त्ल करने के अपराध में उसे आजन्म कारावास हुआ था. जेल-प्रवास के दौरान अपने अच्छे चाल-चलन की वजह से उसे मॉडल जेल में स्थानांतरित किया गया था.
मैं मन ही मन काँप-काँप कर सोच रहा था –
‘हे भगवान ! जिस शख्स ने गंडासे से अपने दो दुश्मनों की गर्दनें उनके धड़ से अलग कर दी थीं, आज वह मुझे प्यार से ब्रेड-मक्खन खिला रहा है ! मेरे मुंह से कुछ उल्टा-सीधा निकल गया तो इस गब्बर के कोप से मुझे कौन बचाएगा?’
लेकिन ट्रे में रक्खा हर सामान बहुत लज़ीज़ था और सबसे बड़ी बात यह थी कि वह मुफ़्त का था. इसलिए जान का खतरा होते हुए भी उसका आनंद तो उठाना ही था.
हमारी सेवा कर के जब वह रामभक्त किस्सागो हमसे विदा हो लिया तो मैंने पराठे-जलेबी डकार कर, चाय का घूँट लेते हुए जेलर से पूछा –
‘क्या मॉडल जेल में हमारे इन किस्सागो मित्र की तरह के ख़तरनाक क़ैदी भी रक्खे जाते हैं?’
जेलर ने जवाब दिया –
यहाँ कुछ पोलिटिकल प्रिज़नर्स भी हैं लेकिन ज़्यादातर दफ़ा 307 और दफ़ा 302 के उम्र-क़ैद वाले मुजरिम ही हैं.’
मैंने अपने माथे का पसीना पोंछते हुए पूछा –
‘इन खतरनाक क़ैदियों को आप जेल के अन्दर खुला कैसे छोड़ देते हैं?’
जेलर ने मेरे सवाल का जवाब दिया –
‘हम इन्हें सिर्फ़ जेल में खुला नहीं छोड़ते. ये हमको बताकर जेल से बाहर भी चले जाते हैं और फिर ख़ुद ही लौट भी आते हैं.’
वाक़ई यह एक अजीब बात थी कि इस मॉडल जेल की चहारदीवारी के अंदर क़ैदियों को स्वतंत्रतापूर्वक घूमन-फिरने की सुविधा के अतिरिक्त भी बहुत सी सुविधाएँ प्राप्त थीं. इनमें से बहुत सी तो ऐसी थीं जो कि हम जैसे आम गुरुजन को खुले आकाश के तले भी नसीब नहीं थीं.
मॉडल जेल की लाइब्रेरी शानदार थी. वहां के मनोरंजन कक्ष में टीवी था जब कि लखनऊ के आम घरों में अभी टीवी नहीं पहुंचा था. वॉलीबॉल, फुटबॉल, बैडमिंटन आदि अनेक इंडोर-आउटडोर खेलों की वहां सुविधा थी. क़ैदियों की अपनी नाट्यशाला थी. वहां का किचिन भी हमारे छात्रावास के मेस से कहीं अधिक साफ़-सुथरा था और वहां का भोजन भी हमको मिलने वाले भोजन से बहुत बेहतर था.
तीन घंटे के बजाय हमारे ‘मीसा’ बंदी परीक्षार्थी ने साढ़े तीन घंटों में अपना काम पूरा किया. यूनिवर्सिटी से सुबह सात बजे का निकला मैं, बारह बजे के बाद वहां वापस पहुंच पाया. लेकिन इस पांच घंटे से भी अधिक लम्बी ड्यूटी से मुझे कोई शिकायत नहीं थी. शिकायत तो बाद में मुझे अपने खड़ूस सर से हुई थी जिन्होंने मुझे फिर कभी इन्विजिलेशन ड्यूटी के लिए मॉडल जेल नहीं भेजा.
मेरी जेल-यात्रा बड़ी सुखद रही. मेरे नाम में भगवान श्री कृष्ण के दो नाम – ‘गोपेश’ और ‘मोहन’ आते हैं. जब श्री कृष्ण का जन्म जेल में हो सकता है तो उनके नामाराशी इस भक्त को जेल-यात्रा में क्या कष्ट हो सकता है?
मैं सोच रहा था कि इंदिरा गाँधी या संजय गाँधी की शान के खिलाफ़ ऐसा क्या ड्रामा किया जाए कि ‘मीसा’ के अंतर्गत मुझे भी मॉडल जेल में इन तमाम सुविधाओं का उपभोग करने के लिए बंद कर दिया जाए. इमरजेंसी की चांडाल चौकड़ी के खिलाफ़ जन-आक्रोश तो जल्द ही ज्वालामुखी की तरह फटने वाला है. और इमरजेंसी के विरोधियों के सितारे जल्द ही बुलंद होने वाले हैं. सरकार को कभी न कभी तो इमरजेंसी हटानी ही पड़ेगी और फिर चुनाव तो होने ही होने हैं. ‘मीसा-बंदी’ का तमगा लगाकर अगर मैं चुनाव में खड़ा हो गया और फिर एम. एल. ए. या एम. पी. का चुनाव जीत गया तो इंदिरा-विरोधी सरकार के गठन की स्थिति में मैं उत्तर प्रदेश सरकार में या केंद्र सरकार में मंत्री का ओहदा भी पा सकता हूँ.लेकिन इन ख़याली घोड़े दौड़ाते हुए मेरे ज़हन में एक खौफ़ भी चौकड़ी भर रहा था-
अगर ‘मीसा’ के तहत बंद कर के मुझे कहीं इस सुविधा-युक्त मॉडल जेल न भेज कर किसी डरावनी अंधेरी गुफ़ा जैसी खौफ़नाक जेल में भेज दिया गया और यहाँ के दोस्त जेलर की तरह वहां का जेलर मुझ पर मेहरबान नहीं हुआ तो मेरा क्या हशर होगा, और वहां रुचिकर व्यंजनों के स्थान पर अगर मुझे सिर्फ़ लाठी-डंडे परोसे गए तो???? लाख कोशिशों के बावजूद मैं इन सबकी कल्पना करने की हिम्मत ख़ुद में जुटा नहीं पा रहा था.
लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में मेरे सेवा-काल का दूसरा साल था. इमरजेंसी के अत्याचार अपने शबाब पर थे. हर जगह एक अनजाना सा खौफ़ क़ायम था. 'मीसा’ (‘मेंटेनेंस ऑफ़ इंडियन सिक्यूरिटी एक्ट’) के नाम पर पुलिस किसी को भी, कभी भी, पकड़ कर ले जा सकती थी. ‘मीसा’ के अंतर्गत पकड़े जाने के लिए यह भी ज़रूरी नहीं था कि किसी ने देश के खिलाफ़ अथवा सरकार के खिलाफ़ कोई काम किया हो. इंदिरा गाँधी के दरबार में या संजय गाँधी के दरबार में रसूख रखने वाला कोई भी बन्दा अपने किसी भी दुश्मन के खिलाफ़ ‘मीसा’ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करवा कर उसे अनंत काल तक के लिए जेल में डलवा सकता था.
सत्र 1975-76 की परीक्षा के दिन थे. हमारे प्रातः कालीन सत्र के सीनियर सुपरिन्टेन्डेन्ट एग्ज़ाम्स महोदय निहायत खड़ूस किस्म के प्राणी थे. हम नौजवानों के तो वो जन्म-जात शत्रु थे. हमारी छोटी से छोटी गलती या भोली से भोली नादानी पर वो हमको काला पानी की सज़ा दिलवाने के लिए उत्सुक रहते थे. हम नौजवान उनकी पीठ-पीछे उन्हें खड़ूस सर कहा करते थे. एक सुबह अपनी इन्विजिलेशन ड्यूटी पर पहुँचने में मैं 10 मिनट लेट हो गया. मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ते हुए मैंने खड़ूस सर को नमस्कार किया. खड़ूस सर ने मुझे घूरा और फिर मुझसे पूछा –
‘जैसवाल, जेल जाओगे?’
मैंने व्यंग्य भरे लहजे में उन से कहा –
‘सर, ड्यूटी पर 10 मिनट लेट आने पर मुझे जेल भिजवाने की मेहरबानी क्यों? आप मुझे सीधे फांसी पर ही चढ़वा दीजिए.’
मेरी बात सुनकर खड़ूस सर ने रावण-स्टाइल अट्टहास किया फिर मुझ से बड़े प्यार से बोले –
‘तुम्हें फांसी पर चढ़वाने का फ़िलहाल हमारा कोई इरादा नहीं है. हम तो तुम्हें लखनऊ की मॉडल जेल में एग्ज़ाम कंडक्ट कराने की ज़िम्मेदारी सौंप रहे हैं.’
मैंने प्रोटेस्ट करते हुए कहा –
‘सर, मैं तो एग्ज़ाम्स के दौरान यूनिवर्सिटी में कभी रूम-इंचार्ज तक नहीं रहा हूँ. मॉडल जेल में मुझ जैसा नौसिखिया इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी कैसे निभा पाएगा?’
खड़ूस सर ने फ़रमाया –
‘अरे बर्खुरदार ! चिंता करने की कोई बात नहीं है. तुमको तो ‘मीसा’ में बंद एक लड़के का सिर्फ़ एग्ज़ाम कंडक्ट कराना है. वहां का डिप्टी जेलर मेरा स्टूडेंट रहा है. वो बड़ा स्मार्ट है, कैसे और क्या करना है, वो तुमको सब समझा देगा.’
उत्तर-पुस्तिका, प्रश्न-पत्र, इम्तहान से सम्बंधित अन्य ज़रूरी कागज़ात और दो बंदूकधारी कांस्टेबल अपने साथ लेकर, जीपा-रूढ़ जैसवाल साहब मॉडल जेल पहुंचे. डर, उत्सुकता और रोमांच – ये तीनों भाव, उनके दिलो-दिमाग में एक साथ तैर रहे थे.
‘जेल’ शब्द को सुनकर मुझमें कोई खौफ़ पैदा नहीं होना चाहिए था. पिताजी मजिस्ट्रेट थे और वो ख़ुद जेल-इंस्पेक्शन के लिए जाया करते थे. छुट्टी के दिनों में पुलिस द्वारा मुल्ज़िमों को हमारे घर लाया जाता था क्योंकि मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना उन्हें जेल में डाला ही नहीं जा सकता था. लेकिन मैंने ख़ुद कभी अन्दर जाकर जेल नहीं देखी थी और जेल के विषय में मेरी जानकारी का आधार मुख्य रूप से हमारी फ़िल्में ही थीं.
मॉडल जेल में क़ैदियों से मिलने से ज़्यादा उत्सुकता मुझे खड़ूस सर के पूर्व-छात्र इस जेलर से मिलने की थी. व्ही. शांताराम ने फ़िल्म ‘दो आँखें, बारह हाथ’ में गाँधी जी के अनुयायी एक आदर्शवादी जेलर की कहानी दिखाई है और उसमें मॉडल जेल यानी कि मुक्त-कारागार का विचार बड़ी खूबसूरती के साथ विकसित किया है. इस दयावान जेलर के साथ मिलकर खूंखार क़ैदी –
‘ऐ मालिक तेरे बन्दे हम !
ऐसे हों हमारे करम !
नेकी पर चलें और बदी से टलें,
ताकि हँसते हुए निकले दम.’
भजन, कितनी ख़ूबसूरती से गाते हैं !
वैसे मैं मनोज कुमार की फ़िल्म ‘शहीद’ के क्रूर जेलर और ‘बंदिनी’, ‘आशीर्वाद’ और ‘आराधना’ के रहमदिल जेलरों से भी परिचित हो चुका था.
लेकिन मॉडल जेल का हमारा नौजवान डिप्टी जेलर इन फ़िल्मी जेलरों से बिल्कुल अलग टाइप का था –
स्मार्ट, मिलनसार, जोश से भरा हुआ, गालियों का तड़का लगाकर, आँख मारते हुए अश्लील चुटकुले सुनाने वाला
औपचारिक परिचय होने के दस मिनट बाद ही वह मेरा दोस्त बन गया.
अब अपने एकमात्र परीक्षार्थी से मुझको मिलना था. डिप्टी जेलर ने बताया कि ‘मीसा’ के अंतर्गत क़ैद किया गया हमारा परीक्षार्थी एक नामी कांग्रेस-विरोधी गुंडा है. परीक्षार्थी के लिए – ‘नामी गुंडा’ शब्द सुनते ही मैं उसका इशारा समझ गया कि मुझे इन्विजिलेशन करते समय इस नामी गुंडे के साथ कितनी सख्ती बरतनी है.
बेतक़ल्लुफ़ परीक्षार्थी ने उत्तर-पुस्तिका और फिर प्रश्न-पत्र प्राप्त कर मेरे ही सामने दो मोटी-मोटी किताबें कंसल्ट करते हुए उत्तर लिखने प्रारंभ कर दिए. मैं हक्का-बक्का होकर कभी परीक्षार्थी को तो कभी अपने नए दोस्त बने जेलर को देखने लगा.
इस नज़ारे को देखकर जेलर मुस्कुरा कर मुझसे बोला –
‘गुरु जी, इन्हें हम शांति से अपना काम करने देते हैं. तीन घंटे बाद इन से कॉपी लेकर जमा कर लेंगे. आइए तब तक मैं आपको मॉडल जेल दिखाता हूँ.’
मैंने प्रतिवाद करते हुए कहा –
‘मुझे तो तीनों घंटे इन्हीं के साथ इसी कमरे में रहना होगा. मैं इन्हें छोड़ कर कैसे बाहर जा सकता हूँ?’
जेलर महोदय ने मुझे आगाह किया –
‘हमारे इन दोस्त को इम्तहान देते हुए इनविजिलेटर का सर पर खड़े रहना बिल्कुल भी पसंद नहीं है. काहे को बिना बात आप इन से पंगा लेंगे? क्या पता, इमरजेंसी ख़त्म होते ही अगले चुनाव हों और उन में जीतकर ये नई सरकार में मंत्री हो जाएं ! बाहर चलिए. हम आपको पहले बढ़िया नाश्ता कराएँगे फिर जेल घुमाएँगे और क़ैदियों से मिलवाएँगे.’
जेलर मुझे अपने कमरे में ले गया. कुछ देर बाद एक क़ैदी एक बड़ी सी ट्रे में नाश्ते का सामान लेकर आ गया - आलू के पराठे, चटनी, अचार, ब्रेड, मक्खन, जैम, जलेबी और एक बड़े टी पॉट में चाय !
मैंने हँसते हुए डिप्टी जेलर से कहा – ‘दोस्त ! अगर जेल में ऐसी खातिर होती है तो फिर यहाँ के लिए मेरी एक सीट आप आज ही बुक कर दीजिए.’
जेलर ने जवाब दिया –
‘आप जैसे दोस्तों के लिए तो जान हाज़िर है. वैसे यहाँ आम क़ैदी की खातिर तो लाठी-डंडों से ही की जाती है.’
हमको नाश्ता सर्व करने वाला किस्सागो टाइप क़ैदी फ़िल्म ‘आशीर्वाद’ में उम्र क़ैद की सज़ा भुगत रहे जोगी ठाकुर (अशोक कुमार) जैसा पढ़ा-लिखा था. अपने किस्सों के बीच श्री रामचरित मानस की चौपाइयाँ सुनाना उसकी आदत में शुमार था. बातें करते हुए वह बड़े प्यार से मेरे लिए स्लाइस पर मक्खन-जैम भी लगा रहा था. मेरे पूछने पर उसने बताया कि दो क़त्ल करने के अपराध में उसे आजन्म कारावास हुआ था. जेल-प्रवास के दौरान अपने अच्छे चाल-चलन की वजह से उसे मॉडल जेल में स्थानांतरित किया गया था.
मैं मन ही मन काँप-काँप कर सोच रहा था –
‘हे भगवान ! जिस शख्स ने गंडासे से अपने दो दुश्मनों की गर्दनें उनके धड़ से अलग कर दी थीं, आज वह मुझे प्यार से ब्रेड-मक्खन खिला रहा है ! मेरे मुंह से कुछ उल्टा-सीधा निकल गया तो इस गब्बर के कोप से मुझे कौन बचाएगा?’
लेकिन ट्रे में रक्खा हर सामान बहुत लज़ीज़ था और सबसे बड़ी बात यह थी कि वह मुफ़्त का था. इसलिए जान का खतरा होते हुए भी उसका आनंद तो उठाना ही था.
हमारी सेवा कर के जब वह रामभक्त किस्सागो हमसे विदा हो लिया तो मैंने पराठे-जलेबी डकार कर, चाय का घूँट लेते हुए जेलर से पूछा –
‘क्या मॉडल जेल में हमारे इन किस्सागो मित्र की तरह के ख़तरनाक क़ैदी भी रक्खे जाते हैं?’
जेलर ने जवाब दिया –
यहाँ कुछ पोलिटिकल प्रिज़नर्स भी हैं लेकिन ज़्यादातर दफ़ा 307 और दफ़ा 302 के उम्र-क़ैद वाले मुजरिम ही हैं.’
मैंने अपने माथे का पसीना पोंछते हुए पूछा –
‘इन खतरनाक क़ैदियों को आप जेल के अन्दर खुला कैसे छोड़ देते हैं?’
जेलर ने मेरे सवाल का जवाब दिया –
‘हम इन्हें सिर्फ़ जेल में खुला नहीं छोड़ते. ये हमको बताकर जेल से बाहर भी चले जाते हैं और फिर ख़ुद ही लौट भी आते हैं.’
वाक़ई यह एक अजीब बात थी कि इस मॉडल जेल की चहारदीवारी के अंदर क़ैदियों को स्वतंत्रतापूर्वक घूमन-फिरने की सुविधा के अतिरिक्त भी बहुत सी सुविधाएँ प्राप्त थीं. इनमें से बहुत सी तो ऐसी थीं जो कि हम जैसे आम गुरुजन को खुले आकाश के तले भी नसीब नहीं थीं.
मॉडल जेल की लाइब्रेरी शानदार थी. वहां के मनोरंजन कक्ष में टीवी था जब कि लखनऊ के आम घरों में अभी टीवी नहीं पहुंचा था. वॉलीबॉल, फुटबॉल, बैडमिंटन आदि अनेक इंडोर-आउटडोर खेलों की वहां सुविधा थी. क़ैदियों की अपनी नाट्यशाला थी. वहां का किचिन भी हमारे छात्रावास के मेस से कहीं अधिक साफ़-सुथरा था और वहां का भोजन भी हमको मिलने वाले भोजन से बहुत बेहतर था.
तीन घंटे के बजाय हमारे ‘मीसा’ बंदी परीक्षार्थी ने साढ़े तीन घंटों में अपना काम पूरा किया. यूनिवर्सिटी से सुबह सात बजे का निकला मैं, बारह बजे के बाद वहां वापस पहुंच पाया. लेकिन इस पांच घंटे से भी अधिक लम्बी ड्यूटी से मुझे कोई शिकायत नहीं थी. शिकायत तो बाद में मुझे अपने खड़ूस सर से हुई थी जिन्होंने मुझे फिर कभी इन्विजिलेशन ड्यूटी के लिए मॉडल जेल नहीं भेजा.
मेरी जेल-यात्रा बड़ी सुखद रही. मेरे नाम में भगवान श्री कृष्ण के दो नाम – ‘गोपेश’ और ‘मोहन’ आते हैं. जब श्री कृष्ण का जन्म जेल में हो सकता है तो उनके नामाराशी इस भक्त को जेल-यात्रा में क्या कष्ट हो सकता है?
मैं सोच रहा था कि इंदिरा गाँधी या संजय गाँधी की शान के खिलाफ़ ऐसा क्या ड्रामा किया जाए कि ‘मीसा’ के अंतर्गत मुझे भी मॉडल जेल में इन तमाम सुविधाओं का उपभोग करने के लिए बंद कर दिया जाए. इमरजेंसी की चांडाल चौकड़ी के खिलाफ़ जन-आक्रोश तो जल्द ही ज्वालामुखी की तरह फटने वाला है. और इमरजेंसी के विरोधियों के सितारे जल्द ही बुलंद होने वाले हैं. सरकार को कभी न कभी तो इमरजेंसी हटानी ही पड़ेगी और फिर चुनाव तो होने ही होने हैं. ‘मीसा-बंदी’ का तमगा लगाकर अगर मैं चुनाव में खड़ा हो गया और फिर एम. एल. ए. या एम. पी. का चुनाव जीत गया तो इंदिरा-विरोधी सरकार के गठन की स्थिति में मैं उत्तर प्रदेश सरकार में या केंद्र सरकार में मंत्री का ओहदा भी पा सकता हूँ.लेकिन इन ख़याली घोड़े दौड़ाते हुए मेरे ज़हन में एक खौफ़ भी चौकड़ी भर रहा था-
अगर ‘मीसा’ के तहत बंद कर के मुझे कहीं इस सुविधा-युक्त मॉडल जेल न भेज कर किसी डरावनी अंधेरी गुफ़ा जैसी खौफ़नाक जेल में भेज दिया गया और यहाँ के दोस्त जेलर की तरह वहां का जेलर मुझ पर मेहरबान नहीं हुआ तो मेरा क्या हशर होगा, और वहां रुचिकर व्यंजनों के स्थान पर अगर मुझे सिर्फ़ लाठी-डंडे परोसे गए तो???? लाख कोशिशों के बावजूद मैं इन सबकी कल्पना करने की हिम्मत ख़ुद में जुटा नहीं पा रहा था.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-07-2019) को "मेघ मल्हार" (चर्चा अंक- 3385) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'चर्चा अंक - 3385 में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद शास्त्री जी.
हटाएंये इमरजेंसी समझ नहीं आई ...
जवाब देंहटाएंपर ये होता है जब रिश्ता पुलिस और कैदियों का होता है ...
दिगंबर नासवा जी, इमरजेंसी तो किसी के समझ में नहीं आई थी. इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ, मुसोलिनी के इटली और हिटलर के जर्मनी में भी सरकार की खिलाफत करने वालों के साथ यही हुआ था.
हटाएंवाह अब सही है :)
जवाब देंहटाएंमित्र ! हम तो अब भी इस मामले में अनाड़ी हैं. हमारी ऐसी गलतियों को दुबईवासिनी हमारी बेटी गीतिका ठीक कर देती है.
हटाएंकरना भी चाहिये। आप का लिखा सब पढ़ें और आराम से पढ़े हम यही तो चाह रहे थे। आभार गीतिका।
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