एक और मीसा-बंदी
25, जून 1975 को इमरजेंसी की घोषणा हुई. आए
दिन सरकार का विरोध करने वालों को 'मीसा’ (‘मेंटेनेंस ऑफ़ इंडियन सिक्यूरिटी एक्ट’) के तहत गिरफ़्तार कर के जेलों में ठूंसा
जा रहा था. ‘मीसा’ का यह तानाशाही फ़रमान निहायत ही खतरनाक था. इसके अंतर्गत
संविधान के अंतर्गत मिले नागरिक अधिकारों की धज्जियाँ उड़ा दी गयी थीं. ‘मीसा’ के नाम पर बिना किसी वारंट के, किसी को भी, कभी भी, गिरफ्तार किया जा सकता था और गिरफ्तार व्यक्ति को अपनी ज़मानत
कराने का अवसर भी नहीं दिया जाता था.
इंदु बुआ ने खिसकती कुर्सी पर अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए न्याय-नैतिकता
को ताक पर रख कर इमरजेंसी के नाम पर तानाशाही की एक ऐसी अनोखी मिसाल क़ायम की थी
जिसने अंग्रेज़ी राज के दमन और अत्याचार की यादों को फिर से ताज़ा कर दिया था.
इमरजेंसी लागू किए जाने के समय पिताजी आज़मगढ़ में चीफ़ जुडिशियल मजिस्ट्रेट थे. पिताजी
के कार्यों में जेल का मुआयना करना भी शामिल हुआ करता था. महीने में एक या दो बार
वो जिला-कारागार में जाकर वहां की व्यवस्था का आकलन करते थे.
आज़मगढ़ में समाजवादी विचारधारा के अनुयायियों का काफ़ी बोलबाला था. ये लोग
इमरजेंसी लागू होने से पहले इंदिरा गाँधी की सरकार का खुलकर विरोध कर रहे थे.
ज़ाहिर था कि अब इन पर सरकार का क़हर बरपा होना था. समाजवादी विचारधारा के तमाम
छोटे-बड़े नेताओं को ‘मीसा’ के तहत जेल में डाल दिया गया और फिर वहां उनकी डंडों से जम
कर खातिर की गयी.
सरकार का विरोध कर रहे आन्दोलनकारियों पर जेल में किए जा रहे इस अत्याचार की
खबर पिताजी तक भी उड़ते-उड़ते पहुँच गयी. पिताजी बिना किसी सूचना के मुआयना करने के
लिए जिला-कारागार पहुँच गए. पिताजी को अचानक से अपने सामने देख कर जेलर महोदय की
सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी. पिताजी ने बिना किसी भूमिका बनाए उन से कहा –
‘तुम्हारी जेल में ‘मीसा’ के तहत बंद पोलिटिकल
प्रिज़नर्स के साथ सख्ती की जाने की बड़ी शिकायतें आ रही हैं. चलो, मुझे उन सबसे मिलवाओ. मैं
ख़ुद उन से बात कर के यह पता करूंगा कि तुम लोग उनकी कैसे-कैसे और क्या-क्या खातिर
कर रहे हो.’
जेलर ने कुछ अटकते हुए, थोड़ा हकलाते हुए, जवाब दिया –
नहीं हुज़ूर ! ऐसी कोई बात नहीं है. आप ख़ुद ही चलकर देख लीजिएगा. बस अभी चाय
आती है फिर मैं आपको उन सबसे मिलवाता हूँ.’
पिताजी ने सख्ती से कहा –
‘चाय मैं घर से पीकर आया हूँ. इस से पहले कि इन ‘मीसा’ के तहत बंद क़ैदियों तक तुम्हारी पसंद का बयान देने का
तुम्हारा कोई पैगाम पहुंचे, मुझे उनसे अभी मिलना है.’
जेलर ने आज़िज़ी से कहा –
‘हुज़ूर, बस 10 मिनट दीजिए.’
लेकिन हुज़ूर थे कि एक सेकंड भी रुके बिना ख़ुद ही ‘मीसा-क़ैदियों’ की खोलियों की तरफ़ चल पड़े.
इन पोलिटिकल प्रिज़नर्स की दशा बहुत ही दयनीय थी. उनके रहने और खाने-पीने की
व्यवस्था देख कर किसी को भी दरबों में मुर्गियां रक्खे जाने की याद आ सकती
थी.
आज़मगढ़ के कोई यादव वक़ील भी इन मीसा-बंदियों में थे. पिताजी
उन्हें एक स्थानीय समाजवादी नेता के रूप में थोड़ा-बहुत जानते थे.
यादव साहब के लिए जेल में फ़ाइव-स्टार सुविधाएँ देखकर पिता जी ने जेलर से पूछा –
‘मिस्टर यादव पर डाके
डालने का इल्ज़ाम है या क़त्ल करने का?’
जेलर ने पिताजी का व्यंग्य समझे बिना जवाब दिया –
‘हुज़ूर, इनको तो शहर में शांति भंग
करने के कारण ‘मीसा’ में बंद किया गया है. ये
तो पोलिटिकल प्रिज़नर हैं.’
पिताजी ने फिर सवाल दागा –
‘पोलिटिकल प्रिज़नर्स
के साथ क्या इतना बुरा सुलूक किया जाता है? तुमने इनको सोने के लिए कितना बेहूदा बिस्तर दे
रक्खा है और पानी वाला घड़ा तो लगता है कि अंग्रेज़ों के ज़माने का है.’
जेलर जब तक अपनी सफ़ाई में कुछ कहे उस से पहले पिताजी ने यादव जी से कहा –
‘मिस्टर यादव, जेल में आपको जो भी परेशानी हो वो आप मुझे
बताइए और ज़रूरी हो तो जेल-एडमिनिस्ट्रेशन के खिलाफ़ रिटेन कम्प्लेन कीजिए.’
लेकिन जेलर से खौफ़ खाए मिस्टर यादव ने जेल-एडमिनिस्ट्रेशन के खिलाफ़ कोई रिटेन कम्प्लेन नहीं की.
सहमे हुए जेलर साहब जब पिताजी को जेल के बाहर छोड़ने आए तो पिताजी जाते-जाते
उन्हें धमकी दे गए –
‘इस बार की ही तरह
मेरे अगले इंस्पेक्शन की भी तुमको ख़बर नहीं होगी. किसी भी क़ैदी को टार्चर करने का
तुमको हक़ नहीं है.’
कुछ दिनों बाद पिताजी ने एक बार फिर जिला-कारागार का औचक
निरीक्षण किया. इस बार मीसा के तहत बंद क़ैदियों की स्थिति पहले से कहीं बेहतर थी.
मीसा-क़ैदी, वक़ील श्री
यादव से पिताजी दुबारा मिले. साफ़-सुथरे कमरे की, नए बिस्तर की और नए पानी के घड़े की सुविधा भोग रहे श्री यादव ने
पिताजी को तहे-दिल से शुक्रिया अदा किया.
इस घटना के कुछ महीनों बाद जून, 1976 में पिताजी का तबादला हरदोई हो गया.
देश की राजनीतिक स्थिति बदली. जनवरी 1977, में 19 महीने के ज़ुल्मो-सितम के बाद इमरजेंसी
हटा दी गयी और मार्च, 1977 में लोकसभा चुनाव
कराने का निर्णय लिया गया. जनवरी, 1977 में विभिन्न राजनीतिक दलों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन
किया. फिर इंदिरा गाँधी की सरकार का और ख़ुद इंदिरा गाँधी का क्या हशर हुआ, यह हम सब जानते हैं.
केंद्र में जनता पार्टी की चूंचू का मुरब्बानुमा सरकार बन गयी. उत्तर प्रदेश
में कुछ ही दिनों बाद विधान सभा चुनाव में भी कांग्रेस को ज़बर्दस्त शिक़स्त मिली और
वहां भी लोकसभा चुनाव की तरह जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला. उत्तर प्रदेश में
जनता पार्टी की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार थे लेकिन अंत में मुख्यमंत्री
पद के लिए डार्क हॉर्स के रूप में एक अप्रत्याशित नाम आया - आज़मगढ़ के समाजवादी
नेता श्री रामनरेश यादव का.
मैंने तो रामनरेश यादव का पहले कभी नाम भी नहीं सुना था. लेकिन पिताजी अखबार
में नए मुख्यमंत्री की फ़ोटो को बड़े गौर से देख रहे थे. फिर वो एकदम से मेरी तरफ़
मुखातिब होकर बोले –
‘आज़मगढ़ में मेरे
जेल-इंस्पेक्शन का किस्सा क्या तुमको याद है?’
मैं इतिहास का विद्यार्थी तो आसानी से कुछ भूलता ही नहीं था फिर जेलर साहब की
छीछालेदर वाला मज़ेदार किस्सा भला कैसे भूल सकता था?
मैंने कहा –
‘आपने वहां मीसा के तहत
बंद क़ैदियों को कुछ फैसिलिटीज़ दिलवाईं थीं.’
पिताजी ने मेरी याददाश्त का इम्तहान लिया –
‘मीसा के तहत क़ैद वह वक़ील कौन था, जिसने मुझे इन फैसिलिटीज़ दिलवाने के लिए
मेरा शुक्रिया अदा किया था?’
इस सवाल को सुनते ही मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी और मैंने जवाब देने के
बजाय पिताजी पर ही एक सवाल दाग दिया –
‘पिताजी, क्या वो मीसा-बंदी वक़ील, राम नरेश यादव थे?’
पिताजी ने पास में बैठी मेरी माँ को देखकर मुस्कुराते हुए कहा –
‘तुम्हारा बेटा तो
बड़ा स्मार्ट हो गया है.’
उसूलों के पक्के मेरे पिताजी ने मुख्यमंत्री से मिलने की कभी कोई ज़रुरत नहीं
समझी. पिताजी का मानना था कि उन्होंने एक पोलिटिकल प्रिज़नर को जेल में उसका हक़
दिलवा कर उस पर कोई एहसान नहीं किया था और फिर मुख्यमंत्री से तो उनका वैसे भी कोई
सरोकार ही नहीं था, वो तो हाई कोर्ट के अधीन थे.
एक ओर पिताजी थे
जिन्होंने एक मीसा बंदी को, बिना कुछ ख़ास जाने, बिना
कुछ ख़ास पहचाने, सिर्फ़ अपने उसूल की
खातिर, सिर्फ़ एक न्यायाधीश के फ़र्ज़ की खातिर, इंदु बुआ के
और संजय भैया के, जल्लादों से पंगा लेने
की हिम्मत की थी, तो दूसरी तरफ़ हमारे बाबू
रामनरेश यादव थे जिन्होंने कि एक घाघ पलटी-मार नेता का असली चरित्र दुनिया के
सामने पेश किया था और अपना डूबता राजनीतिक भविष्य फिर से उठाने के लिए कांग्रेस-राज
के ज़ुल्मो-सितम भूलकर, कांग्रेस में शामिल होने
का फैसला लिया था. इमरजेंसी के हमारे यह जुझारू नायक सोनिया-मनमोहन राज में मध्य प्रदेश के राज्यपाल भी
बने और वहां जग-प्रसिद्द व्यापम काण्ड में लिप्त भी हुए. अंततः अपनी थू-थू करा कर इस
दुनिया से वो कूच कर गए.
निकालते चलिये। आपकी पुरानी पोटली में बहुत मसाले हैं। बढ़िया संस्मरण।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र ! जब-तब निकल ही आता है, यादों के पिटारे में से.
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07 -07-2019) को "जिन खोजा तिन पाईंयाँ " (चर्चा अंक- 3389) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
'चर्चा अंक - 3389' में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-भाहूत धन्यवाद अनीता जी.
हटाएंएक से बढ़कर एक संस्मरण आपके।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद मन की वीणा !
हटाएंअच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ओंकार जी.
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