आज से ठीक 56 साल पहले हमारी स्वर्गीया बहनजी की शादी हुई थी. बहनजी हम चारों भाइयों से बड़ी थीं और हमारे लगभग पूर्ण-निर्दोष बड़े भाई साहब को छोड़ कर हम तीन भाइयों पर रौब-दाब के गांठने के मामले में वो हमारे परिवार में सबसे आगे रहा करती थीं.
घर का सबसे छोटा और वो भी सबसे उपद्रवी सदस्य होने के कारण बहन जी का कान-खिंचाई का प्रसाद प्राप्त किये बिना मेरा कोई सवेरा जाता हो, ऐसा मुझे तो याद नहीं पड़ता.
हम भाइयों की तो छोड़िए, हमारे धीर-गंभीर, संयत, पिताजी तक बहनजी के तुरंत-न्याय, तुरंत दंड, की प्रक्रिया से परेशान रहा करते थे. मजिस्ट्रेट के रूप में अपने 31 साल के कैरियर में पिताजी कभी भी बहन जी की त्वरित-न्याय व्यवस्था का मुक़ाबला नहीं कर पाए.
हम भाई लोग जब आपस में गुत्थम-गुत्था होते थे तो बहनजी पता नहीं, कहाँ से, बीच-बचाव के लिए आ जाती थीं और योद्धाओं की पीठों पर शाबाशियों के इतने धौल जमाती थीं कि अक्सर हम भाई लोग आपसी लड़ाई भूल कर बहन जी को ही अपना दुश्मन नंबर वन मानने लगते थे.
हमारे घर में चपरासी, महरी सहित काम करने वाले काफ़ी हुआ करते थे लेकिन बहनजी के काम, सुबह से शाम तक हुआ करते थे. अपनी पढ़ाई के साथ-साथ वो इतना काम कैसे कर लिया करती थीं, यह समझ में नहीं आता था.
खाना बनाना, कपड़े सिलना, स्वेटर बुनना और न जाने क्या-क्या !
इन कामों के अलावा बहन जी को जिस काम में सबसे ज़्यादा आनंद आता था, वो था, मुझे ज़बर्दस्ती पकड़ कर मेरे सर पर सरसों का तेल चुपड़ना ताकि न चाहते हुए भी मुझे नहाने के लिए जाना पड़े.
मुझ जैसे कृतघ्न छोटे भाई को उनके ऐसे कामों से महा-एलर्जी हुआ करती थी.
बचपन से मैं बहन के हाथों की सिली बुश्शर्ट और उनके सिले हुए नेकर, पाजामे पहन कर दुखी हुआ करता था. बहन जी को पैंट और कमीज़ सिलना नहीं आता था, इसका मुझे बड़ा संतोष था और इस क्षेत्र में दरजी की सेवाएँ मिलना मैं अपनी ख़ुशकिस्मती मानता था.
लेकिन बहन जी की शादी होने तक मैंने अपनी ज़िंदगी में रेडीमेड स्वेटर्स की कभी शक्ल भी नहीं देखी थी. बांह नापती, गला नापती और पेट नापती बहन की छवि मुझे सोते वक़्त भी डरा दिया करती थी. सबसे ज़्यादा तकलीफ़ की बात यह हुआ करती थी कि बहनजी अक्सर मेरे लिए जो स्वेटर बुनती थीं वह घर के किसी बड़े सदस्य के किसी पुराने स्वेटर के भग्नावशेष से ही तैयार किया जाता था.
पुराने ज़माने में पढ़े-लिखे, जागरूक परिवारों में भी लड़की के बड़े होते ही उसकी शादी करने की फ़िक्र की जाने लगती थी.
बहन जी के बी. ए. पास करते ही माँ-पिताजी को उनकी शादी की चिंता सताने लगी थी लेकिन सच कहूं तो परिवार में उनकी शादी की सबसे ज़्यादा जल्दी तो मुझे थी – कब बहन जी की शादी हो, कब वो घर से विदा हों और कब मुझे उनकी ज़बर्दस्त दरोगाई से मुझे छुटकारा मिले.
आख़िरकार भगवान ने मेरी सुन ली. 20 नवम्बर, 1964 को हमारी बहनजी की शादी हुई और 21 नवम्बर को जीजाजी उन्हें हमारे घर से विदा कर के अपने घर के लिए ले जाने लगे.
घर का हर सदस्य घर से बहन जी की विदाई के समय रो रहा था लेकिन मेरी आँखों का पानी न जाने कहाँ खो गया था. पृष्ठभूमि में फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ का गाना –
‘पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली’
बज रहा था लेकिन मेरे पापी दिमाग में उसी फ़िल्म का यह गीत न जाने कहाँ से बजे चला जा रहा था –
‘दुःख भरे दिन बीते रे भैया,
अब सुख आयो रे, रंग जीवन में नया लायो रे –‘
भारतीय इतिहास में मैं शायद पहला छोटा भाई रहा हूँगा जिसे अपनी बहन की विदाई की इतनी ख़ुशी हो रही होगी.
बहन जी विदा के लिए बस में बैठीं तो माँ गश खा कर गिर पड़ीं. बस में बैठे-बैठे ही बहन जी ने बताया कि कोरामिन कहाँ रखी है. फिर बहनजी की सासू माँ का शाल निकालने के लिए ऊनी कपड़ों के बॉक्स की चाबी की खोज हुई तो उसका अता-पता भी बहन जी ने ही बताया.
विदा होते-होते अपनी दरोगा बहन की उपयोगिता अब धीरे-धीरे मेरे समझ में भी आने लगी थी.
मेरे जीवन में बहन का जाना एक बड़े परिवर्तन का सूचक था लेकिन सच कहूं तो बहन की डांट खाए बगैर, उसकी कान-पकड़ाई और धौल-धप्पड़ खाए बगैर ज़िंदगी में मज़ा नहीं आ रहा था.
कब से बहन की सिली हुई बुश्शर्ट और उसका बुना हुआ स्वेटर पहनना मुझे अच्छा लगने लगा, मुझे पता ही नहीं चला.
बहन जी हमारे घर से विदा ज़रूर हुई थीं लेकिन हमारी ज़िंदगी का वो एक अहम् हिस्सा पहले की ही तरह बनी रहीं. अपने तीन साल के फ़्रांस प्रवास में भी हम लोगों के स्वेटर्स बुनने का ज़िम्मा वही उठाती रहीं.
बहन जी के जीवन में ही मैं रिटायर हो गया, मेरी दोनों बेटियों की शादी हो गयी और मैं नाना भी बन गया लेकिन उनकी नज़रों में मैं वही शरारती, ऊधमी और नालायक छोटा भाई ही रहा. और इधर मैं था कि जब तक बहन जी को छेड़ कर उनकी डांट न खा लूं, मुझे चैन नहीं आता था.
मेरे जीजाजी और मेरे भांजे-भांजी, भाई-बहन की इस नोंक-झोंक का भरपूर आनंद लेते थे और आज भी उन बातों का विस्तार से ज़िक्र करते रहते हैं.
बहन को हमारे घर से विदा हुए 56 साल हो गए और दुनिया से विदा हुए 5 साल से ऊपर हो गए लेकिन आज भी हमारे दिल से वो विदा नहीं हुई है.
आकाश के किसी भी तारे में मैं अपनी बहन की छवि देख लेता हूँ, उसके रौबीले प्यार को महसूस कर लेता हूँ फिर अचानक ही मैं अपने सर को दोनों हाथों से ढक लेता हूँ ताकि वो कहीं ज़बर्दस्ती उस पर सरसों का तेल न चुपड़ दे.
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२१-११-२०२०) को 'प्रारब्ध और पुरुषार्थ'(चर्चा अंक- ३८९८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
मेरे संस्मरण को 'प्रारब्ध और पुरुषार्थ' (चर्चा अंक - 3898० में सम्मिलित अर्ने के लिए धन्यवाद अनीता.
हटाएंबहुत सुन्दर और मार्मिक संस्मरण।
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री मयंक !
हटाएंसुन्दर सहेजी हुई यादें। बहन जी की जगह कोई नहीं ले सकता है।
जवाब देंहटाएंवाकई, रौब-दाब, अधिकार, ममता और अपनत्व की साक्षात् मूर्ति थीं बहनजी.
हटाएंबहुत जीवन्त संस्मरण है .
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद प्रतिभा जी.
हटाएंगोपेश भाई, अक्सर ऐसा ही होता है। बचपन में भाई-बहन लडते-झगडते है लेकिन बड़े होने पर एक-दूसरे की कमी खलती है। बहुत सुंदर संस्मरण्।
जवाब देंहटाएंज्योति, मेरे बचपन में बहन जी का और मेरा रिश्ता टॉम और जेरी जैसा था. आज भी उन हल्के-फुल्के झगड़ों को और नोंक-झोंक की याद करना बड़ा अच्छा लगता है.
हटाएंनमस्कार जैसवाल जी, आज बहुत दिनों बाद रिश्तों की इतनी सुखद नोंकझोंक पढ़ने को मिली...रोचकता आपके लेखन की बहुत बड़ी विशेषता है ...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद अलकनंदा जी.
हटाएंअपनी इसी बेबाक़ी की वजह से अपने सर पर बचे बाक़ी बाल अनुपम खेर के बालों जितने रह गए हैं.
बहुत ही भावपूर्ण हृदयस्पर्शी संस्मरण...
जवाब देंहटाएंऐसी बहन जो विदाई से पहले ही नहीं बाद में भी अपने मायके में और भाइयों पर पूर्ण अधिकार और स्नेह बनाए रखी। अक्सर शादी के बाद सब वैसा नहीं रहता। कभी मायके से तो कभी ससुराल से...।भाई बहन की नोंक-झोंक मन को गदगद कर गयी।
अद्भुत लेखन शैली।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुधा जी !
हटाएंबहन जी मुझ से 8 साल भी बड़ी नहीं थी लेकिन मुझ पर दादी-नानी वाला रौब रखती थीं. किशोरावस्था तक मुझे उनकी इस दरोगाई से परेशानी होती थी लेकिन बड़े होकर उनकी डांट खाने के लिए मैं उन्हें ख़ुद ही तंग किया करता था.
हृदयस्पर्शी संस्मरण। सादर बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद वीरेंद्र सिंह जी. इस संस्मरण को मैंने वाक़ई अपने दिमाग से नहीं, बल्कि अपने दिल से लिखा है.
जवाब देंहटाएंआपके हर संस्मरण की तरह ही ये भी अभिनव अप्रतिम हैं ।
जवाब देंहटाएंएक अहसास है इसमें आत्मीयता का जो अनदेखा छलक रहा है ।
बहुत सुंदर।
ऐसी उदार प्रशंसा के लिए धन्यवाद मन की वीणा !
हटाएंखट्टे-मीठे रिश्ते सिर्फ़ और सिर्फ़ मीठे रिश्तों से कहीं अधिक आत्मीयता से भरे हो सकते हैं.