बेटी हूँ पत्नी हूँ माँ हूँ
यह मेरी पहचान
नहीं है
जीवन भर छाया
बन रहना
यह मेरा अरमान
नहीं है
उड़ने की है कब
से चाहत
पंख कटे
संज्ञान नहीं है
पिंजड़े में रह
कर क्या जीना
आंसू हैं
मुस्कान नहीं है
जगदगुरु कहते
हो ख़ुद को
पर इसका भी
ज्ञान नहीं है
किसी अहल्या
जैसी बेबस
अब उसकी संतान
नहीं है
कृपा-दृष्टि
को क्यूँ कर तरसूँ
भिक्षा में
सम्मान नहीं है
जब तक ख़ुद को
सिद्ध न कर लूं
पल भर का विश्राम नहीं है
लाजवाब।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को 'लाजवाब' कहने के लिए धन्यवाद मित्र !
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (01 -03 -2021 ) को 'मौसम ने ली है अँगड़ाई' (चर्चा अंक-3992) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
मेरी कविता - 'स्वयंसिद्धा' को 'मौसम ने ली है अंगड़ाई' (चर्चा अंक - 3992) में सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
हटाएंसुन्दर सार से भरी भावपूर्ण रचना..समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर अवश्य पधारें..सादर नमन ..
जवाब देंहटाएंमेरी कविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा !
हटाएंतुमने मेरे अनुरोध के बावजूद अपने ब्लॉग के डिटेल्स नहीं भेजे. फिर उस पर मैं कैसे पधारूं?
सुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ओंकार जी.
हटाएंबहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंसादर
प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनीता !
हटाएंबहुत सुन्दर भाव लिए लाजवाब भावाभिव्यक्ति सर!
जवाब देंहटाएंमेरी कविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी.
हटाएंबचपन में एक संस्कृत उक्ति पढ़ी थी -
'क्रिया सिद्धिः सत्वे भवति, महतां नोप करणे !'
मेरी यह कविता मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुई बालिकाओं के लिए नहीं है.
सत्य वचन सर 🙏
हटाएंवाह!सर ,सुंदर भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंकविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद शुभा जी.
हटाएंस्त्री को कुछ सिद्ध करने की ज़रूरत भी नहीं वो स्वयं सिद्धा ही होती है ।
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति ।
संगीता जी, भारतीय स्त्री को अभी भी बहुत कुछ सिद्ध करना है.
हटाएंअभी तो वह अपने लक्ष्य के आधे रास्ते तक भी नहीं पहुँची है.
बहुत सुन्दर और सार्थक गीत-रचना।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरती से मान-अभिमान-गौरव सभी का चित्रण कर दिया आपने जैसवाल जी, बहुत खूब
जवाब देंहटाएंअलकनंदा जी, मैंने जो भी लिखा है वह तो नारी की क्षमता का और उसके गौरव का शतांश भी नहीं है.
हटाएंफिर भी प्रशंसा के लिए धन्यवाद.
बेहतरीन रचना आदरणीय 👌
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद अनुराधा जी.
हटाएंनारी स्वयंसिद्धा बनना चाहती है। लेकिन अभी भी उसके राहों में बहुत काटे है। उन्हें दूर करके ही वो स्वयंसिद्धा बन पाएगी। बहुत सुंदर रचना, गोपेश भाई।
जवाब देंहटाएंकविता की तारीफ़ के लिए शुक्रिया ज्योति.
हटाएंस्त्री के लिए स्वयंसिद्धा बनने का मार्ग कभी निष्कंटक तो हो ही नहीं सकता.
बहुत ही सुंदर कविता , पढ़कर तसल्ली हुई ,राह आसान नहीं फिर भी कोशिश सबकी जारी है, उम्मीद भी बाकी है, बहुत ही अच्छी लगी । हार्दिक आभार, नमस्कार
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति जी !
हटाएंपंडित सोहनलाल द्विवेदी की प्रसिद्द कविता की पंक्ति है -
'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती'
अपनी राह में बिछे कांटे हटाने में और अपनी बेड़ियाँ तोड़ने में स्त्री को कठिनाइयों का सामना तो करना ही होगा.
प्रशंसा के लिए धन्यवाद मनोज जी.
जवाब देंहटाएंजी गोपेश जी बहुत आभार नारीस्वाभिमान के स्वर को शब्दांकित करने के लिए! सादर 🙏🙏
जवाब देंहटाएंरेणु जी, जो इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ सकती है वह पुरुष-प्रधान मानसिकता की बेड़ियाँ भी तो तोड़ सकती है.
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