रविवार, 28 फ़रवरी 2021

स्वयं सिद्धा

 

बेटी हूँ पत्नी हूँ माँ हूँ



यह मेरी पहचान नहीं है



जीवन भर छाया बन रहना



यह मेरा अरमान नहीं है



उड़ने की है कब से चाहत



पंख कटे संज्ञान नहीं है



पिंजड़े में रह कर क्या जीना  



आंसू हैं मुस्कान नहीं है



जगदगुरु कहते हो ख़ुद को



पर इसका भी ज्ञान नहीं है



किसी अहल्या जैसी बेबस

 

अब उसकी संतान नहीं है

 

कृपा-दृष्टि को क्यूँ कर तरसूँ

 

भिक्षा में सम्मान नहीं है



जब तक ख़ुद को सिद्ध न कर लूं



पल भर का विश्राम नहीं है

30 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी रचना को 'लाजवाब' कहने के लिए धन्यवाद मित्र !

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (01 -03 -2021 ) को 'मौसम ने ली है अँगड़ाई' (चर्चा अंक-3992) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. मेरी कविता - 'स्वयंसिद्धा' को 'मौसम ने ली है अंगड़ाई' (चर्चा अंक - 3992) में सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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  3. सुन्दर सार से भरी भावपूर्ण रचना..समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर अवश्य पधारें..सादर नमन ..

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    1. मेरी कविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा !
      तुमने मेरे अनुरोध के बावजूद अपने ब्लॉग के डिटेल्स नहीं भेजे. फिर उस पर मैं कैसे पधारूं?

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  4. बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर।
    सादर

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  5. बहुत सुन्दर भाव लिए लाजवाब भावाभिव्यक्ति सर!

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    1. मेरी कविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी.
      बचपन में एक संस्कृत उक्ति पढ़ी थी -
      'क्रिया सिद्धिः सत्वे भवति, महतां नोप करणे !'
      मेरी यह कविता मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुई बालिकाओं के लिए नहीं है.

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  6. वाह!सर ,सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

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  7. स्त्री को कुछ सिद्ध करने की ज़रूरत भी नहीं वो स्वयं सिद्धा ही होती है ।
    अच्छी प्रस्तुति ।

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    1. संगीता जी, भारतीय स्त्री को अभी भी बहुत कुछ सिद्ध करना है.
      अभी तो वह अपने लक्ष्य के आधे रास्ते तक भी नहीं पहुँची है.

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  8. उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !

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  9. बहुत खूबसूरती से मान-अभ‍िमान-गौरव सभी का च‍ित्रण कर द‍िया आपने जैसवाल जी, बहुत खूब

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    1. अलकनंदा जी, मैंने जो भी लिखा है वह तो नारी की क्षमता का और उसके गौरव का शतांश भी नहीं है.
      फिर भी प्रशंसा के लिए धन्यवाद.

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  10. बेहतरीन रचना आदरणीय 👌

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  11. नारी स्वयंसिद्धा बनना चाहती है। लेकिन अभी भी उसके राहों में बहुत काटे है। उन्हें दूर करके ही वो स्वयंसिद्धा बन पाएगी। बहुत सुंदर रचना, गोपेश भाई।

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    1. कविता की तारीफ़ के लिए शुक्रिया ज्योति.
      स्त्री के लिए स्वयंसिद्धा बनने का मार्ग कभी निष्कंटक तो हो ही नहीं सकता.

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  12. बहुत ही सुंदर कविता , पढ़कर तसल्ली हुई ,राह आसान नहीं फिर भी कोशिश सबकी जारी है, उम्मीद भी बाकी है, बहुत ही अच्छी लगी । हार्दिक आभार, नमस्कार

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति जी !
      पंडित सोहनलाल द्विवेदी की प्रसिद्द कविता की पंक्ति है -
      'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती'
      अपनी राह में बिछे कांटे हटाने में और अपनी बेड़ियाँ तोड़ने में स्त्री को कठिनाइयों का सामना तो करना ही होगा.

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  13. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मनोज जी.

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  14. जी गोपेश जी बहुत आभार नारीस्वाभिमान के स्वर को शब्दांकित करने के लिए! सादर 🙏🙏

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    1. रेणु जी, जो इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ सकती है वह पुरुष-प्रधान मानसिकता की बेड़ियाँ भी तो तोड़ सकती है.

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