शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल के आंसू – भाग – 2

 

इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल के आंसू भाग – 2

(श्री जयशंकर प्रसाद से क्षमा-याचना के साथ)

  

ना खाऊँ ना खाने दूं

यह कथन सत्य बिन खटका 

बिन पत्र-पुष्प अर्पण के

हर काम अधर में लटका

 

वाणी में मिसरी घुलती

पर पेट ज़हर का मटका

कुछ तो हलाल-गति पाए

कुछ का कर डाला झटका

 

रुक-रुक कर घिसट-घिसट कर

चलती है प्रगति कहानी

दिन-रात फलें और फूलें 

अम्बानी और अडानी

 

बचपन अभाव में बीता  

फाकों में कटी जवानी

इस लोकतंत्र की सूरत

मर कर हमने पहचानी

5 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ लोग तो मरकर भी पहचान नहीं रहे।
    गजब और बिंदास।

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    1. सही बात है रोहतास. हम धोखे में ही जीते हैं और धोखे में ही मर जाते हैं.

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  2. प्रणय-दिवस का भूत चढ़ा है' (चर्चा अंक 3977) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !

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  3. कई समसामयिक प्रसंगों को रेखांकित करती रचना..

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    1. जिज्ञासा, मेरी व्यंग्य-रचना के ऐसे उदार आकलन के लिए धन्यवाद !

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