मार्च, 1980 में
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बागेश्वर में इतिहास विषय में प्रवक्ता के पद पर
मेरी नियुक्ति हुई थी.
एक सड़े-गले और घुचकुल्ली से
7 कमरों
के पुराने डाक बंगले में बने इस महाविद्यालय से बड़े तो मैंने सैकड़ों प्राइमरी
स्कूल्स देखे थे.
मेरी निराशा की कोई सीमा
नहीं थी लेकिन मेरे साथियों ने मुझे महाविद्यालय के लिए बनने वाली नई भव्य किन्तु
अधूरी इमारत दिखाई जिसमें कि अच्छे क्लास-रूम्स, स्टाफ़-रूम्स, अच्छी
लाइब्रेरी, विशाल
कार्यालय, स्टेडियम, आदि
सब कुछ बनने वाले थे.
इस अधूरी इमारत को देख कर
मेरा अपने मित्रों से केवल एक सवाल था
‘इस इमारत के बनने से पहले बागेश्वर में पुराने
शांति-निकेतन की तर्ज़ पर कुटिया वाले महाविद्यालय को खोलने की ज़रुरत ही क्या थी?’
हमारे देश में आमतौर पर
राजनीतिक दबाव के कारण बिना समुचित संसाधन जुटाए, नए-नए विद्यालय और नए-नए
विश्वविद्यालय खोल दिए जाते हैं.
कुमाऊँ में स्थित स्याल्दे
डिग्री कॉलेज का एक किस्सा है.
1970 के दशक में कुमाऊँ के एक दूरस्थ क्षेत्र स्याल्दे में एक
डिग्री कॉलेज खोला गया. इस कॉलेज के प्रथम सत्र में कुल विद्यार्थी तीन-चार थे और
अध्यापक भी उतने ही थे. प्रिंसिपल क्लर्क और चपरासी तो इनके अलावा थे ही.
स्याल्दे के कॉलेज को लेकर
एक मज़ाक़ चलता था –
अगर इस कॉलेज के सभी
विद्यार्थियों को अमरीका में ही क्या, अगर चाँद पर भेज कर भी पढ़ाया जाता तो इस कॉलेज में प्रति
विद्यार्थी पर होने वाला ख़र्चा अपेक्षाकृत कम पड़ता.
इस कॉलेज की स्थापना के
लगभग दस-बारह साल बाद मेरे पास मूल्यांकन हेतु इस कॉलेज के बी० ए० प्रथम वर्ष के 9 विद्यार्थियों
की उत्तर-पुस्तिकाएँ आई थीं.
मूल्यांकन में बहुत उदारता
बरतने के बावजूद 50
अंकों के प्रश्न पत्र में अधिकतम अंक प्राप्त करने वाले
परीक्षार्थी ने 9 ही
अंक प्राप्त किए थे.
ऐसे अल्लम-गल्लम विद्यालयों
में पढ़ाई पूरी तरह राम-भरोसे होती है.
जो स्थानीय नेता अपने
क्षेत्र में अपने दम पर विद्यालय स्थापित करने के लिए अपनी मूछों पर ताव देते हैं, उन्हें
इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि उन विद्यालयों से निकले विद्यार्थियों की लियाक़त
घास खोदने के या फिर गाय-भैंस चराने के लायक भी हुई या नहीं !
ऐसे विद्यालयों में नियुक्त
अध्यापकों की स्थिति से बदतर हालत तो पुराने ज़माने के काला-पानी के कैदियों की भी
नहीं होती होगी.
न ढंग के क्लास-रूम्स, न
कोई अच्छी लाइब्रेरी, न
अच्छे विद्यार्थी, सारे
सहयोगी ऐसे जो कि उखड़े मन से सिर्फ़ वेतन लेने के लिए अपने फ़र्ज़ की अदायगी करते हों, न
कोई आवासीय सुविधा, न
अच्छा बाज़ार, न
बच्चों के लिए अच्छा स्कूल, न
कोई ढंग का सिनेमा, न
कोई अस्पताल और यहाँ तक कि सभ्य समाज तक पहुँचने के लिए न कोई यातायात की समुचित
व्यवस्था !
ऐसे दूरस्थ और एकाकी
विद्यालयों में कब विद्यार्थी गायब हैं और कब गुरु जी नदारद हैं, इसका
कोई पता ही नहीं लगा सकता.
नक़ल की खुली छूट दिए जाने
बावजूद ऐसे विद्यालयों के अधिकांश विद्यार्थी परीक्षा में गोताखोरी के नए
कीर्तिमान स्थापित करते रहते हैं. इन विद्यालयों में व्याप्त अराजकता और
भ्रष्टाचार देख कर -
‘अंधेर नगरी चौपट्ट राजा’
की उक्ति के हम साक्षात्
दर्शन कर सकते हैं.
मुझे बाक़ी अधकचरे
विश्वविद्यालयों की जानकारी तो नहीं है लेकिन 31 साल मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में
पढ़ाया है.
संसाधनों से हीन, निम्न
स्तरीय शैक्षिक वातावरण वाले और लाल-फ़ीताशाही से ग्रस्त इस विश्वविद्यालय में
विद्यार्थियों को और अध्यापकों को, आगे बढ़ने के कितने अवसर मिल सकते थे, इसका
आकलन कर पाना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असंभव था.
इस परिसर में बरसों तक
अध्यापकों के लिए टॉयलेट्स भी नहीं थे.
मैं आठ साल तक अल्मोड़ा
परिसर के ठीक नीचे, खत्यारी
में, एक
दरबेनुमा मकान
में रहा था.
मेरे अनेक सहयोगियों द्वारा, ख़ास
कर मेरी महिला-सहकर्मियों द्वारा,
इमरजेंसी में मेरे घर का टॉयलेट ही इस्तेमाल किया जाता था.
एक बार अपने एक कुलपति
महोदय से मैंने इस समस्या का उल्लेख किया तो कुलपति महोदय के सामने ही उनके एक
चमचा-ए-ख़ास ने मेरी हंसी उड़ाते हुए मुझ से पूछा –
‘जैसवाल साहब, आप और आपके दोस्त परिसर में पढ़ाने आते हैं या फिर टॉयलेट
जाने के लिए?’
हैरत की बात यह थी कि
कुलपति महोदय ने अपने चमचा-ए-ख़ास के इस बेहूदे सवाल पर बेशर्माई से एक ज़ोरदार
ठहाका लगाया था.
26 साल तक मुझे विश्वविद्यालय की ओर से आवासीय सुविधा नहीं
मिली थी. किराए के मकानों में 26
साल बिताने के बाद मेरे रिटायरमेंट से पांच साल पहले मुझे
विश्वविद्यालय की ओर से जब पाताल लोक जैसे लोअर मॉल के भी नीचे मकान आवंटित हुआ तब
मैंने ख़ुद उसे लेने से इंकार कर दिया.
अपने इतिहास विभाग में हम
अध्यापक बरसों तक एक ही स्टाफ़ रूम से काम चलाते रहे. इस स्टाफ़ रूम में क्लास भी
होते थे और यही विभागीय अध्यक्ष का कमरा था और इसी में विभागीय संग्रहालय भी था.
बाद में हम
सब के दिन फिरे. प्रोफ़ेसर बनने पर मुझे अलग से एक कमरा मिला. एक मेज़, छह
कुसियों और एक अलमारी से सजे,
इस टेढ़े-मेढ़े कमरे का कुल क्षेत्र-फल 50 वर्ग
फ़ीट था जिसकी कि लकड़ी-टीन की जर्जर छत तेज़ बरसात में रबीन्द्रनाथ टैगोर के –
‘वृष्टि करे टापुर-टापुर’
गीत का दिलकश नज़ारा पेश
करती थी.
तीन विभागों के बीच हमको एक
चपरासी दिया गया था जो कि गाहे-बगाहे हमारे लिए कैंटीन से चाय ला दिया करता था और
हम तक विभागीय डाक पहुंचा दिया करता था.
विभागीय पुस्तकालय के नाम
पर हमारे यहाँ तीन सौ–चार
सौ किताबें थीं जिनमें आधे से ज़्यादा आउट ऑफ़ डेट हो चुकी थीं,
बरसों तक हमारे विभाग में
कोई सेमिनार या कांफ्रेंस नहीं हुई और फिर एकाद हुईं भी तो उनमें छोले-भठूरे के
साथ बासी, सतही
और सड़ी-गली शोध-सामग्री ही परोसी गयी थीं.
मैं बिना पर्याप्त संसाधन
के नए कॉलेज और नए विश्वविद्यालय स्थापित करने के सख्त ख़िलाफ़ हूँ.
मेरे मित्र प्रोफ़ेसर अनिल
जोशी ने आज ही फ़ेसबुक पर अपनी
वाल पर अपने सोलह साल पुराने एक साहसिक अभियान का कुछ यूँ ज़िक्र किया है-
'लगभग सोलह वर्ष पूर्व अकेले दम पर गरुड़ (जिला बागेश्वर)
में गोशाला समान दो कक्षों के भवन में एक राजकीय महाविद्यालय की स्थापना की थी.'
अब आप सोचिए कि किराए के दो
कमरे वाले इस गरुड़ महाविद्यालय में शैक्षिक विकास के लिए कितना दिव्य और कितना
अनुकूल वातावरण रहता होगा.
हमारा अल्मोड़ा परिसर अब
शोभन सिंह जीना विश्वविद्यालय बना दिया गया है.
विश्विद्यालय परिसर से
विश्वविद्यालय का दर्जा दिए जाते समय इसके संसाधनों में कोई इजाफ़ा नहीं हुआ है.
इस विश्वविद्यालय का न तो
अपना रजिस्ट्रार ऑफ़िस है और न ही अपना कुलपति-निवास है.
परिसर के गेस्ट हाउस को अब
कुलपति का निवास बना दिया गया है. अब विश्वविद्यालय का अपना कोई गेस्ट हाउस भी
नहीं है.
इतिहास विभाग की नई इमारत
को भी किसी कार्यालय में बदल दिया गया है. विश्वविद्यालय के विभिन्न कार्यालयों के
नाम पर कई अन्य विभागों पर भी ऐसी ही गाज़ गिरी है.
इस नए विश्वविद्यालय का
अपना कोई स्टेडियम भी नहीं है.
नए विश्वविद्यालय में
कामचलाऊ रजिस्ट्रार है, कामचलाऊ
फाइनेंस ऑफ़िसर है और इसके अलावा भी इसका न जाने क्या,क्या
कामचलाऊ है.
हमारे मित्र जो कि इन दिनों
अवकाश प्राप्त करने वाले हैं,
उनकी तो इस नए विश्वविद्यालय बनने से दुर्दशा ही हो गयी है.
उन बेचारों को नो-ड्यूज
सर्टिफिकेट्स के लिए कुमाऊँ विश्वविद्यालय और अल्मोड़ा विश्वविद्यालय, दोनों
के ही कई-कई विभागों के कई-कई चक्कर लगाने पड़ रहे हैं.
आज बिना पर्याप्त संसाधन के, बिना
आवश्यक सुविधाओं के, बिना
शैक्षिक स्तर की चिंता किए हुए,
नए-नए कॉलेज,
नए-नए विश्वविद्यालय, देश के
कोने-कोने में खोले जा रहे
हैं. उनके उद्घाटन में लाखों-करोड़ों रूपये भी बहाए जा रहे हैं.
आकाओं द्वारा शेखी बघारी
जाती है कि उनके सुशासन में कितने नए कॉलेज और कितने नए विश्वविद्यालय वजूद में
आए.
संसाधनहीन ये विश्वविद्यालय
मुझे उत्तर मुगल काल के उन पांच हज़ारी, सात हजारी मनसबदारों की याद दिलाते हैं जिनके पास क्रमशः
पांच और सात घोड़े भी नहीं हुआ करते थे.
मेरी दृष्टि में कॉलेजों और
विश्वविद्यालयों की कुकुरमुत्ता-बाढ़, माँ सरस्वती का अपमान करना है और पढ़े-लिखे बेरोजगारों के
कुंठित समुदाय में और भी अधिक वृद्धि करना है.
हम को शीघ्रातिशीघ्र इस आत्मघाती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा.
फ़िर भी हम आप धन्य हैं कि नहीं। पेट भी पाल ले गये परिवार भी और कुछ बचा भी ले गये इसी अल्लम गल्लम विश्वविद्यालय से हजूर है की नहीं ? पेंशन अलग से :)
जवाब देंहटाएंदोस्त, अपने घर की कमियां हमको बारीक़ी से दिखाई देती हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय और अल्मोड़ा परिसर (अब अल्मोड़ा विश्वविद्यालय), दोनों मेरे अपने हैं, इन्हीं ने मुझे रोटी दी थी और अब भी दे रहे हैं.
हटाएंमेरी दिली ख्वाहिश है कि इनका स्तर सुधरे और इनमें पढ़ने वालों को और इनमें पढ़ाने वालों को वो सब सुविधाएँ प्राप्त हों जो कि एक स्तरीय विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को और उनके अध्यापकों को मिलती हैं.
१०० % कमियां? १% भी कुछ अच्छा नहीं। कुलपति आवास बनाया गया है। ४५ करोड से विश्वविद्यलय भवन भी बन रहा है। तब तक के लिये अतिथी गृह में कार्यालय बनाया गया है। प्रो डी डी पन्त प्रो वल्दिया जैसी विभूतियों ने यहीं काम किया था। नाक ए रेटिंग शायद कुछ खिला पिला कर ले ली गयी होगी :)
हटाएंपहले विश्वविद्यालय भवन, कुलपति निवास और कुलसचिव कार्यालय बन जाता, फिर विश्वविद्यालय बनता. दो-चार साल इंतज़ार कर लेते तो क्या बुरा होता? मगर वोट लेने के लिए यह तो विधानसभा चुनाव से पहले करना ज़रूरी समझा गया था.
हटाएंहमारे विश्वविद्यालय की उपलब्धियां हैं लेकिन स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने जैसा कुछ नहीं है.
आज भी इंटर में अच्छे अंक लाने वाले बहुत कम बच्चे हमारे विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए आते हैं.
मित्र, तुम तो अपनी बेबाक़ी के लिए मशहूर हो. अब ऐसा क्या हो गया कि तुमको मेरी बेबाक़ बातें इतनी चुभ रही हैं?
सिक्के के दोनो पहलू रखे जाने चाहिये। आप सिर्फ़ हेड की बात कर रहे हैं। उससे मैं भी इत्तेफ़ाक रखता हूं। मैं हमेशा खुद भी इन बातों को कहता रहा हूं। पर थोडा सा पूंछ भी कह देतेछ्तओ अच्छा रहता। अब आप को अच्छा ०% भी नहीं महसूस होता हो तो हो सकता है हम ही गलतफ़हमी में जी रहे हों। ऐसे में आंखें खोलने के लिये आपको धन्यवाद तो बनता ही है। वैसे भी समझ के लिये कुछ किया नहीं जा सकता है सबकी अपनी अपनी अपने हिसाब की । फ़िर भी वार्तालाप तो किया ही जा सकता है।
हटाएंमित्र, टेल या दुम हिलाने वाले तो बहुत हैं, मैंने तो सीधे हेड पर चोट करने की हिम्मत की है.
हटाएंहम-तुम एम० ए० या एमएस० सी० करने से पहले क्या लेक्चरर हो गए थे? फिर बिना ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किए कॉलेज या यूनिवर्सिटी खोलने की क्यों जल्दी हो?
इस विश्वविद्यालय में 95% अध्यापक बिना किसी बाधा के प्रोफ़ेसर हो गए लेकिन जैसवाल साहब रिजेक्ट हो गए. क्या तुम यह मानते हो कि मेरा रिजेक्शन सही था?
बीसियों लोग बिना B+ कैरियर के अंशकालिक प्रवक्ता बनाए गए और फिर परमानेंट भी कर दिए गए. क्या यह भी सही था?
मेरे 31 साल की नौकरी में मात्र 25 टीचर्स क्वार्टर्स बने क्या वह भी सही था?
ऐसा नहीं है कि और जगह धांधली नहीं होती. मैं ख़ुद लखनऊ विश्वविद्यालय में अंधेर का शिकार हो चुका हूँ.
संवाद होते रहने चाहिए लेकिन किसी भी बात को दिल पर लिए बिना हमको सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए.
जी आप की इन सब बातों से मैं असहमत कहां हूं?
हटाएंहम-तुम, दोनों ही अल्मोड़ा विश्वविद्यालय को एक श्रेष्ठ और साधन-संपन्न विश्वविद्यालय के रूप में देखना चाहते हैं.
हटाएंसत्य से रु बी रु कराता संस्मरण ..... वाकई इस तरह के शिक्षा के संस्थान न ही खुलें तो बेहतर ....
जवाब देंहटाएंसंगीता जी, मुझ पर यह आरोप लगता रहा है कि मैंने जहाँ का नमक खाया है, मैं वहां की खुलेआम बुराई करता हूँ. लेकिन मैं इस मामले में कबीर का चेला हूँ. खरी-खरी कहना मेरा स्वभाव है.
हटाएंमैंने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के बारे में जो भी लिखा है, वह बहुत छान कर लिखा है. हक़ीक़त इस से भी कहीं ज़्यादा तल्ख़ और बदसूरत है.
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज सोमवार(१३-०६-२०२२ ) को
'एक लेखक की व्यथा ' (चर्चा अंक-४४६०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
'एक लेखक की व्यथा' (चर्चा अंक - 4460) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता.
हटाएंआये दिन नये विश्वविद्यालय का खुलना पढ़ने सुनने में प्रभावित करता है पर आज जब हकीकत सामने आई तो सचमुच आवाक हूँ
जवाब देंहटाएंएक विकासशील देश में विद्या, लेक्चरर प्रोफेसर और साथ ही विद्यार्थियों की ऐसी दुर्गति विचारणीय तथ्य है।
बेबाक लेख यथार्थ पर।
सादर साधुवाद।
कुसुम जी, मेरा जैसा चूहा बिल्ली के गले में घंटी बाँध तो देता है पर फिर उसे इस दुस्साहस की बड़ी भरी क़ीमत चुकानी पड़ती है. शैक्षिक संस्थानों का पोल-खोल कार्यक्रम तो मेरे जैसे शिक्षक ही तो चला सकते हैं और इसके लिए अगर हमको विभीषण की उपाधि मिलती है तो वो भी हमें स्वीकार्य है.
हटाएंयथार्थपूर्ण अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंमेरे विचारों से सहमत होने के लिए धन्यवाद भारती जी.
हटाएंकाश, ऐसे विश्वविद्यालय न खुले तो ही अच्छा। बहुत सुंदर संस्मरण।
जवाब देंहटाएंज्योति, ऐसे आधे-अधूरे कॉलेजों की और ऐसे लंगड़े-लूले विश्वविद्यालयों की स्थापना मुझे न जाने क्यों बाल-विवाह की बेवकूफ़ाना प्रथा की याद दिलाती है.
हटाएंपहाड़ों पर स्कूल, इंटरकॉलेज या विश्व विद्यालय सब के हाल ऐसे ही हैं ।वहाँ के विद्यार्थी ही जानते हैं कि वे किस हाल में और कितनी पढाई कर पाये हैं...शिक्षकों के हालात आपकी पोस्ट बयां कर ही रही है...खासकर वे शिक्षक जो बाहर से हो।
जवाब देंहटाएंसुधा जी, शैक्षिक संस्थाओं में यह बदहाली सिर्फ़ पहाड़ों में नहीं है. मैदानों में भी ऐसे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की कमी नहीं है जहाँ पर कि पढ़ाई के नाम पर सिर्फ़ खानापूरी होती है.
हटाएंमैंने 1975 से ले कर 1980 तक लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर कार्य किया था. वहां तब हम लॉ फैकल्टी के 90% विद्यार्थियों को खुलेआम नक़ल करते देखते थे और उनके खिलाफ़ कुछ भी नहीं कर पाते थे.
अधिकतर प्राइवेट कॉलेज तो हर जगह अंधेर नगरी संस्कृति का ही पोषण करते थे और आज भी वही करते हैं.