सोमवार, 6 जून 2022

एक पुराना किस्सा

 घूंघट के पट खोल –

पुराने ज़माने की बात है, वैशाख की दोपहरी में ब्रज क्षेत्र के एक गाँव के ज़मींदार की हवेली से एक मोहतरमा की विदाई हो रही थी. बड़ा मार्मिक दृश्य था. मोहतरमा छोटे-बड़े सभी से गले मिल-मिल कर रो रही थीं.
रोने और गले लगने का यह सिलसिला यूँ ही अनंत काल तक चलता रहता पर सावन में भैया को भेज कर उनको फिर से बुलाने के वादे पर इस ड्रामे का सुखद अंत हुआ.
पीली गोटेदार साड़ी और गहनों से सजी, लम्बा घूंघट काढ़े हुए वो मोहतरमा, गाडीवान के साथ बैलगाड़ी में सवार हुईं.
वाह ! क्या शानदार बैलगाड़ी थी और कितने सजीले बैल थे.
एक बांका घुड़सवार थोड़ी दूर से यह दृश्य देख रहा था. वो उस पीली गोटेदार साड़ी में लिपटी, घूंघट वाली मोहतरमा की बस एक झलक पाना चाहता था पर मोहतरमा ने बैलगाड़ी में सवार होने तक अपना घूंघट खोला ही नहीं.
खैर कोई बात नहीं, ‘रास्ते में हवा खाने के लिए कभी न कभी तो वो अपना घूंघट खोलेंगी ही’ यह सोचकर उस बांके नौजवान ने अपनी मंज़िल भूल कर अपना घोड़ा उस बैलगाड़ी के पीछे लगा दिया.
बैलगाड़ी में उन मोहतरमा के अलावा कोई था तो बस एक बूढ़ा सा गाड़ीवान. बांका घुड़सवार अपनी क़िस्मत पर खुद ही रश्क कर रहा था.
ज़मींदार का इलाका पार हो चुका था अब चाहे मोहतरमा का पीछा करो, चाहे उन्हें छेड़ो, पिटाई का या पकड़े जाने का कोई ख़तरा नहीं था.
अकेला बूढ़ा गाड़ीवान ऐसे बांके नौजवान के खिलाफ़ कर भी क्या सकता था?
ऐसे में कान्हाजी बनकर किसी गोपिका को छेड़ना तो बनता ही था.
बांके नौजवान का सजीला घोड़ा काफ़ी बदतमीज़ था. उस कमबख्त को बैलों के स्लो मोशन में चलने की अदा पसंद ही नहीं आ रही थी.
बांका नौजवान उसे लाख थामने की कोशिश करता पर वो एंड़ लगा कर बैलगाड़ी से आगे निकल जाता था.
बेचारे नौजवान को घोड़े को मोड़ कर फिर से उसे बैलगाड़ी के पीछे लगाना पड़ता था.
अपना पीछा करने की ऐसी धृष्ट चेष्टा देख कर कोई और होती तो आग बबूला हो जाती पर हमारी यह मोहतरमा तो लगता था कि बड़ी रोमांटिक थीं. वो अपने एक हाथ की दो उँगलियों से अपना घूंघट उठाकर उस बांके नौजवान की हर हरक़त देख रही थीं पर उस बेचारे को उस घूंघट वाली की छवि के दर्शन हो ही नहीं पा रहे थे.

अपनी तरफ़ उन मोहतरमा का ध्यान देखकर बांके घुड़सवार की हिम्मत और बढ़ गयी. अब वो बड़े रोमांटिक अंदाज़ में कबीरदास का एक गीत गा रहा था –
‘घूंघट के पट खोल री,
तोहे पिया मिलेंगे.’
घूंघट के पट तो नहीं खुले पर ‘ही, ही, खी, खी’ की दबी हुई हंसी उस घूंघट के अन्दर से ज़रूर आने लगी.
गाड़ीवान इस लीला से बिलकुल ही बेख़बर होकर अपनी गाड़ी चलाए चला जा रहा था. इस तरह से लाइन क्लियर देखकर अब तो बांका नौजवान और भी बोल्ड हो गया. उस के गाने का स्वर और तेज़ हो गया और अब वो बैलगाड़ी के बहुत करीब तक जाने लगा. बस अब देर नहीं थी कि वो खुद ही उन मोहतरमा के घूंघट का पट खोल देता. पर उस से पहले ही रास्ते में एक कुआँ आ गया.
गाड़ीवान ने बैलगाड़ी रोक दी और वह खुद कुएं से पानी निकालने चला गया. अपना घोड़ा रोक कर बांका घुड़सवार अपनी नयी स्ट्रेटजी के बारे में सोच ही रहा था कि गाड़ीवान एक हाथ में शरबत का गिलास और दूसरे हाथ में पेड़ों का दौना लेकर उसके सामने आकर कहने लगा –
‘ठाकुर साहब, बिटिया ने जे पेड़े और जे सरबत तुम्हाई खातिर भिजबाए एं. इनकूं खाय-पी कै नैक सुस्ताय लेओ, फिर हम सब आगे कूँ चलैं.'
(ठाकुर साहब, ये शरबत और ये पेड़े बिटिया ने आपके लिए भिजवाए हैं. इन्हें खा-पी कर थोड़ा सुस्ता लीजिए तो फिर हम आगे को चलते हैं.)
बांके नौजवान ने मन ही मन सोचा –
‘ठाकुर साहब ! वाह, इस नाज़नीन को और इस गाड़ीवान को कैसे पता चला कि मैं ठाकुर साहब हूँ?’
बांके नौजवान ने बड़े अदब से घूंघट वाली की ओर एक शुक्रिया वाला सलाम फेंका और उसकी भेजी हुई भेंट को क़ुबूल कर लिया. इतना ही नहीं उसने अपने घोड़े पर बंधे हुए एक थैले में से चांदी की एक डिबिया में से दो बीड़ा पान निकाल कर गाड़ीवान को दे कर उस से कहा –
‘शरबत और पेड़ों के लिए शुक्रिया कहना. ये पान हमारी तरफ़ से राजकुमारी जी को पेश करना.’
पर यह क्या?
बैलगाड़ी में अब तक घूंघट में छिपी बैठी गोटेदार पीली साड़ी वाली ने एक दम से अपना घूंघट खोल कर कहा –
‘पूत मोए दांत नायं एं. मैं पान नायं चबाय सकत ऊँ.’
(बेटा, मेरे दांत नहीं हैं. मैं पान चबा नहीं सकती.)
अपनी फटी आँखों से उस बांके नौजवान ने देखा कि एक दंत-हीन उम्र-दराज़ महिला बड़े प्यार से उसे संबोधित कर रही है.
बांका नौजवान तो सदमे की हालत में पहुँच गया था पर उस महिला का भाषण अब भी जारी था –
‘तू गाय रओ थो – घूंघट के पट खोल री, तोहे पिया मिलेंगे. मोये बापे हंसी आय रई थी. घर जाय के घूंघट खोल कै मोये पिया, मल्लब तेरे ताउजी तो मिलेंगे ई पर हमाई किस्मत देख ! घूंघट खोलो तो रत्ते में मोये पूत मिल गओ.’
(तू गा रहा था – घूंघट के पट खोल री तोहे पिया मिलेंगे. मुझे उसी पर हंसी आ रही थी. घर जा कर घूंघट खोलने पर तो मुझे पिया, मतलब कि तेरे ताउजी मिलेंगे ही पर मेरी किस्मत तो देख ! रस्ते में घूंघट उठाया तो मुझे बेटा मिल गया.)
बांके नौजवान के एक हाथ से शरबत का गिलास छूटा तो उसके दूसरे हाथ से पेड़ों वाला दौना. उसने चुपचाप अपना घोड़ा मोड़ा और बैलगाड़ी जाने की विपरीत दिशा में उसे सरपट दौड़ा दिया.
(ये हादसा आज से करीब 75 साल पहले मेरी बड़ी नानी अर्थात मेरी माँ की बड़ी मौसी के साथ हुआ था. माँ के नाना एटा जिले के बरमाना गाँव के ज़मींदार थे .अपने मायके से अपनी ससुराल जाते समय बड़ी नानी अपने बुढ़ापे में भी घूंघट काढ़ के जाती थीं इसकी वजह से उपजी ग़लतफ़हमी की कीमत उस बेचारे बांके नौजवान को चुकानी पड़ी थी.)

12 टिप्‍पणियां:

  1. इसी लिये कहा गया है कुछ नये पै नया लिखो कुछ मिलेगा । जय जय ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी कलम को तुम मित्रों को प्यार मिलता रहे, बस, मुझे और कुछ नहीं चाहिए.

      हटाएं
  2. रोचक । सच्ची घटना जान कर और मज़ा आया ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. संगीता जी घटना तो वाक़ई सच्ची है. इस घूंघट प्रथा ने जाने कितने बांके नौजवानों का दिल ऐसे ही तोडा होगा.

      हटाएं
  3. मजेदार किस्सा। पर लेखन शैली ऐसी हो तो ज्यादा मजा आता है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी लेखन शैली की प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. मीना जी.

      हटाएं
  4. बहुत ही मजेदार संस्मरण ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुधा जी.

      हटाएं