शनिवार, 8 दिसंबर 2018

गुरुवे नमः


गुरुवे नमः -


यह किस्सा मुझे मेरे मौसाजी, स्वर्गीय प्रोफ़ेसर बंगालीमल टोंक, जो कि आगरा कॉलेज में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे, उन्होंने सुनाया था.

नेहरु जी की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री आवास, 'तीन मूर्ति' को नेहरु पुस्तकालय और संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया था (सरकारी भवन का दुरूपयोग).
सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में यह भारत का सर्वश्रेष्ठ पुस्तकालय कहा जा सकता है.

प्रोफ़ेसर टोंक एक रिसर्च-प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे और इस सिलसिले में उन्हें शोध-सामग्री एकत्र करने के लिए तीन मूर्ति पुस्तकालय के चक्कर लगाने पड़ते थे.

प्रोफ़ेसर टोंक को पुस्तकालय में आते-जाते और रीडिंग रूम में अक्सर एक सज्जन दिखाई देते थे – गोरा रंग, चेहरे पर सफ़ेद, छोटी सी दाढ़ी,  सर पर एक विशिष्ट प्रकार की टोपी, शेरवानी, चूड़ीदार पजामा पहने और आँखों पर काला चश्मा लगाए वह सज्जन, उन्हें एक देवदूत से दिखाई देते थे. प्रोफ़ेसर टोंक अपने काम में इतने व्यस्त रहते थे कि उन सज्जन से कई बार आमना-सामना होने के बाद भी उनका आपस में परिचय नहीं हुआ था.

एक दिन अपना कार्य समाप्त करके प्रोफ़ेसर टोंक चाय पीने के लिए कैंटीन जा रहे थे कि वह सज्जन उन्हें रास्ते में मिल गए. बिना आपसी परिचय के दोनों में बातचीत शुरू हो गयी. प्रोफ़ेसर टोंक को बात करते समय लग रहा था कि इन सज्जन को मैंने तीन मूर्ति लाइब्रेरी के अलावा भी कहीं देखा है, लेकिन कहाँ, यह उन्हें याद नहीं आ रहा था. खैर, उन सज्जन ने प्रोफ़ेसर टोंक से उनका परिचय प्राप्त किया. प्रोफ़ेसर टोंक ने संकोच करते हुए उन सज्जन से उनका परिचय प्राप्त नहीं किया.
वह सज्जन मुस्कुरा कर प्रोफ़ेसर टोंक की इस गफ़लत का कुछ देर तक मज़ा लेते रहे फिर उन्होंने कहा -
'मैं अपना तार्रुफ़ भी आपको करा दूं. मुझे ज़ाकिर हुसेन कहते हैं.'


यह सुनकर प्रोफ़ेसर टोंक को अपने पैरों के नीचे की ज़मीन सरकती हुई दिखाई दी. उन्होंने हाथ जोड़कर ज़ाकिर हुसेन साहब से कहा -
'मेरी जहालत के लिए मुझे माफ़ कीजिएगा डॉक्टर साहब, मैं आपको पहचान नहीं पाया था. मुझे लग रहा था कि मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है पर मैं उसे लोकेट नहीं कर पा रहा था.'

उप-राष्ट्रपति जी ने प्यार से उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा -
मैं भी तो आपके जैसे स्कॉलर को आज से पहले नहीं जानता था, लेकिन मैं तो इसके लिए आपसे माफ़ी नहीं मांग रहा हूँ.'
अपने उप-राष्ट्रपति काल के दौरान डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन तीन मूर्ति पुस्तकालय में आकर अक्सर ऐसे ही प्रोफ़ेसरान से अपनी तरफ़ से दोस्ती करते थे और अपनी तरफ़ से उनके शोध-कार्य के लिए कुछ टिप्स भी दे दिया करते थे.
नेहरु पुस्तकालय में बनाए गए अपने नए दोस्तों को वो एक बार अपने बंगले पर जलपान के लिए ज़रूर बुलाते थे. प्रोफ़ेसर टोंक को भी यह सु-अवसर प्राप्त हुआ था.
राष्ट्रपति के रूप में भी डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन अपनी व्यस्तता के बावजूद विद्वानों से हमेशा बहुत प्यार और ख़ुलूस से मिलते रहे.

इस प्रसंग के बाद मुझे तीन मूर्ति पुस्तकालय का 1987 का, अपना खुद का, एक वाक़या याद आ रहा है.
उन दिनों मैं भी शोध-कार्य के सिलसिले में अक्सर तीन मूर्ति पुस्तकालय जाया करता था.
एक बार मैं अपने जैसे ही शोध-कार्य हेतु तीन मूर्ति पुस्तकालय की खाक छानने वाले तीन मित्रों के साथ वहां से बाहर निकल ही रहा था कि ज़ोर-ज़ोर से साइरन बजने की आवाज़ आई. हम चारों जब तक कुछ समझें, एक स्टेनगन-धारी जवान दौड़ता हुआ और चिल्लाता हुआ हमारी तरफ़ आया और उसने सड़क के किनारे पीठ करके हम सबको अपने-अपने हाथ पीछे बाँध कर खड़े होने का हुक्म दे दिया.
कुछ देर बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी का, पचास गाड़ियों का काफ़िला गुज़रा और तब कहीं जाकर हम सबको इस अपमानजनक सज़ा से छुटकारा मिला.

इस अपमानजनक और कष्टदायक स्थिति में खड़ा-खड़ा मैं, न जाने क्यों, मन ही मन तस्मै श्री गुरुवे नमः का जाप कर रहा था और इसके साथ-साथ यह भी सोच रहा था कि काश हम चारों गुरुजन भी डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन जैसी किसी महान विभूति के समकालीन होते तो मुदर्रिसी करते हुए हमको भी ज़िन्दगी में किसी महान हस्ती के साथ जलपान करने का मौक़ा मिलता, थोड़ी-बहुत इज्ज़त भी मिलती और बिना कुसूर हाथ बाँध कर, सबकी तरफ़ पीठ करके, यूँ अपराधियों की तरह, दंड भी नहीं भुगतना पड़ता. 

15 टिप्‍पणियां:

  1. आज कहाँ जरूरत है जमीनी लोगों की। अगर आप आसमान में उड़ते नजर नहीं आते हैं तो आपकी कोई औकात नहीं है। नमन डा0 जाकिर हुसैन जैसी सभी शख्सियतों को।

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    1. सही बात है सुशील बाबू ! हम जैसे लोग तो ज़मीनी भी नहीं हैं, बल्कि हम तो अपने धड़ तक ज़मीन में धंसा दिए गए हैं ताकि आक़ा का जब मन करे हमारी बिरयानी बनवा कर जलपान कर सके.
      अब ज़ाकिर हुसेन साहब जैसे लोगों की तो बस तस्वीरें बाक़ी हैं. लेकिन ये तस्वीरें दीवालों पर कम और हमारे दिलों में ज़्यादा हैं.

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  2. सर, बहुत भाग्यशाली है आप जो ऐसे महान व्यक्तित्व के विनम्रता के गवाह रहे हैं..वरना सर हम जैसे लोग तो सदा महान जनप्रतिनिधियों के काफ़िले के गुजरने पर तमाशबीन अपराधी जैसे ही अनुभव पा सके हैं।
    सादर आभार सर एक और बहुत सारगर्भित सार्थक संस्मरण साझा करने के लिए।

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    1. हमारे पहले तीन राष्ट्रपति निर्विवाद रूप से विद्वान थे और उन्हें जनता का भरपूर प्यार तथा सम्मान मिला था. वी. वी. गिरि के ज़माने से फिर वो बात नहीं रही और कई महामहिम तो ऐसे थे कि --- .

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  3. ऐसी बातें सपनों की या परिकथाओं जैसी लगती हैं । बहुत बहुत आभार इतना सुन्दर संस्मरण साझा करने के लिए ।

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  4. धन्यवाद मीना जी.
    डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन वाला प्रसंग तो वाक़ई परी-कथा जैसा था लेकिन हमारा हाथ बाँध कर सबकी तरफ़ पीठ कर के खड़ा होना तो ज़मीनी हक़ीक़त था.
    अब चूंकि किसी महामहिम ने हमको जलपान नहीं कराया, इसलिए उसका खामियाज़ा आप भरिए और हमको कभी जलपान पर बुलाइए.

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  5. जी...., जरूर यह मेरी लिए सौभाग्य की बात होगी🙏🙏:-)


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  6. सभी की स्थिति आप जैसी है. आदरणीय टोंक साहब जैसी किस्मत अब आम जनता को नसीब नहीं.दो विचारधारा को दो युग की तरह प्रस्तुत करती रोचक प्रसंग.

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    1. धन्यवाद राही जी. पुराने ज़माने में पढ़े-लिखों की क़द्र नेता लोग भी करते थे और आज तो हमारी-आपकी तुलना में उन्हें चोर-बटमार, गुंडे और लफंगे अज़ीज़ हैं.

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  7. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 12 दिसंबर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!



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    1. मेरे आलेख को 'पांच लिंकों का आननद' में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद पम्मी जी. इधर परदेस से बच्चे आए हैं इसलिए कुछ व्यस्तता है. आज समय मिला है तो इस अंक को पढ़ने का आनंद उठाऊंगा.

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  8. बहुत ही आलोकिक संस्मरण है कुछ अचम्भित करने वाला।
    कुछ लोग कुछ घटाऐं अद्भुत सी अपनी छाप छोड़ जाते हैंं। क्या दिन थे वे जब विद्वानों में नम्रता होती थी फल से लदे पेड़ों सी जो सम्मान करते थे विद्वानों का और उसी ऐवेज में इतना सम्मान पाते जो पीढ़ीयों तक अपनी सुखद छवि छोड़ जाते थे ।
    और सर आपके लिखने का तरीका ऐसा है जैसे सारा घटना कर्म आंखों से होकर गुजर रहा है।
    नमन उन आस्था के आयाम लोगों को नमन आपकी लेखनी को ।

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    1. कुसुम जी तब के और अब के नेताओं में इतना फ़र्क है कि हमको लगता ही नहीं कि आज के नेता उन्हीं विभूतियों के उत्तराधिकारी हैं.
      'बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल'
      ये उन्हीं संतों की नालायक संतानें हैं.
      आप साहित्य रसिकों को मेरे संस्मरण अगर अच्छे लगते हैं तो फिर सत्तासीन इन दुष्टों के लाख अत्याचार भी मुझे बर्दाश्त हैं.

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  9. इस संस्मरण को शेयर करने के लिये आभार

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    1. धन्यवाद अटूट बंधन. यह सिर्फ़ मेरी आप-बीती नहीं है. हज़ारों-लाखों आम नागरिक सत्तासीन घमंडियों के ऐसे अत्याचारों का रोज़ ही सामना करते हैं. कुछ इसे चुप रह कर सहन करते हैं और हम जैसे कुछ मुखर इसे शोर मचाकर सहन करते हैं.

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