सोमवार, 28 अक्टूबर 2019

मजबूरियां - 2

कुछ तो मजबूरियां रही होंगी,
यूँ कोई बेवफ़ा, नहीं होता.
बशीर बद्र 
कुर्सी बिन सब सून - 
दांव पर कुर्सियां, लगी होंगी,
यूँ कोई, बात से नहीं फिरता.    

6 टिप्‍पणियां:

  1. सब कुछ उतार कर दौड़ने लगे कोई सड़क पर
    फिर कहाँ रह जाती हैं मजबूरियाँ पहानने की?

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  2. नंगे भी कुछ उसूल,बिछाते हैं, ओढ़ते,
    लेकिन इन्होने उनको, तड़ीपार, कर दिया.


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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-10-2019) को     "भइया-दोयज पर्व"  (चर्चा अंक- 3503)   पर भी होगी। 
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    -- 
    दीपावली के पंच पर्वों की शृंखला में गोवर्धनपूजा की
    हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।  
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. मेरी रचना 'मजबूरियाँ - 1' को 'भइया दोयज पर्व' (चर्चा अंक - 3503) में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.
    पंच-दिवसीय दीपोत्सव की आपको भी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ !

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  5. सही है गोपेश जी।
    चुनाव से पहले जिसके विरुद्ध प्रचार कर रहे थे नतीजों के बाद उसी विपक्ष के खैमे में जा बैठ गये।
    लाजवाब तंज।
    आपका नई रचना पर स्वागत है 👉👉 कविता 

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    1. धन्यवाद रोहितास घोरेला जी.
      इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा !
      लड़ते थे जिस से रोज़, भगत उसके बन गए !

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