आज राष्ट्रकवि
श्री मैथिलीशरण गुप्त की जयंती है. राष्ट्रकवि की पिछली एक जयंती पर मैंने 'गुरु
और शिष्य'पर मैंने ‘गुरु और शिष्य शीर्षक’ से एक आलेख लिखा था जिसमें श्री गुप्त पर
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रभाव की चर्चा की गयी थी. आज मैं श्री गुप्त
के काव्य पर दो अन्य विभूतियों के प्रभाव की चर्चा कर रहा हूँ.
आचार्य द्विवेदी
की प्रेरणा से गुप्तजी ने ‘साकेत’ के अतिरिक्त अपनी अन्य रचनाओं में भी उपेक्षित नारी पात्रों को नायिका के
रूप में प्रतिष्ठित किया. उन्होंने गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा को- ‘यशोधरा’ में और चैतन्य महा प्रभु की पत्नी विष्णु
प्रिया को- ‘विष्णुप्रिया’ में नायिका
बनाया. गुप्तजी ने गुरुदेव टैगोर की भांति स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे के बराबर
और एक-दूसरे का पूरक माना. 1892 में प्रकाशित, गुरुदेव की
नृत्य नाटिका ‘चित्रांगदा’ की नायिका
अपने प्रेमी अर्जुन की न तो आराध्या बनना चाहती है, न उसकी दासी. वह तो उसकी सहचरी और सहयोगिनी बनना चाहती है. यह स्वर जिसका है, वह पौराणिक नारी नहीं, सम्पूर्ण रूप से आधुनिका नारी है.-
आमि चित्रांगदा.
नहिं आमि
सामान्य रमणी,
पूजा करि राखिबे
माथाय, से-ओ आमि,
नइ. अवहेला करि
पुशिया राखिबे,
पिछे से-ओ आमि
नहिं, यदि पार्श्वे राखो,
मोरे संकटेर पथे, दुरूह चिन्तार,
यदि अंश दाओ, यदि अनुमति करो,
कठिन व्रतेर तब
सहाय हईते,
यदि सुखे दुखे
मोरे करो सहचरी,
आमार पाइबे तबे
परिचय
(मैं देवी नहीं
हूँ, सामान्य नारी भी नहीं हूँ – मैं तो चित्रांगदा हूँ.
मैं ऐसी नहीं हूँ जिसको तुम पूज्यनीय बनाये रख सको और न ऐसी हूँ जिसकी तुम अवहेलना
कर सको. यदि तुम संकट के मार्ग पर मुझे अपना साथी बनाओ, यदि
दुरूह चिंता का कुछ भाग मुझे भी वहां करने दो, यदि अपने कठिन
व्रत में सहायता पहुँचाने के लिए मुझे अनुमति दो, यदि तुम
अपने सुख-दुःख की मुझे सहचरी बनाओ, तभी तुम मेरा पूर्ण परिचय
पा सकोगे.)
‘साकेत’
में लक्ष्मण अपनी प्रियतमा उर्मिला के प्रति प्रेम-प्रदर्शन में
आत्म-सम्मान को भुलाकर कहते हैं –
‘धन्य
है प्यारी तुम्हारी योग्यता,
मोहनी सी मूर्ति, मंजु-मनोज्ञता.
धन्य जो इस
योग्यता के पास हूँ,
किन्तु मैं भी
तो, तुम्हारा दास हूँ.’
उर्मिला उनकी
चाटुकारिता भरे उदगार सुनकर प्रसन्न होने के स्थान पर खिन्न हो जाती है. पति और
पत्नी को एक-दूसरे का पूरक मानने वाली उर्मिला को लक्ष्मण के इन वचनों में दासत्व
की भावना परिलक्षित होती है. अर्जुन की प्रिया चित्रांगदा की ही भांति उर्मिला भी
लक्ष्मण की स्वामिनी नहीं अपितु उनकी मित्र, समकक्ष, सहचरी और
सहगामिनी बनना चाहती है –
‘दास
कहने का बहाना किस लिए?
क्या मुझे दासी
कहाने के लिए?
देव होकर तुम
सदा मेरे रहो,
और देवी ही मुझे
रक्खो अहो.’
‘यशोधरा’
खंड-काव्य में भी ‘यशोधरा’ को गुप्तजी एक ऐसी साहसी स्त्री के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो अपने पति
के मार्ग में बाधक नहीं अपितु उनकी सहायक बनना चाहती है. अपनी पत्नी यशोधरा और
अपने परिवार के अन्य सदस्यों को बिना बताये हुए, राजकुमार
सिद्धार्थ जब गृह-त्याग कर देते हैं तो यशोधरा के मन में अपने पति से सदा के लिए
बिछुड़ने से भी बड़ी कसक यह है कि उसके पति ने वैराग्य लेने की अपनी योजना उससे
छुपाई. अगर वो उसे अपनी इच्छा और अपना संकल्प बताते तो वह उनके धर्म-मार्ग में
बाधक नहीं बनती अपितु उन्हें वह वैसे ही विदा देती जैसे कि एक वीर क्षत्राणी अपने
पति को रण-क्षेत्र में जाने के लिए विदा करती है –
‘सखि,
वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी
पथ-बाधा ही पाते?
स्वयं सुसज्जित
करके क्षण में,
प्रियतम को
प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती
हैं रण में,
क्षात्र धर्म के
नाते,
सखि, वे मुझसे कहकर जाते.’
बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि गुप्तजी ने उर्दू-साहित्य से
भी काव्य-सृजन की प्रेरणा ली थी. उन्होंने दत्तात्रेय कैफ़ी की उर्दू रचनाओं से
प्रेरणा लेने की बात स्वीकार की है परन्तु इस क्षेत्र में हम अल्ताफ़ हुसेन हाली को
तो एक प्रकार से उनका गुरु कह सकते हैं. उर्दू के पहले प्रगतिशील शायर हाली ने
जहाँ एक ओर कौमी इत्तिहाद (सांप्रदायिक सद्भाव) को महत्त्व दिया वहीं दूसरी ओर
उन्होंने भारत के आर्थिक उत्थान के लिए भारतीय उद्योग और वाणिज्य को आधुनिक तकनीक
पर विकसित करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया था. 1874 में प्रकाशित अपनी नज़्म ‘हुब्बे वतन’ में उन्होंने भारतीय मुसलमानों और हिन्दुओं को इस बात के लिए फटकार लगाई
कि वे अब भी मिथ्या अभिमान और जातीय गौरव की शान बघारने से बाज़ नहीं आ रहे हैं और
इस बात को अनदेखा कर रहे हैं कि वो गुलामी और गरीबी में अपनी ज़िल्लत के दिन गुजार
रहे हैं-
“इज्ज़तो-कौम चाहते हो अगर, जाके फैलाओ उनमें इल्मो-हुनर,
जात का फख्र और
नसल का गुरूर,
उठ गए जहां से ये दस्तूर.
अब न सैयद का
इफ्तखार (गौरव) सही, अब न बिरहमन का शूद्र पर तरजीह (वरीयता),
हुई तर्की
(परित्याग) तमाम खानों की, कट गयी जड़ से खानदानों की.
कौम की इज्ज़त अब
हुनर से है,
इल्म से या कि सीमो-ज़र (सोना-चांदी) से है,
एक दिन में वो
दौर आयेगा,
बे-हुनर भीख तक न पायेगा.”
हाली ने अपने
महाकाव्य ‘मुसद्दसे
हाली’ में इस्लाम के गौरव शाली इतिहास का गुणगान करते हुए वर्तमान
काल में भारतीय मुसलमानों की दुर्दशा का चित्रण किया था और उन्हें अपना वर्त्तमान
व अपना भविष्य संवारने के लिए कर्मठता, अध्यवसाय, सहिष्णुता, प्रगतिशीलता और व्यावहारिकता अपनाने का
सन्देश दिया था. काला कांकर के राजा रामपाल सिंह और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
ने गुप्तजी को प्रेरित किया कि वो हाली का अनुकरण कर आर्यों व हिन्दुओं के
पुनरुत्थान हेतु कोई काव्य-रचना करें. गुप्तजी ने 1911 में ‘भारत
भारती’ की रचना की. गुप्तजी के इस खंड काव्य पर भारतेंदु
हरिश्चंद्र के काव्य नाटक ‘भारत दुर्दशा’ का भी प्रभाव पड़ा है किन्तु उन्होंने ‘भारत भारती’
की भूमिका में हाली के ‘मुसद्दसे हाली’
का प्रभाव अवश्य स्वीकार किया है.
आर्यों के गौरव
शाली अतीत का गुणगान करना अब व्यर्थ था, अब तो अपना वर्तमान और भविष्य सुधारने के
लिए अनथक प्रयास करने की आवश्यकता थी. ‘भारत भारती’ के ‘वर्तमान खंड’ में भारतीयों
की चारित्रिक दुर्बलता पर खिन्नता प्रकट करते हुए गुप्तजी कहते हैं -
‘मन में नहीं बल है हमारे, तेज में चेष्टा नहीं,
उद्योग में साहस नहीं, अपमान में न घृणा कहीं.
दासत्व में न यहाँ अरुचि है, प्रेम में प्रियता नहीं,
हो अंत में आशा कहाँ? कर्तव्य में क्रियता नहीं.’
जैसे हाली ने मुसलमानों को कर्मठता का सन्देश दिया है वैसे
ही गुप्तजी हिन्दुओं को कर्मठता का सन्देश देते हुए और उन्हें सचेत करते हुए कहते
हैं कि यदि वह अपने आलस्य और दासत्व की भाव का परित्याग नहीं करेंगे तो हिन्दू
जाति इतिहास में शाश्वत रूप से निंदा और उपहास का पात्र बन जाएगी -
‘ऐसा
करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो,
जर्जर तुम्हारी
जाति का, बेड़ा विपद से पार हो।
ऐसा न हो जो
अन्त में, चर्चा करें ऐसी सभी,
थी एक हिन्दू
नाम की भी, निन्द्य जाति यहाँ कभी।।‘
हाली की दो
नज्मों - ‘मुनाजात-ए-बेवा’
और ‘चुप की दाद’ में
स्त्रियों के त्याग, उनकी ममता, उनमें
करुणा का भाव, उनकी सहन शक्ति, उनकी
कर्मठता, बुद्धिमत्ता आदि की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है.
हाली के उपन्यास- ‘मजालिस-उन-निसां’ में
स्त्री-शिक्षा की पुरज़ोर वकालत की गयी है. अपनी नज़्म- ‘‘चुप
की दाद’ में हाली स्त्रियों के गुणों का बखान करते हुए कहते
हैं –
‘ऐ
माँओ! बहनों! बेटियों! दुनिया की जीनत (शोभा) तुम से है,
मुल्कों की
बस्ती हो तुम्हीं, कौमों की इज्ज़त तुम से है.
नेकी की तुम
तस्वीर हो, इफ्फत (पवित्रता) की तुम तदबीर (व्यवस्था) हो,
हो दीन की तुम
पासबाँ (संरक्षक) , ईमां की सलावत (उच्चारण) तुम से है
फितरत तुम्हारी
है हया (लज्जा), तीनत (प्रकृति) में है मेहरो-वफ़ा (प्रेम और प्रतिज्ञा पालन),
घुट्टी में है
सब्रो-रज़ा (धैर्य और आशा), इंसान की इबारत (हस्तलिपि) तुम से है..’
हाली की ही
भांति गुप्तजी भी स्त्री-शिक्षा के प्रसार-प्रचार को न केवल स्त्रियों के उत्थान
के लिए अपितु देश व समाज के कल्याण के लिए भी आवश्यक मानते हैं. हाली की ही तरह
गुप्तजी भी भारतीय नारी के सदगुणों के प्रशंसक हैं. उनको शिक्षित भारतीय नारी की
क्षमता पर अटूट विश्वास है -
‘क्या
कर नहीं सकतीं भला यदि शिक्षिता हों नारियाँ,
रण, रंग, राज्य, सुधर्म-रक्षा, कर चुकीं सुकुमारियाँ।
लक्ष्मी, अहल्या, बायजाबाई, भवानी, पद्मिनी,
ऐसी अनेकों
देवियां हैं, आज जा सकती गिनीं।
सोचो नरों से
नारियां, किस बात में हैं कम हुईं,
मध्यस्थ वे
शास्त्रार्थ में हैं, भारती के सम हुईं।।‘
स्त्री की पुरुष
पर श्रेष्ठता गुप्तजी के इन शब्दों में भी व्यक्त होती है -
‘एक
नहीं, दो-दो मात्राएँ, नर से भारी
नारी.’
गुप्तजी
प्रत्येक गुणवान व्यक्ति से उत्तम विद्या सीखने के लिए सदैव तत्पर रहते थे.
भारतेंदु हरिश्चंद्र, अल्ताफ़ हुसेन हाली, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
और रबीन्द्रनाथ टैगोर को हम उनके गुरु जन में सम्मिलित कर सकते हैं. इन आदर्श गुरु
जन के वह आदर्श शिष्य थे. देशोद्धार, स्वदेश प्रेम, नारी-उत्थान, राजनीतिक, आर्थिक,
सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वदेशी, राष्ट्र-भाषा
हिंदी का का देश-व्यापी प्रचार तथा उसका सर्वतोमुखी विकास, हिन्दू-पुनरुत्थान,
किसानों और दलितों के उत्थान हेतु प्रयास तथा उनके प्रति मानवीय
दृष्टिकोण रखना आदि उन्होंने अपने अग्रजों से सीखा और फिर उन्होंने आजीवन
सोद्देश्य साहित्य का सृजन किया. अपने अग्रजों की इस समृद्ध परंपरा को उन्होंने
सफलतापूर्वक आगे बढ़ाते हुए आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य विरासत छोडी है.