अपनी 20 साल पुरानी कविता – ‘उत्तराखंड की लोरी’ को नए सांचे में ढालने की एक गुस्ताख़ कोशिश -
चुनाव परिणाम से पूर्व का मातृ-पुत्र संवाद –
बेटे का प्रश्न -
शपथ-ग्रहण के बाद बता मां ! क्या अच्छे दिन आएँगे?
या पंजे की अनुकम्पा से, कष्ट सभी मिट जाएंगे?
गठबंधन के नेता क्या, भारत को स्वर्ग बनाएँगे?
सेहरा में भी फूल खिलेंगे, वन-उपवन मुस्काएंगे?
चुनाव परिणाम से पूर्व का मातृ-पुत्र संवाद –
बेटे का प्रश्न -
शपथ-ग्रहण के बाद बता मां ! क्या अच्छे दिन आएँगे?
या पंजे की अनुकम्पा से, कष्ट सभी मिट जाएंगे?
गठबंधन के नेता क्या, भारत को स्वर्ग बनाएँगे?
सेहरा में भी फूल खिलेंगे, वन-उपवन मुस्काएंगे?
बंधुआ सब मज़दूर कभी क्या, खुली सांस ले पाएंगे?
क्या गरीब के बच्चे भी अब, स्कूलों में जाएंगे?
रोटी, कपड़ा, कुटिया का क्या, सब आनंद उठाएंगे?
अपनी मेहनत का मीठा फल, क्या हम ख़ुद खा पाएंगे?
क्या गरीब के बच्चे भी अब, स्कूलों में जाएंगे?
रोटी, कपड़ा, कुटिया का क्या, सब आनंद उठाएंगे?
अपनी मेहनत का मीठा फल, क्या हम ख़ुद खा पाएंगे?
माँ का उत्तर -
अरे भेड़ के पुत्र, भेड़ियों से क्यों, आशा करता है?
दिवा स्वप्न में मग्न भले रह, पर सच से क्यों डरता है?
कोई नृप हो, हम सा तो, आजीवन पानी भरता है,
श्रम-कण नित्य बहाने वाला, तिल-तिल कर ही मरता है.
अरे भेड़ के पुत्र, भेड़ियों से क्यों, आशा करता है?
दिवा स्वप्न में मग्न भले रह, पर सच से क्यों डरता है?
कोई नृप हो, हम सा तो, आजीवन पानी भरता है,
श्रम-कण नित्य बहाने वाला, तिल-तिल कर ही मरता है.
चाहे जिसको रक्षक चुन लें, वह भक्षक बन जाएगा,
मजलूमों का खून चूस कर, अपनी प्यास बुझाएगा.
वन-उपवन श्मशान हो गए, कुसुम कहां खिल पाएगा?
हम सी लावारिस लाशों का, कफ़न नहीं सिल पाएगा.
मजलूमों का खून चूस कर, अपनी प्यास बुझाएगा.
वन-उपवन श्मशान हो गए, कुसुम कहां खिल पाएगा?
हम सी लावारिस लाशों का, कफ़न नहीं सिल पाएगा.
रात हो गयी, मेहनतकश सब, अपने घर जाते होंगे,
जल से चुपड़ी बासी रोटी, भाग्य समझ, खाते होंगे.
हम भी सोएं, ना जाने कब, ये दुर्दिन, जाते होंगे,
भैंसे पर आरूढ़ देवता, न्योता ले, आते होंगे.
जल से चुपड़ी बासी रोटी, भाग्य समझ, खाते होंगे.
हम भी सोएं, ना जाने कब, ये दुर्दिन, जाते होंगे,
भैंसे पर आरूढ़ देवता, न्योता ले, आते होंगे.
वाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील बाबू.
हटाएंतुम बेटे जैसे आशावादी हो या उसकी माँ के जैसे निराशावादी?
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-04-2019) को "भाषण हैं घनघोर" (चर्चा अंक-3299) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'भाषण है घनघोर' (चर्चा अंक- 3299) मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रूचंद्र शास्त्री 'मयंक' जी.
हटाएंवाह !बहुत सुन्दर आदरणीय 👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनीता जी.
जवाब देंहटाएं'राजनीति का कुत्सित वर्णन, बता लगा क्यों तुझको सुन्दर?'
भैंसे पर आरूड़ देवता ...
जवाब देंहटाएंवाह क्या गज़ब का लिंक जोड़ा है नेताओं और भैंसे के देवता पर ... गज़ब की अभिव्यक्ति चाहे कडवी हो क्यों न हो पर सचाई है ... और कमाल देखिये ये सचाई इस देश की किस्मत बन गई लगती है अब ...
देखें "वो सुबह कभी तो आएगी ..."
धन्यवाद दिगंबर नसवा जी. वो सुबह ज़रूर आएगी लेकिन -
जवाब देंहटाएंउस सुबह का हमको इंतज़ार, सदियो-सदियों करना होगा,
तब तक कुर्सी पर बैठों का, हुक्का-पानी भरना होगा.
बहुत खूब सर। आम जनमानस कुछ ऐसा ही सोचता है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वीरेन्द सिंह जी. जन-मानस ऐसा सोच-सोच कर रह जाता है किन्तु ठग-समूह को अपने काले कारनामों को अंजाम देने से वह कभी रोक नहीं पाता है.
जवाब देंहटाएंसजीव प्रभावी चित्रण ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सतीश सक्सेना जी. इन नेता रूपी चिकने घड़ों पर किसी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है.
हटाएंवाह! और सिर्फ वाह!!!
जवाब देंहटाएंमित्र ! धन्यवाद भी और आशीर्वाद भी !
हटाएंआदरणीय गोपेश जी -- आपी ये रचना पहले भी पढ़ी थी अब भी पढ़ी | माँ बेटे के संवाद के माध्यम से आपने जो कहा सराहना से परे है | कितनी सरकारें बदल जाएँ पर मुझे नहीं लगता फूटपाथ पर पीढ़ियों से जीवनयापन करने वाले अथवा सड़कें , पुल और कंक्रीट की बहुमंजिला इमारतें बनाने वाले लोगों को पेट भर खाना और एक अदद छत नसीब होगी और बेफिक्री का जीवन शायद उनका नसीब ही नहीं नहीं है | सादर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रेणु जी. मैंने उत्तराखंड पर लिखी अपनी पुरानी कविता को ही नए सन्दर्भ में नई शक्ल देने की कोशिश की है.
जवाब देंहटाएंभोले-भाले, गरीब, अर्ध-शिक्षित अथवा अशिक्षित भारतीयों की बात तो जाने दीजिए, हम जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी भी इन राजनीतिक बहेलियों के वाग्जाल में फंस जाते हैं.
मिलनी तो हम सबको ठोकरें ही हैं.