शनिवार, 27 अप्रैल 2019

नेहरु जी की बिटिया और हमारी माँ


नेहरु जी की बिटिया और हमारी माँ -

हमारे घर में इंदिरा गाँधी की पहली पहचान नेहरु जी की बिटिया के रूप में थी. हमारी माँ तो इंदिरा गाँधी की ज़बर्दस्त प्रशंसिका थीं. अख़बारों या पत्रिकाओं में इंदिरा गाँधी की फ़ोटो आती थी तो माँ का एक ही कमेंट होता था –
हाय ! कितनी सुन्दर है !
इंदिरा गाँधी उम्र में माँ से तीन साल से भी ज़्यादा बड़ी थीं लेकिन माँ उन्हें एक  अर्से तक लड़की ही माना करती थीं. इंदिरा गाँधी की प्रशंसिकाओं में माँ से भी ऊंची पायदान पर हमारी नानी विराजमान थीं. उन्हें जब भी इंदिरा गाँधी की कोई फ़ोटो दिखाई जाती थी तो वो ठेठ ब्रज भाषा में कहती थीं –
जे तो बापऊ ते जादा मलूक ऐ !’ (यह तो बाप से भी ज़्यादा सुन्दर है)

फ़ीरोज़ गाँधी बड़े ख़ूबसूरत थे लेकिन नेहरु जी की ही तरह माँ को वो इंदिरा गाँधी के लायक़ नहीं लगते थे. माँ के हिसाब से इंदिरा-फ़ीरोज़ तनाव का मुख्य कारण उनका बेमेल विवाह ही था. एक बड़ी मज़ेदार बात बताऊँ –
माँ को इंदिरा गाँधी और केनेडी की जोड़ी बड़ी प्यारी लगती थी. हमारे घर में अमेरिकन मैगज़ीन स्पैन आया करती थी. उसमें नेहरु जी और इंदिरा गाँधी की अमेरिका यात्रा के समय की तमाम फ़ोटोज़ केनेडी परिवार के साथ आई थीं. माँ ने उन फ़ोटोज़ को देख कर कहा था –
ये मरी जैकलीन केनेडी मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती. जोड़ी तो केनेडी और इंदिरा की अच्छी लगती है. अगर इंदिरा को अपनी बिरादरी से बाहर ही शादी करनी थी तो फिर केनेडी से ही कर लेती.

प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की कैबिनेट में इंदिरा गाँधी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाई गईं. 1965 के भारत-पाक युद्ध में अपने साहस का परिचय देते हुए वो सीमा पर जवानों का साहस बढ़ाने के लिए चली गईं. माँ ने अटल जी से बहुत पहले इंदिरा गाँधी के इस साहस के कारण उन्हें दुर्गा का अवतार मान लिया था.
भारत-पाक युद्ध के समय इंदिरा गाँधी ने अधिक सब्ज़ी-फल, अन्न आदि उगाने के लिए हम भारतीयों को एक अनोखा सुझाव दिया था –
आप लोग अपने घरों में फूल की जगह फूल गोभी लगाएं.’
इस सन्देश पर अमल करते हुए माँ ने घर में गुलाब की क्यारियों में गुलाब हटाकर फूल गोभी के पौधे लगवा दिए थे.
लाल बहादुर शास्त्री का आकस्मिक निधन हमारे परिवार में भी व्यक्तिगत त्रासदी के रूप में देखा गया था. माँ का दुःख तब और भी बढ़ गया था जब उन्हें पता चला कि वो चौदह कैरेट का सोना चलवाने वाला खलनायक मुरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में है. लेकिन जब उनसे लगभग 22 साल छोटी इंदिरा गाँधी ने उन्हें प्रधानमंत्री की दौड़ में पटखनी दी तो माँ की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. शास्त्री जी की मृत्यु के बाद पहली बार उसी दिन हमारे यहाँ पकवान बनाए गए थे.
माँ को वी. वी. गिरि तबसे नापसंद थे जब वो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे. लेकिन 1969 में जब इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में उनका समर्थन किया तो वो भी उन्हें अच्छे लगने लगे थे. मुरारजी देसाई, सी. बी. गुप्ता आदि को इंदिरा गाँधी की खिलाफ़त करने के कारण उन्होंने खलनायकों की श्रेणी में डाल दिया था.
1971 के भारत-पाक युद्ध के समय तो हमारे घर में इंदिरा गाँधी की एक तरह से पूजा ही की जाने लगी थी. माँ की दृष्टि में बांगला देश का तो दुनिया में वजूद ही अकेले इंदिरा गाँधी के दम पर मुमकिन हो पाया था.
फिर पता नहीं क्या हुआ कि माँ की दुर्गा के खिलाफ़ फिर से साज़िशें शुरू हो गईं और उसमें सबसे बड़ा हाथ किसी सिर-फिरे जे. पी. का था. माँ के शब्दों में -
भला किसी चाचा को अपनी भतीजी के खिलाफ़ ऐसी ओछी हरक़त करनी चाहिए थी?’
1975 में जब इंदिरा गाँधी के खिलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया तो जस्टिस सिन्हा माँ की दृष्टि में प्राण जैसे खलनायक हो गए. फिर जब जून, 1975 में इमरजेंसी लगाई गयी तो माँ की दलील थी –
और क्या करती बेचारी?’

हम नौजवान माँ की इस बेचारी को जब उसकी हिटलरशाही के लिए कोसते थे तो माँ बाक़ायदा हम से खफ़ा हो जाती थीं. लेकिन एक बात अच्छी थी. हमारी ही तरह माँ को संजय गाँधी नापसंद था.
फिर इमरजेंसी ख़त्म हुई और मार्च, 1977 में चुनाव हुए. माँ को इंदिरा गाँधी की जीत पर पूरा यकीन था. उन दिनों हमारे यहाँ टीवी नहीं था. ताज़ा समाचार के लिए हम ट्रांजिस्टर पर ही निर्भर थे. सवेरे 5 बजे मैंने ट्रांजिस्टर पर समाचार लगाए. मुख्य समाचार था –
रायबरेली से इंदिरा गाँधी चुनाव हार गईं.
मैंने माँ-पिताजी के कमरे में जाकर उन्हें जगा कर यह समाचार सुनाया. माँ ने अविश्वास जताते हुए कहा –
चल झूठे ! खा मेरी क़सम !
मैंने कोई क़सम नहीं खाई बस ट्रांजिस्टर उनके सामने रख दिया. हिंदी समाचार चल रहे थे राजनारायण का जीवन परिचय चल रहा था और यह बताया जा रहा था कि विश्व इतिहास में एम. पी. का चुनाव हारने वाली पहली प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी हैं.
माँ का रुदन दो मील दूर से भी सुना जा सकता था. इस दारुण दुःख देने वाले समाचार को उन तक पहुँचाने वाला मैं गरीब, महा-पापी घोषित कर दिया गया था.
उस दिन हमारे घर में नाश्ता-खाना कुछ नहीं बना. बाज़ार से लाए हुए समोसों, कचौड़ी को माँ ने हाथ भी नहीं लगाया और मेरे लाए हुए लड्डुओं में से एक लड्डू तो उन्होंने मुझ पर यह कहते हुए तान के दे मारा –
दुष्ट ! अब तू इंदिरा गाँधी के हारने पर लड्डू बांटेगा?’

जनता पार्टी की सरकार की हर टूट-फूट पर माँ खुश होती रहीं और जनवरी, 1980 में इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी का समाचार माँ के लिए किसी जश्न से कम नहीं था.

संजय गाँधी को निहायत नापसंद करते हुए भी हमारी माँ उसकी मृत्यु पर शायद उतना ही रोई होंगी जितना कि इंदिरा गाँधी.
इंदिरा गाँधी की हत्या को तो माँ ने गाँधी जी की हत्या के बाद का सबसे दुखद समाचार माना था. रोते-रोते टीवी पर हर गतिविधि देखना और फिर आह भरते हुए कहना –
छाती ठंडी हो गयी दुश्मनों की. चली गयी देवी भगवान के घर !

माँ को देव-लोक गए हुए क़रीब 12 साल हो गए हैं. मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि देवलोक में मेरी माँ अपनी आराध्या के पड़ौस में ही कहीं रहें और नित्य उनके सानिंध्य का सुख प्राप्त करती रहें.

शनिवार, 20 अप्रैल 2019

राजनीतिक विकृति

जोश मलिहाबादी का एक शेर है -
सब्र की ताक़त जो कुछ दिल में है, खो देता हूँ मैं,
जब कोई हमदर्द मिलता है तो, रो देता हूँ मैं.
भारतीय लोकतंत्र के सन्दर्भ में मैंने इस शेर का पुनर्निर्माण कुछ इस तरह किया है -
सब्र की ताक़त जो कुछ दिल में है, खो देता हूँ मैं,
वो इसे जनतंत्र कहते हैं तो, रो देता हूँ मैं.
लेकिन बात मज़ाक़ की नहीं है. आज सवाल यह है कि हमारे देश की राजनीति - गटर-पॉलिटिक्स क्यों बन गयी है. आज राजनीतिक प्रदूषण हमारे औद्योगिक प्रदूषण से भी अधिक विषाक्त क्यों हो गया है? आज हम किसी भी राजनीतिज्ञ की बात पर भरोसा क्यों नहीं कर पाते हैं और किसी भी राजनीतिक दल के मैनिफ़ैस्टो को हम चुनावी-जुमला मानने के लिए क्यों विवश हैं?
आज समस्त विश्व के राजनीतिक पटल पर उच्च से उच्च राजनीतिक आदर्शों की अंत्येष्टि की जा रही है. मत्स्य-न्याय, 'सर्वाइवल ऑफ़ दि फ़िटेस्ट' समरथ को नहिं दोस गुसाईं' के सामने समाजवाद, साम्यवाद, लोक-तंत्र, 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' आदि के सिद्धांत फीके पड़ गए हैं.
समृद्ध पाश्चात्य देशो में भी लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा बेमानी होती जा रही है. उन देशों में कोई भूखा नहीं मरता लेकिन वहां भी गरीब हैं और दूसरे देशों के गरीबों को कम पैसे देकर दास-कार्य का दायित्व भी दिया जाता है. वहां भी अपराध माफ़िया का सियासत में दबदबा चलता है.
रूस, चीन ही क्या, सभी साम्यवादी देशों में साम्यवादी विचारधारा की धज्जियाँ उड़ चुकी हैं.
मुस्लिम देशों में मुस्लिम विश्व-बंधुत्व की अथवा समानता की भावना कब की तिरोहित हो चुकी है.
भारत भी शीघ्र ही लोकतंत्र की कब्रगाह बनने वाला है. धर्म निरपेक्षता की नीति तो पहले ही आंखरी साँसें ले चुकी है. नफ़रत की भीषण आग को सद्भाव के अंजुरी भर शीतल जल से बुझाया नहीं जा सकता.
बीजेपी तो कम से कम खुले आम दक्षिण-पंथी और अनुदारवादी दल है, तथाकथित उदारवादी, समाजवादी, बहुजन समाजवादी और प्रगतिशील दल भी अन्दर से खोखले हो चुके है.और उनका भी किसी सिद्धांत से लेना-देना नहीं है. वंशवाद सब दलों में है, बंदर-बाट सब जगह है, काला धन सब दल लेते हैं, सब दलों में प्रभावशाली अपराधियों का और विभीषणों का स्वागत होता है. राजनीति में स्त्रियों की सहभागिता मुख्य रूप से ग्लैमर बढ़ाने के लिए अथवा वंशवाद की परंपरा का निर्वाह करने के लिए होती है.
लोकतंत्र के इस विकृत वातावरण में हम आम लोग, द्रोपदी के समान बेबस होकर अपने सपनों का चीर हरण होते देखते हैं और हमारे सपनों की लाज बचाने के लिए कोई कान्हा भी कभी नहीं आता. भविष्य में राजनीति का और भी अधिक पतन होगा. हमारी आशाओं पर, हमारी आकाँक्षाओं पर, और भी कुठाराघात होगा. राजनीति का और भी अधिक अपराधीकरण होगा.
हमारी बेबसी, हमारी कुंठा और हमारे नपुंसक आक्रोश (impotent rage) के निवारण के लिए यह ज़रूरी है कि हमको इस बनावटी लोकतंत्र के स्वरुप में आमूल परिवर्तन करने के लिए एक देश-व्यापी आन्दोलन करना होगा और झूठे-मक्कारों को किसी भी मूल्य पर अपना प्रतिनिधि स्वीकार नहीं करना होगा. हमको स्पॉन्सर्ड जन-सभाओं का बहिष्कार करना होगा. हमको नेताओं का जाप करने वालों का विरोध करना होगा, उनका चालीसा लिखने वालों और उन चालीसाओं का पाठ करने वालों का उपहास उड़ाना होगा.
हम अब भी नहीं जागे तो बहुत देर हो जाएगी. हमारे लोकतंत्र का महल तो खंडहर हो ही चुका है, फिर तो उसकी नीव भी खोखली हो जाएगी और वह हमारे देखते-देखते भरभराकर धराशायी भी हो जाएगा.
केला तबहिं न चेतिया, जब ढिंग लागी बेर,
अब चेते ते का भया, काँटा लीन्हें घेर.

मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

सज़ा-ए-मौन


सज़ा-ए-मौन -'
( 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई' गीत की तर्ज़ पर )
पूछो न कैसे, मैंने बैन बिताया,
इक जुग जैसे इक पल बीता, जुग बीते मोहे चैन न आया,
मरघट जैसे सन्नाटे में, रहना हरगिज़ रास न आया.
दाल-ए-सियासत फीकी लागे, गाली का नहिं छौंक लगाया,
मुनि दुर्वासा की संतति को, मधुर बचन, कब कहाँ, सुहाया.
मुंह सिलवाया, कपड़ा ठूंसा, सम्मुख चौकीदार बिठाया,
गाली-गायन रीत पुरानी, मुझ पर ही क्यों सितम है ढाया.
कोयल कुहुक करे तो अच्छा, श्वान जो भोंके, तो वो सच्चा,
मेरी सहज प्रकृति पर बंधन ! ओ निष्ठुर ! तोहे, रहम न आया.
पूछो न कैसे, मैंने बैन बिताया -----

रविवार, 7 अप्रैल 2019

चुनाव परिणाम से पूर्व मातृ-पुत्र संवाद

अपनी 20 साल पुरानी कविता – ‘उत्तराखंड की लोरी’ को नए सांचे में ढालने की एक गुस्ताख़ कोशिश -
चुनाव परिणाम से पूर्व का मातृ-पुत्र संवाद –
बेटे का प्रश्न -
शपथ-ग्रहण के बाद बता मां ! क्या अच्छे दिन आएँगे?
या पंजे की अनुकम्पा से, कष्ट सभी मिट जाएंगे?
गठबंधन के नेता क्या, भारत को स्वर्ग बनाएँगे?
सेहरा में भी फूल खिलेंगे, वन-उपवन मुस्काएंगे?
बंधुआ सब मज़दूर कभी क्या, खुली सांस ले पाएंगे?
क्या गरीब के बच्चे भी अब, स्कूलों में जाएंगे?
रोटी, कपड़ा, कुटिया का क्या, सब आनंद उठाएंगे?
अपनी मेहनत का मीठा फल, क्या हम ख़ुद खा पाएंगे?
माँ का उत्तर -
अरे भेड़ के पुत्र, भेड़ियों से क्यों, आशा करता है?
दिवा स्वप्न में मग्न भले रह, पर सच से क्यों डरता है?
कोई नृप हो, हम सा तो, आजीवन पानी भरता है,
श्रम-कण नित्य बहाने वाला, तिल-तिल कर ही मरता है.
चाहे जिसको रक्षक चुन लें, वह भक्षक बन जाएगा,
मजलूमों का खून चूस कर, अपनी प्यास बुझाएगा.
वन-उपवन श्मशान हो गए, कुसुम कहां खिल पाएगा?
हम सी लावारिस लाशों का, कफ़न नहीं सिल पाएगा.
रात हो गयी, मेहनतकश सब, अपने घर जाते होंगे,
जल से चुपड़ी बासी रोटी, भाग्य समझ, खाते होंगे.
हम भी सोएं, ना जाने कब, ये दुर्दिन, जाते होंगे,
भैंसे पर आरूढ़ देवता, न्योता ले, आते होंगे.

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

एक पवित्र और एक अपवित्र कथा

आदरणीय राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी की वाल से उधार ली गयी महात्मा बुद्ध और उनके शिष्य ‘पूर्ण’ की एक प्रेरक कथा –
बुद्ध का शिष्य था - पूर्ण !
बहुत दिनों तक उनके पास रहा, जब शिक्षा पूरी हो गयी तो बुद्ध ने कहा –
‘शिष्य ! अब तुम मेरे प्रेम और अहिंसा के संदेश को हिंसक लोगों के बीच ले जाओ!’
पूर्ण अपने गंतव्य की ओर जाने को तत्पर हुआ तो बुद्ध ने कहा –
‘वहाँ के लोग तो बहुत उग्र हैं ! वे तुम्हें गाली देंगे तुम्हारा अपमान करेंगे !’
पूर्ण बोला – ‘ कोई बात नहीं , मैं तो ऐसे लोगों को दयालु ही मानता हूँ कि वे गाली ही तो देंगे, अपमान ही तो करेंगे, पत्थर तो नहीं मारेंगे !’
बुद्ध बोले - ‘पूर्ण, वे पत्थर भी मार सकते हैं !’
पूर्ण बोला - ‘कोई बात नहीं, मैं तो ऐसे लोगों को दयालु ही मानता हूँ कि वे पत्त्थर ही तो मारेंगे, जान से नहीं मार डालेंगे !’
बुद्ध बोले – ‘पूर्ण, पर वे तो जान से भी मार सकते हैं !’
पूर्ण ने उत्तर दिया – ‘तब तो वे सचमुच ही दयालु हैं कि मुझे इस जीवन से मुक्त कर देंगे, जिसमें मैं भटक भी सकता हूँ !’
तब बुद्ध ने कहा – ‘वत्स ! अब तुम जाओ , तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है !’
इस पवित्र कथा पर आधारित किन्तु मेरे द्वारा संशोधित,गुरुघंटाल और उसके महा-घाघ शिष्य की एक अपवित्र कथा –
ढपोलशंख की वाक्पटुता, मदारी का मजमा इकठ्ठा करने का हुनर, ख़ुद को दूध पिलाने वाले को डसने वाले सांप के गुण और इन्सान को समूचा निगलने के बाद भी डकार न लेने की विद्या सिखाने के बाद गुरु-घंटाल ने अपने शिष्य महा-घाघ से कहा –
‘महा-घाघ! मुझे जो-जो तिकड़म आती थीं वो मैंने तुझे सिखा दीं हैं. अब तू अंधेर-नगरी में राजनीति के रण-क्षेत्र में कूद पड़.’
शिष्य महा-घाघ अंधेर-नगरी में अपनी राजनीति का चक्कर चलाने के लिए तत्पर हुआ.
गुरु-घंटाल ने उसे सावधान किया –
‘अंधेर-नगरी के लोग बड़े खूंख्वार हैं. हर नेता का स्वागत करने के लिए उनके ऊपर जूते बरसाने को वो हमेशा तैयार रहते हैं.
महा-घाघ ने कहा – ‘कोई बात नहीं , मैं पुराने जूतों की एक दूकान खोल लूँगा. वैसे ऐसे लोगों को मैं दयालु ही मानता हूँ कि वे जूते ही तो बरसाएंगे, पत्थर तो नहीं मारेंगे !’
गुरुघंटाल बोले - ‘शिष्य ! वे पत्थर भी मार सकते हैं !’
महा-घाघ बोला - ‘कोई बात नहीं, मैं हेल्मेट और छाती पर पैड वगैरा लगा कर जाऊंगा. वे पत्थर ही तो मारेंगे, जान से तो नहीं मार डालेंगे !’
गुरुघंटाल बोले – ‘शिष्य ! वे तो तुझे जान से भी मार सकते हैं !’
महा-घाघ ने उत्तर दिया – ‘उनसे निपटने के लिए मेरे साथ क्या किराए के गुंडे नहीं होंगे?’ वैसे भी मेरी ए. के. छप्पन के सामने वो कितनी देर टिक पाएंगे?
तब गुरुघंटाल ने कहा – ‘वत्स ! अब तू जा, तेरी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है !’
महा-घाघ ने अपने हाथ जोड़ कर गुरुघंटाल से कहा – ‘गुरु जी ! आपकी चरण-धूलि तो ले लूं और यह भी सुनिश्चित कर लूं कि यह महा-घाघ विद्या आप किसी और को न दे पाएं !’
इतना कहकर महा-घाघ ने गुरुघंटाल को उनके पैर से उठाकर, उन्हें पटक दिया और फिर उनका गला दबा, उनको अपना अंतिम प्रणाम कर, वह अंधेर-नगरी जीतने के लिए चल पड़ा.