बेटी-दिवस -
कल बेटी दिवस था. कल बेटियों की शान में कसीदे पढ़े गए होंगे, उन्हें घर की रौनक बताया गया होगा. सोशल मीडिया में उन पर गीतों, कविताओं और आलेखों की भरमार रही होगी. स्चूलों और कॉलेजों में उन पर भाषण भी दिए गए होंगे.
आगे भी बेटी-दिवस पर ऐसा ही होता रहेगा. साल में एक दिन बेटी का गुणगान करने की नौटंकी चलेगी, बाक़ी 364 दिन उसे ख़ुद को उपेक्षा, दमन, शोषण और लिंग-भेद से बचाने के लिए संघर्ष करना होगा.
क़रीब पच्चीस साल पहले अल्मोड़ा में मेरे एक आत्मीय मुस्लिम परिवार में मुझे सपरिवार शादी में बुलाया गया. मैं मर्दों की टोली में, और मेरी 10 और 8 साल की बेटियां, अपनी मम्मी के साथ महिलाओं की टोली में शामिल हो गईं. महिला-मंडली ने मेरी श्रीमतीजी और बच्चियों का स्वागत किया. दो बुजुर्गवार खालाओं ने शरबत, मिठाई वगैरा सर्व किये जाने से पहले ही मेरी श्रीमतीजी पर सवालों की झड़ी लगा दी –
‘कहाँ रहती हो? तुम्हारे शौहर क्या करते हैं? तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’ वगैरा वगैरा.
मेरी श्रीमतीजी के बाक़ी जवाब तो ठीक लगे पर उनका-
‘हमारे दो बच्चे हैं.’
वाला जवाब खालाओं के समझ में नहीं आया. एक खाला ने पूछा –
‘फिर अपने दोनों बच्चों को तुम शादी में लाई क्यों नहीं?’
मेरी श्रीमतीजी ने मुस्कुराकर बेटियों की तरफ इशारा करते हुए कहा –
‘लाई तो हूँ. यही तो हैं हमारे दोनों बच्चे.’
दोनों खालाओं के तो मानों पैरों तले ज़मीन सरक गयी. दोनों हैरत से एक साथ बोलीं –
‘हाय अल्ला ! कोई बेटा नहीं है तुम्हारे? बस, ये दो बेटियां ही हैं तुम्हारे?’
मेरी श्रीमती जी ने इस पर हामी भरी तो एक खाला ने आह भरते हुए कहा -
‘बच्चियां तो तुम्हारी काफी बड़ी हो गयी हैं, अब तो तुमको सब्र करके बेटियों से ही काम चलाना पड़ेगा.’
इस किस्से पर तो हमको गुस्सा भी आ सकता है और हंसी भी आ सकती है लेकिन एक और किस्सा ऐसा है जिस पर हम अपने समाज को, उसके अन्याय के लिए और ख़ुद को, अपनी बुज़दिली के लिए, सिर्फ़ कोस सकते हैं.
क़रीब चालीस साल पहले हमारे एक परिचित खाते-पीते जैन परिवार की एक लड़की किसी प्रतिष्ठित परिवार में ब्याही गयी. लड़की सूरत-शक्ल की अच्छी थी, लड़के वालों को दान-दहेज़ भी खूब दिया गया लेकिन ससुराल में पहले दिन से ही लड़की पर ज़ुल्मो-सितम ढाए जाने लगे. खबर लड़की के मायके वालों तक पहुँची तो उन्होंने उसकी ससुराल वालों को कुछ कीमती उपहार और भिजवा दिए. मामला कुछ दिनों के लिए शांत हो गया लेकिन फिर समाचार आया कि स्टोव फटने से लड़की जल गयी और उसकी मौत हो गयी. लड़की वालों ने उसकी ससुराल वालों पर हत्या का केस दायर करने का फ़ैसला कर लिया. लेकिन फिर बीच-बचाव करने वाले कूद पड़े. मृत लड़की की ससुराल वाले, उसके मायके वालों को मोटी रकम देने को तैयार थे. आख़िरकार दोनों पक्षों में समझौता हो गया. आप सोचेंगे कि वो कौन माँ-बाप होंगे जो कि अपनी बेटी के हत्यारों से पैसा लेकर चुपचाप बैठ जाएंगे. लेकिन इस समझौते में पैसे का लेन-देन हुआ ही नहीं, बल्कि दोनों परिवारों की सहमति से मृत लड़की की छोटी बहन की शादी बिना दान-दहेज़ के अपने जीजा से करा दी गयी.
सवाल उठता है –
‘हम बेटी-दिवस मनाने वाले अगर अपनी एक बेटी के हत्यारे परिवार में अपनी दूसरी बेटी ब्याह सकते हैं या फिर अगर हम ख़ुद ऐसा नहीं करते लेकिन ऐसा करने वालों को अपने समाज से बहिष्कृत नहीं करते तो फिर हमको इन्सान कहलाने का क्या हक़ है?’
बेटी-दिवस मनाने का हक़ हमको तभी मिलना चाहिए जब हम उन पर बुरी नज़र डालने वाले हर शख्स का जीना हराम कर दें, व्यभिचारियों को संतों का दर्जा देकर उनकी चरण-वंदना न करें, और न ही उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनकर जन-प्रतिनिधि सभाओं में भेजें.
बेटियों को हम आरक्षण भले न दें लेकिन उनकी उन्नति में आड़े आने वाली बाधाओं का, अपनी लिंग-भेदी मानसिकता का, जड़ से खात्मा ज़रूर करें.
चोरी-छिपे गर्भस्थ शिशु का लिंग-परीक्षण करवा कर कन्या-भ्रूण हत्या के लिए सबसे बदनाम इस देश में –
‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’
और
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवताः’
और
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवताः’
के कोरे नारों या कोरे भाषणों से बेटियों का कुछ भला नहीं होने वाला है. इसके लिए हमको अपने समाज की और ख़ुद की सोच को बदलना होगा.
एकदम सही सर आपकी आक्रोशयुक्त अभिव्यक्ति का दिल से स्वागत है सारी बातों से अक्षरशः सहमत हैं हम।
जवाब देंहटाएंबेटी बचाओ का नारा देने से बेटी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला....चाहे जितना भी ढोल पीट ले समाज का नजरिया बेटियों के लिए कभी नहीं बदलता।
सर पर यहाँ यह जरूर मेंशन करना चाहेंगे मेरी इकलौती संतान मेरी बेटी है और मेरे ससुराल में या मेरे मायके में उसे बेटों से बढ़कर प्यार और सम्मान प्राप्त है,किसी को कोई मलाल नहीं भले समाज के लिए मैं दया का विषय हूँ।
श्वेता, हमारे-तुम्हारे परिवार जागरूक हैं लेकिन आम भारतीय परिवारों में बेटे-बेटियों का फ़र्क आज भी देखा जा सकता है.
हटाएंहमारा जैन समाज तो पढ़ा-लिखा भी है और समृद्ध भी है. लेकिन हमारे कई जैन मुनि अपने प्रवचनों में लड़कियों के ज़्यादा पढ़ाई करने के और उनके नौकरी करने के खिलाफ़ विचार व्यक्त करते हैं. एक श्वेताम्बर मुनि तो उन विवाहिताओं को वेश्या के समान भ्रष्ट बता रहे थे जो कि माथे पर बिंदी नहीं लगातीं या गले में मंगलसूत्र नहीं पहनतीं.
लिंग-भेद के कैंसर का उन्मूलन, सर-दर्द दूर करने वाली गोलियों जैसे नारी-उत्थान विषयक नारों या भाषणों से नहीं हो सकता. इसके लिए हमको ठोस काम करने होंगे और सबसे पहले अपनी रुग्ण लिंग-भेदी मानसिकता का इलाज करना होगा और फिर स्त्री-विरोधियों को दण्डित तथा बहिष्कृत करना होगा.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-09-2019) को "बदल गया है काल" (चर्चा अंक- 3468) पर भी होगी।--
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मेरे आलेख को 'चर्चा मंच - 3468' में सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.
हटाएंआमीन। आशावान रहें बेटियाँ खुद तस्वीर बदलेंगी।
जवाब देंहटाएंये तुमने बहुत अच्छी बात लिखी है सुशील बाबू. बेटियां अपनी तकदीर ख़ुद बदलेंगी और साथ में इस देश की तकदीर भी बदलेंगी.
हटाएंहमने (पुरुष वर्ग) समाज में रहकर धौंस जमानी सीखी है महिलाओं पर।वो भी पूरी प्लानिंग के साथ।
जवाब देंहटाएंमाता की धोक लगा कर आएगा आदमी और घर पर पत्नी पर रॉब झाड़ेगा।
ऐसे कितने ही मुद्दे हैं जो केवल आदमी ने बिगाड़ के रखे हैं।
आपकी तिरछी नजर को सलाम।
हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी माँ, माँ होने से पहले किसी की बेटी थी और फिर किसी की पत्नी थी. माँ की पूजा कर के और पत्नी, बेटी को दुत्कार कर हमको कुछ भी हासिल नहीं होगा.
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