दो अक्टूबर के अवसर पर,
राजघाट के बागीचे में,
सत्य, अहिंसा और धर्म की अन्तिम पौधें,
नीलामी के लिए धरा पर, बिछी हुई थीं।
बोली खातिर,
नेता, अफ़सर औ व्यापारी, तने खड़े थे।
सबसे ऊँची कीमत बोली,
एक उभरते जननायक ने।
सत्य, अहिंसा और धर्म की सारी पौधें,
जननायक के सूटकेस में, बन्द हो गईं।
दृश्य मनोहर देख, ह्रदय में आशा जागी,
भारत के भावी रखवाले, तन-मन-धन देकर,
बापू का, हर सपना अब साकार करेंगे।
धर्म-विमुखता, झूठ और हिंसा के बादल,
छट जाएंगे, और अमन की धूप सुनहरी खिल जाएगी।
हमने नतमस्तक हो नेताजी से पूछा -
'हे जननायक ! हे भारत के भाग्य विधाता !
इन पौधों को पाल-पोस कर, वृक्ष बनाकर,
उनकी शीतल छांह, हमें उपलब्ध कराकर,
अन्यायों से तप्त, हमारे व्यथित ह्रदय पर,
रामराज्य के अमृत जल-कण बरसाओगे?'
जननायक ने तिरस्कार से भरी दृष्टि फिर हम पर डाली,
एक कुटिल मुस्कान होठ पर, मन में पर उठती थी गाली।
हँस कर बोले -
'रामराज्य की करे कल्पना,
जो मूरख, वह दण्डित होगा।
कौओं, बगुलों की नगरी से,
हंस आज निष्कासित होगा।
गांधीजी की थाती इन मुर्दा पौधों की,
शानदार कब्रें बनवाकर, उनके ऊपर ,
ताजमहल सा भव्य मकबरा बनवाऊंगा ।
छल, प्रपंच,मक्कारी के रत्नों से जड़ फिर,
उसकी आभा-शोभा को द्विगुणित कर दूंगा।
सुरा-सुन्दरी की सुविधा दिन-रात रहेगी,
नृत्य-गान की महफि़ल भी आबाद रहेगी।
और बगल में कल-कल बहती नदी, पाप की,
दुराचार की कश्ती में, सब पार करेंगे।
आने वाले, अपना हर पल, युगों-युगों तक याद रखेंगे,
हर वर्जित फल चखकर भी वो, स्वर्गलोक से नहीं गिरेंगे।
प्रति टूरिस्ट, पाँच सौ डॉलर लेकर,
मैं कुबेर जैसा, अतुलित धनवान बनूंगा।
रावण की सोने की लंका,
का मैं, फिर निर्माण करूंगा।
तार-तार हो गए स्वप्न गांधी बाबा के,
सखा गोडसे के सपने साकार करूंगा।।'
एक नया इतिहास रचूंगा,
एक नया इतिहास रचूंगा।
सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय-
बहुत सुंदर वाह !
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