मंडल कमीशन के विरोध में हो रहे आन्दोलन के दौरान मैंने यह
कविता लिखी थी. सिद्धांततः मैं आरक्षण के विरुद्ध हूँ. पिछले 68 सालों में इस
प्रतिभा-भंजक व्यवस्था का अंत नहीं हुआ बल्कि इसका और विस्तार हो गया है. आईआईटी
की प्रवेश परीक्षा में निगेटिव मार्क्स प्राप्त करने वाले होनहार अब विश्वेशरैया
जैसे इंजीनियर बनेंगे और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में शून्य प्रतिशत अर्जित करने
वाले एम्स की शोभा बढ़ाएंगे. गरीब दलित अथवा गरीब पिछड़े वर्ग से सम्बद्ध गुदड़ी का
लाल इस आरक्षण की नीति का लाभ नहीं उठा पा रहा है. आमतौर पर कोठियों और बंगलों में रहने वालों, कारों और हवाई जहाजों में घूमने वालों की संतानें ही इस
अन्यायपूर्ण व्यवस्था का फायदा उठा रही हैं. वोटों की राजनीति ने आरक्षण की
व्यवस्था को अमरत्व प्रदान कर दिया है पर मुझे उम्मीद है कि एक न एक दिन यह पाप का
घड़ा अवश्य फूटेगा.
आरक्षण के
पक्षधरों की स्तुति -
हे विप्लव के रास
रचैया, प्रतिभा भन्जक, शान्ति मिटैया,
जाति भेद के भाव
बढ़ैया, रोज़ी,रोटी के छिनवैया.
प्रगति मार्ग
अवरुद्ध करैया, नीरो सम बंसी के बजैया,
ताण्डव नर्तक,
आग लगैया, अब तो बक्शो चैन लुटैया.
मानवता के खून
पिवैया, आत्मदाह के पुनर्चलैया,
नैतिकता के ताक
धरैया, न्याय धर्म के हजम करैया.
युवा मध्य हिंसा
भड़कैया, शिक्षा तरु, जड़ से उखड़ैया,
भंवर ग्रस्त हो
तुम्हरी नैया, जल समाधि लो देश डुबैया.
जल समाधि लो देश डुबैया
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