तंज़ के बादशाह अकबर
इलाहाबादी –
अकबर इलाहाबादी हमारे
जैसे लाखों-करोड़ों लोगों के सबसे प्रिय शायर हैं. उनकी व्यंग्य रचनाओं ने न जाने
कितने कवि और लेखकों को तंज़ की दुनिया में उतरने की प्रेरणा दी होगी. अकबर इलाहाबादी
के अशआर ऐसे होते थे कि जिस शख्स को लेकर वो तंज़ (व्यंग्य) कसते थे वो भी उन्हें
पढ़कर या सुनकर वाह-वाह कर उठता था और उनका मुरीद बन जाता था.
मेट्रिक पास,
अट्ठारह साल का नौजवान अकबर हुसेन रिज़वी (बाद में अकबर इलाहाबादी) अर्ज़ी-नवीस की
नौकरी की तलाश में अपनी अर्ज़ी लेकर कलक्टर साहब के पास उनके किसी दोस्त का सिफ़ारिशी
ख़त लेकर गया. कलक्टर साहब ने उसकी अर्ज़ी और अपने दोस्त का ख़त लेकर अपने कोट की जेब
में रखकर उसे एक हफ़्ते बाद मिलने के लिए कहा. एक हफ़्ते बाद जब अकबर हुसेन ने
पहुंचकर कलक्टर साहब को सलाम किया तो वो उसे देखकर बोले –
‘तुम्हारी अर्ज़ी मैंने
कोट की जेब में तो रक्खी थी पर वो कहीं गुम हो गयी. ऐसा करो, तुम मुझे दूसरी अर्ज़ी
लिखकर दे दो.’
अगले दिन अकबर
हुसेन अख़बार के पन्ने की साइज़ की अर्ज़ी लिखकर कलक्टर साहब के पास पहुंचा. कलक्टर
साहब ने हैरानी और नाराज़ी के स्वर में पूछा – ‘ये क्या है?’
अकबर हुसेन ने
बड़े अदब से जवाब दिया – ‘हुज़ूर, ये अर्ज़ी-नवीस की नौकरी के लिए मेरी अर्ज़ी है.
आपकी जेब में यह गुम न हो जाय इसलिए इसको इतने बड़े कागज़ पर लिखकर लाया हूँ.’
कलक्टर साहब अकबर
हुसेन के जवाब से इतने खुश हुए कि उन्होंने उसे फ़ौरन अर्ज़ी-नवीस की नौकरी दे दी.
बाद में इस नौजवान ने नौकरी करते हुए अपनी तालीम जारी रक्खी और तरक्की के बाद
तरक्की करते हुए वह सेशन जज के ओहदे तक पहुंचा.
आइए सबसे पहले
उनके राजनीतिक व्यंग्य की धार परखी जाय.
1882 में लार्ड
रिपन के शासन काल में पहली बार जनता द्वारा चुने हुए भारतीय सदस्यों को
नगर-पालिकाओं और जिला-परिषदों के स्तर पर शासन सँभालने की ज़िम्मेदारी दी गयी लेकिन
उनके ज़िम्मे में मुख्य काम यही था कि वो सड़कों, गलियों और नालियों की सफ़ाई की
देखरेख करें. अकबर इलाहाबादी ने नगर-पालिकाओं और जिला-परिषदों के इन निर्वाचित
सदस्यों के विषय में कहा –
‘मेम्बर अली
मुराद हैं, या सुख निधान हैं,
लेकिन मुआयने को,
यही नाबदान (नाली के ढक्कन) हैं.’
1885 में बड़ी
धूम-धाम से इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई. समाज के प्रतिष्ठित बैरिस्टर,
वकील, शिक्षक, उद्योगपति, जागीरदार, ज़मींदार, पत्रकार आदि इसमें देशभक्ति और त्याग
के नाम पर शामिल हुए पर उनका मुख्य उद्देश्य था कि वो आला अफसरों की निगाह में आ
जायं और समाज में उनका रुतबा बढ़ जाय –
‘कौम के गम में
डिनर खाते हैं, हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत
हैं, मगर, आराम के साथ.’
अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता की अवधारणा का विकास पश्चिम में ही हुआ था लेकिन अंग्रेजों ने भारत में
सरकार की किसी भी नीति की आलोचना करने पर कठोर प्रतिबन्ध लगा रक्खा था. अकबर
इलाहाबादी ने ब्रिटिश शासन में भारतीयों को मिली हुई आज़ादी के विषय में कहा है –
‘क्या गनीमत
नहीं, ये आज़ादी,
सांस लेते हैं,
बात करते हैं.’
1919 में हुए
जलियांवाला बाग़ हत्याकांड का समाचार छापना, उसके विरोध में भाषण देना या जन-सभा का
आयोजन करना पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया. अकबर इलाहाबादी का इस सन्दर्भ में
प्रसिद्द शेर है-
‘हम आह भी भरते
हैं, तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते
हैं तो, चर्चा नहीं होता.’
अकबर इलाहाबादी
उन्नीसवीं सदी की पुरातनपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे. प्रगति के नाम पर
सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक अथवा वैचारिक परिवर्तन उन्हें स्वीकार्य नहीं था.
उनकी दृष्टि में रस्मो-रिवाज, तहज़ीब, मज़हबी तालीम, खवातीनों की खानादारी अर्थात
स्त्रियों का कुशल गृह-संचालन, बड़ों का अदब आदि पौर्वात्य संस्कृति का अभिन्न अंग
थे पर हमारे अग्रेज़ आक़ा हिन्दोस्तानियों की तरक्की के नाम पर इन सबको मिटाने पर और
उनको मनसा, वाचा, कर्मणा काला अंग्रेज़ बनाने पर तुले हुए थे. अकबर इलाहाबादी ने
जोशो-ख़रोश के साथ अपने अशआर के ज़रिये इसकी मुखालफ़त (विरोध) की थी. अकबर इलाहाबादी यह जानते थे कि उनके जैसे
परम्परावादी कौम को आगे नहीं ले जा सकते लेकिन उन्हें इस बात का भी इल्म था कि
मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाने का दावा करने वाले खुद दिशा हीन थे –
‘पुरानी रौशनी
में, और नयी में, फ़र्क इतना है,
उन्हें कश्ती
नहीं मिलती, इन्हें साहिल नहीं मिलता.’
(कश्ती – नाव,
साहिल –किनारा)
अंगेज़ी तालीम
हमको अपने धर्म, संस्कृति और अपनी ख़ास पहचान से दूर कर रही थी. ये वो तालीम थी जो
प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हमको अपने से बड़ों के साथ बे-अदबी से पेश आना
सिखा रही थी –
‘हम ऐसी कुल
किताबें, क़ाबिले ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर के
बेटे, बाप को खब्ती समझते हैं.’
(क़ाबिले ज़ब्ती –
ज़ब्त किये जाने योग्य)
इस नयी तालीम ने
भारतीय युवा पीढ़ी को सिखाए थे तो बस, सूट-बूट पहनना, टेबल मैनर्स, बालरूम डांस
करना और अपनों के ही बीच बेगाना बन कर रहना –
हुए इस क़दर
मुहज्ज़ब, कभी घर का मुंह न देखा,
कटी उम्र होटलों
में, मरे अस्पताल जाकर.’
(मुहज्ज़ब –
सभ्य)
अकबर इलाहाबादी
स्त्री-शिक्षा के विरोधी नहीं थे लेकिन वो चाहते थे कि पढ़-लिखकर लड़की मज़हब-परस्त
बने, कुशल गृहिणी बने, एक अच्छी बीबी बने, एक अच्छी माँ साबित हो न कि फैशन की
पुतली और महफ़िलों की रौनक बने –
‘तालीम लड़कियों
की, लाज़िम तो है मगर,
खातून-ए-खाना हो,
वो सभा की परी न हो.’
(लाज़िम – आवश्यक,
खातून-ए-खाना – कुशल गृहिणी)
आज से सौ-सवा सौ
साल पहले कोई सोच नहीं सकता था कि सभ्य घरों की महिलाएं और लड़कियां बारात में
जाएँगी और सार्वजनिक स्थानों पर खुले-आम नाचेंगी पर नयी तालीम ने हमको यह मंज़र
(दृश्य) भी दिखा दिया था –
‘तालीम-ए-दुख्तरां
से, ये उम्मीद है ज़रूर,
नाचे खुशी से
दुल्हन, खुद अपनी बरात में.’
(तालीम-ए-दुख्तरां
– शिक्षित बेटी)
अकबर इलाहाबादी
पर्दा प्रथा के बड़े हिमायती थे लेकिन उन्हें मालूम था कि एक न एक दिन हिंदुस्तान
से ये रस्म ज़रूर उठ जाएगी –
गरीब अकबर ने बहस
परदे की, बहुत ही खूब की, लेकिन हुआ क्या?
नकाब उलट ही दी
उसने कहकर, कि कर लेगा मुआ क्या?’
मैं और मेरे साथ
ही तमाम तरक्की पसंद आज अकबर इलाहाबादी को अप्रगतिशील, परम्परावादी, दकियानूसी,
स्त्री-स्वातंत्र्य तथा नारी-उत्थान का विरोधी कह सकते हैं लेकिन उनके अशआर को
पढ़कर ऐसा हो ही नहीं सकता कि हमको गुदगुदी न हो, हमारे होठों पर मुस्कराहट न आये
या हम खिलखिलाकर हंस न पड़ें.
बहुत बढ़िया ।टंकण में हुई गलतियाँ सुधार लें पाँचवें पैरा में जैसे तालीन ।
जवाब देंहटाएंगलती सुधार ली. धन्यवाद. मेरे इस आलेख को अकबर इलाहाबादी के चित्र के साथ एकाद दिन में 'हिंदी कविता' भी प्रकाशित करेगी. मीरा पर और 26 जनवरी पर मेरे आलेख 'हिंदी कविता' प्रकाशित कर चुकी है. 'हिंदी कविता' के माध्यम से मेरी बात सैकड़ों-हजारों लोगों तक पहुँच रही है.
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