फ़ैज़ की नज़्म – ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’, इमरजेंसी का ‘अनुशासन पर्व’, जॉर्ज ओर्वेल के उपन्यास – ‘नाईन्टीन एटी फ़ोर’ का अधिनायक – ‘बिग ब्रदर’, और साहिर का नग्मा – ‘हमने तो जब कलियाँ मांगीं, काटों का हार मिला’, ये सब एक साथ याद आ गए तो कुछ पंक्तियाँ मेरे दिल
में उतरीं, जिन्हें अब मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ -
खोल न लब, आज़ाद नहीं तू -
तुझे लीज़ पर मिली हुई थी जो आज़ादी,
सुन गुलाम, उसकी मियाद अब, ख़त्म हो गयी,
मुंह खोला तो, गोली खाना, आह भरी, फटकार मिलेगी,
यदि अनुशासन पर्व मानकर, नाचा तो, सौगात मिलेगी.
कलम तोड़ दे, घर में घुसकर, बड़े ब्रदर का, रोज़ जाप कर,
आँख मूँद कर, कान बंद कर, मुंह पर पट्टी बाँध, मौज कर.
जहाँ जन्म लेने को तरसें, कोटि देवता, उस भारत में, सुख से जीना,
उफ़ मत करना, लब सी लेना, कोशिश कर, आंसू पी लेना.
शुभ प्रभात..
जवाब देंहटाएंबोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’
बेहतरीन पंक्ति..
सादर..
धन्यवाद दिग्विजय अग्रवाल जी. फ़ैज़ की इन इन्क़लाबी पंक्तियों ने, कितनों के ही सोये हुए ज़मीर को जगाया है.
हटाएंशुभ प्रभात आदरणीय
जवाब देंहटाएंबेहतरीन फ़ैज़ की इन इन्क़लाबी पंक्तियों.. ...
हर शब्द समाज को उस का आईना दिखा रहा है ना समझे वो नादान,
बहुत ख़ूब 👌
सादर आभार
धन्यवाद अनिता जी.
हटाएंअगर हम फ़ैज़ की सुनेंगे, उनका लिखा पढेंगे और उनके दिखाए रास्ते पर चलेंगे तो भले ही हमारा भला हो न हो, पर हमारा मुल्क आबाद रहेगा और उसका मौसम, माहौल हमेशा ख़ुशगवार रहेगा.
गुलाम मुहं खोलते हैं, फिर से गुलाम होने के लिये, क्यों कि उनका रहनुमा हर बार सरदार जो हो जाता है।
जवाब देंहटाएंसही बात है व्याकुल पथिक जी. कुर्सी पर बैठते ही लोकतंत्र का समर्थक भी खुद तानाशाह बन जाता है.
हटाएंवाहहह सर गज़ब...एकदम सटीक तीर...
जवाब देंहटाएंआपकी ऐसी इकंलाबी लेखनी से तो सोये ज़मीर को जागना होगा।
मुस्तबिल बदलना तुम्हें क़लम की नोक से,
बुझी नहीं है चिंगारी, एक फूँक काफी है उजाला होगा।
धन्यवाद श्वेता. यहाँ तो कबीर की तरह 'सीस उतारे, भुई धरे, तापर राखे पाँव' का जज़्बा हो तो आगे बढ़ने की बात हो सकती है. और हमारा हाल तो यह है कि हमारे कहने से इंक़लाब भले न आए पर हमारे अपने जलने से कुछ देर रौशनी तो होगी और लोगों का दिल बहल जाएगा. एक शेर याद आ गया -
हटाएंकमबख्त दिल जला है तो, घर भी जला के देख,
दुनिया को कुछ पता तो चले, रौशनी हुई.'
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २४ दिसम्बर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
मेरी रचना को 'लोकतंत्र' संवाद मंच में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. इस प्रतिष्ठित पत्रिका के माध्यम से मेरा परिचय सुधी पाठकों से होता है.
हटाएंवाह बहुत सुंदर...स्वागत है आपके विचारों का.
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद RPSMT 4D.
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र एक अच्छा जुमला है जिसे विरोधी चूस कर सत्ता लेते हैं ... फिर उनके विरोधी इस जुमले को पकड़ लेते हैं ... ऐसे ही ये खेल चलता रहता है ...
जवाब देंहटाएंमित्र ! हमारे देश में 'लोक-तंत्र' नहीं, बल्कि 'लोभ-तंत्र है. आज़ादी के बाद के किसी भी नेता में मुझे देश के कल्याण के प्रति त्याग और समर्पण की भावना नहीं दिखाई दी.
जवाब देंहटाएंआदरणीय गोपेशजी, आजादी बर्बादी में बदल रही है...स्वतंत्रता स्वछंदता में !!! और हम और आप फैज की ये नज्म गुनगुनाए जा रहे हैं -
जवाब देंहटाएं"बोल कि लब आजाद हैं तेरे !"
साधुवाद कि आपने इसके शब्दों को बदलने की हिम्मत की।
हम तो यही कहते रहे गए औरों से भी और अपने आप से भी.... बोल, बोल, बोल !!! अरे बोल ना !!!!!
धन्यवाद मीना जी. हम आम भारतीयों का सिद्धांत है -
हटाएं'किस,किस को याद कीजिए, किस-किस को रोइए,
आराम बड़ी चीज़ है, मुंह ढक के सोइए.'
हमारे या आपके जगाने से वो नहीं जागने वाले और अगर वो जाग भी गए तो उनका ज़मीर नहीं जागने वाला.
बेड़ियाँ पहनने में या अपने लब सी लेने में हर्ज़ ही क्या है? सांस लेने की आज़ादी तो मिली हुई है.
https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/12/2018-26.html?m=1
जवाब देंहटाएंमेरे 8 दिसंबर को पोस्ट किये गए आलेख - 'गुरुवे नमः' को 'ब्लॉग बुलेटिन' में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रश्मि प्रभा जी.
हटाएंधन्यवाद सुशील बाबू ! आज लब खोलने में इतना खौफ़ क्यों?
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