साम्यवादी
मूल्यों की स्थापना –
पिताजी के हर तीन साल में तबादले की वजह से हम बच्चों को नए परिवेश में खुद को ढालने की चुनौती होती थी. हर बार नए दोस्त और नए दुश्मन बनाने पड़ते थे. 1965 में जब पिताजी का रायबरेली से बाराबंकी तबादला हुआ तो मेरा एडमिशन बाराबंकी के गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज के क्लास टेंथ में करा दिया गया. मेरा कॉलेज हमारे घर से क़रीब ढाई किलोमीटर था और वहां तक मुझे पैदल ही जाना होता था क्योंकि मुझे तब तक साइकिल चलाना आता ही नहीं था.
पिताजी के हर तीन साल में तबादले की वजह से हम बच्चों को नए परिवेश में खुद को ढालने की चुनौती होती थी. हर बार नए दोस्त और नए दुश्मन बनाने पड़ते थे. 1965 में जब पिताजी का रायबरेली से बाराबंकी तबादला हुआ तो मेरा एडमिशन बाराबंकी के गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज के क्लास टेंथ में करा दिया गया. मेरा कॉलेज हमारे घर से क़रीब ढाई किलोमीटर था और वहां तक मुझे पैदल ही जाना होता था क्योंकि मुझे तब तक साइकिल चलाना आता ही नहीं था.
बाराबंकी
के हमारे कॉलेज में मुहल्ला कल्चर बहुत थी. पंजाबी रिफ्यूजी कॉलोनी के लड़कों का
अपना गैंग था तो शुगर-मिल कॉलोनी वाले लड़कों का अपना दल था. मेरे लिए सबसे चिंता
विषय यह था कि मेरी तरह का कोई और ऐसा लड़का था ही नहीं जिसका कि क्लास टेंथ में
नया एडमिशन हुआ हो. लेकिन कुछ दिन बाद मेरी तरह से ही एक लड़के ने क्लास टेंथ में
एडमिशन लिया. वह लड़का था तो चुच्चू किस्म का सींकिया पहलवान लेकिन उसका दिमाग
सातवें आसमान तक पहुंचा हुआ था. मैंने अपनी तरफ़ से उस से दोस्ती करने की पहल करने
के लिए उसका परिचय जानना चाहा. उसने बड़ी शान से अपना परिचय देते हुए कहा –
‘My self Krishna Kumar Sharma,
son of Shri R. D. Sharma, I. P. S., the Superintendent of Police, Barabanki.’
(यहाँ मज़े कि बात बता दूँ कि
कृष्ण कुमार शर्मा सिर्फ़ अपना परिचय देते हुए इंग्लिश में ये रटा-रटाया जुमला
बोलते थे वरना इस म्लेच्छ-भाषा में वो बिलकुल ही पैदल थे.)
जब
कृष्ण कुमार शर्मा जी ने मुझसे मेरे बारे में पूछा तो मैंने अपने बारे में मुई
आंग्ल-भाषा का पूर्ण परित्याग कर अपनी प्यारी हिंदी भाषा में सिर्फ़ इतना बताया कि
मैंने रायबरेली से नाइन्थ पास करके यहाँ टेंथ में एडमिशन लिया है. शर्मा जी का
अगला सवाल था –
‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’
मैंने जवाब दिया –
‘मेरे पिताजी जुडिशियल मजिस्ट्रेट हैं.’
शर्मा जी का अगला वाक्य ऐसा था जिसने मेरे तन-बदन में आग लगा दी -
‘जुडिशियल मजिस्ट्रेट तो छोटा अफ़सर होता है. उसे न तो सरकारी कार मिलती है और न ही कोई जीप.’
अपने गुस्से को क़ाबू में रखते हुए मैंने बड़ी विनम्रता से कहा –
'मेरे पिताजी साइकिल की सवारी करते हैं.
साहबे-आलम ने हें-हें-हें करते हुए पूछा –
‘और तुम?’
संयम की पराकाष्ठा दर्शाते हुए मैंने जवाब दिया –
‘मैं तो पैदल सैनिक हूँ.’
‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’
मैंने जवाब दिया –
‘मेरे पिताजी जुडिशियल मजिस्ट्रेट हैं.’
शर्मा जी का अगला वाक्य ऐसा था जिसने मेरे तन-बदन में आग लगा दी -
‘जुडिशियल मजिस्ट्रेट तो छोटा अफ़सर होता है. उसे न तो सरकारी कार मिलती है और न ही कोई जीप.’
अपने गुस्से को क़ाबू में रखते हुए मैंने बड़ी विनम्रता से कहा –
'मेरे पिताजी साइकिल की सवारी करते हैं.
साहबे-आलम ने हें-हें-हें करते हुए पूछा –
‘और तुम?’
संयम की पराकाष्ठा दर्शाते हुए मैंने जवाब दिया –
‘मैं तो पैदल सैनिक हूँ.’
ज़ाहिर
था कि इन साहबे-आलम और मुझ पैदल सैनिक के बीच की पहली मुलाक़ात ख़ुशगवार नहीं थी
लेकिन ‘तोकू और, न मोकू ठौर’ की कहावत को चरितार्थ करते
हुए हम दोनों के बीच दोस्ती होनी तो ज़रूरी थी क्योंकि क्लास के हम दो नए रंगरूटों
से कोई और लड़का जल्दी दोस्ती करने को तैयार ही नहीं था.
कृष्ण
कुमार में पता नहीं क्यों पुराने ज़माने के ठाकुरों जैसी बेकार की हेकड़ी हुआ करती
थी. उसकी हर बात अपने पापा के रौब-दाब से या तो शुरू होती थी या फिर उस से ख़त्म
होती थी. लेकिन उसके लिए सबसे दुःख की बात यह थी कि क्लास में कोई भी ढंग का लड़का
उसे वी. आई. पी. स्टेटस देने को तैयार नहीं था.
कृष्ण
कुमार अक्सर मुझे फ़ोन करने के लिए कहता रहता था. हालांकि उसे पता था कि हमारे घर
में फ़ोन नहीं है. कब उसने बम्बई में अपने चाचा जी से ट्रंक कॉल करके बात की, कब उसके पापा को प्रदेश के गृह-मंत्री का फ़ोन आया और कब-कब
उसके पापा और जिलाधीश महोदय की आपस में फ़ोन पर बात हुई, इसकी सारी ख़बर, हमको नियमित रूप से मिलती
रहती थी.
बाराबंकी
के ऑफिसर्स’ क्लब में हम दोनों टेबल
टेनिस खेलने जाते थे. वहां एक बिलियर्ड्स टेबल भी थी पर उसमें उन दिनों में भी
खेलने का प्रति घंटे एक रुपया चार्ज था. हमारे स्मार्ट कृष्ण कुमार ने बिलियर्ड्स
टेबल पर चुपके से चाकू लेकर नक्काशी कर दी. उस सस्ते ज़माने में बिलियर्ड्स टेबल पर
नया कपड़ा चढ़ाने में दो हज़ार का खर्चा आना था. क्षति-ग्रस्त बिलियर्ड्स टेबल को
कामचलाऊ बना कर सब के लिए फ्री में उपलब्ध कर दिया गया. अब कृष्ण कुमार और मैं भी
बिलियर्ड्स प्लयेर बन गए. उन दिनों बिलियर्ड्स में हमारे विल्सन जोंस और माइकल
फ़रेरा का दुनिया भर में नाम था. अब बाराबंकी के ऑफिसर्स’ क्लब में दो और बिलियर्ड्स चैंपियन तैयार हो रहे थे. कृष्ण
कुमार ने अपनी ज़िंदगी में एक यही ऐसा काम किया था जिसके लिए मैं आज भी उसका
शुक्रगुज़ार हूँ.
कृष्ण
कुमार पढ़ाई में कद्दू था. घर में उसे दो मास्साब पढ़ाने आते थे लेकिन उनकी मदद से
वो सिर्फ़ अपना होम-वर्क कर लेता था. उसके बाक़ी भाई-बहन पढ़ने में बहुत अच्छे थे
लेकिन उसकी गणना हमारे क्लास के सबसे फिसड्डी लड़कों में होती थी और दूसरी तरफ़ मेरी
गणना क्लास के अच्छे विद्यार्थियों में की जाती थी. त्रैमासिक परीक्षा में मुझे
क्लास में सर्वाधिक अंक प्राप्त हुए. भाई कृष्ण कुमार को यह बात बिलकुल हज़म नहीं
हुई. मुझसे बदला लेने के लिए उन्होंने नए सिरे से - आला अफ़सर के बेटे और छोटे अफ़सर
के बेटे वाला पुराना मुद्दा उठा लिया.
कृष्ण
कुमार मुझे बताते –
‘हम लोग जीप से जा रहे थे कि रास्ते में तुम्हारे पापा हमको साइकिल पर जाते हुए दिखाई दिए.’
अब ज़ाहिर था कि अगर पिताजी साइकिल से ही यहाँ-वहां जाते थे तो वो किसी को भी साइकिल चलाते हुए दिखाई दे सकते थे.
‘हम लोग जीप से जा रहे थे कि रास्ते में तुम्हारे पापा हमको साइकिल पर जाते हुए दिखाई दिए.’
अब ज़ाहिर था कि अगर पिताजी साइकिल से ही यहाँ-वहां जाते थे तो वो किसी को भी साइकिल चलाते हुए दिखाई दे सकते थे.
बाराबंकी
वालों को देवा मेला का हर साल इंतज़ार रहता था. हम लोग भी कवि-सम्मलेन, मुशायरा, क़व्वाली और म्यूजिक
कांफ्रेंस वाले दिनों में वहां ज़रूर जाते थे. देवा मेले में भी अफ़सरी ठाठ का नक्शा
लेने में कृष्ण कुमार पीछे नहीं रहता था. उसका अंदाज़ कुछ ऐसा होता था –
‘म्यूजिक कांफ्रेंस वाले दिन
मैंने तुम लोगों को देखा था. हम लोग तो आगे सोफ़े पर बैठे हुए थे और तुम लोग पांचवी लाइन में कुर्सियों पर बैठे थे.’
‘कमला सर्कस में तो मज़ा आ
गया. हम वीआईपी लोगों को तो मिठाई भी खाने को मिली. मैंने तो स्टेज पर जाकर जोकर
से हाथ भी मिलाया था. तुम लोगों को तो पीछे बैठकर साफ़-साफ़ दिखाई भी नहीं दे रहा
होगा.’
खून
का घूँट पी कर मैंने बताया कि हम लोग कमला सर्कस देखने गए ही नहीं थे.
मेरे
सब्र का पैमाना अब छलकने वाला था. आला अफ़सर और छोटा अफ़सर वाला यह खेल मेरे लिए
क़ाबिले-बर्दाश्त नहीं रह गया था. दरोगा तो दरोगा,
इन
दिनों तो कृष्ण कुमार के अनुसार कोतवाल और डी. एस. पी. भी उसे सलाम करने लगे थे.
लेकिन कृष्ण कुमार ने जब यह जतलाना शुरू किया कि एक एस. पी. के बेटे का खुद का
स्टेटस भी एक जुडिशियल मजिस्ट्रेट से ऊपर होता है तो मुझमें विस्फोट होना लाज़मी
था.
कृष्ण
कुमार की इन बदतमीज़ियों को ख़त्म करने का एक ही तरीक़ा था कि मैं उसको पटक-पटक कर
मारूं लेकिन यहाँ उसका जूडो-कराटे प्रशिक्षण मुझे रोक रहा था. कृष्ण कुमार अपनी
नंगी हथेलियों से लकड़ी के मोटे-मोटे पटरे और ईंट तोड़ने के दावे करता था. मेरा जैसा
गोलू-मोलू लड़का उस जैसे जूडो के तथाकथित ब्राउन-बेल्ट होल्डर का मुक़ाबला कैसे कर
सकता था?
मैंने
कृष्ण कुमार से बात करना बंद कर दिया लेकिन मेरे साथ उसकी छेड़ा-छाड़ी रुकी नहीं. एक
दिन मैं कॉलेज से वापस घर जा रहा था. पीछे से साइकिल पर आकर उसने मेरे सर पर चपत
मारी और मुझे ''प्यादा बाबू’ कहकर मुझसे आगे निकल गया.
मैंने
आव देखा न ताव, दौड़कर उसकी साइकिल का
कैरियर पकड़ कर उसकी साइकिल खींच कर पलट दी. हमारे तथा-कथित जूडो चैंपियन साइकिल से
छिटक कर दूर जाकर गिर पड़े और मैं हैवी-वेट उनकी छाती पर चढ़ कर उन पर दनादन घूंसे
बरसाने लगा.
आठ-दस
मुक्के खाकर जूडो-चैंपियन तो ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाने लगा. लेकिन मैं न तो अपने हाथ चलाना रोक रहा था
और न ही अपनी ज़ुबान. एक मुक्का और एक गाली (शुद्ध शाकाहारी वाली) उसकी जीप की
सवारी के नाम पर, तो एक मुक्का और एक गाली
उसकी फ़ोन वार्ता की ठसक पर, एक मुक्का उसको सैल्यूट
करने वालों के नाम पर, तो एक गाली उसके वीआईपी
स्टेटस के नाम पर. आखिरकार हमारे दो-चार दोस्तों ने आकर हम दोनों को अलग किया.
धूल-धूसरित, घायल और अपमानित हमारे एस. पी. पुत्र, रोते-रोते, नाक पोंछते-पोंछते, मेरे समूचे खानदान को जेल भिजवाने की धमकी दे रहे थे लेकिन
इन धमकियों से अब कोई भी सहम नहीं रहा था. एक तरफ़ मैं पिछले पांच-छह महीनों से
अपनी इंतकाम की सुलगती आग को उसके आख़िरी अंजाम तक पहुँचाने पर खुश हो रहा था तो
दूसरी तरफ़ हमारे कई साथी इस एक-तरफ़ा कुश्ती को देख कर हंस रहे थे.
अपने
कपड़ों की धूल झाड़ते हुए घायल कृष्ण कुमार जाते-जाते मुझे कल से कॉलेज न आने की और
आज से ही ऑफिसर्स क्लब में न जाने की हिदायत दे गए क्योंकि इन दोनों जगहों पर
पहुँचते ही दो-चार सिपाही डंडों से मेरी आव-भगत करने को नियुक्त किए जाने वाले थे.
लेकिन जब ओखली में मैंने अपना सर डाल ही दिया था तो मूसलों से डरने का दौर भी मेरे
लिए ऑटोमैटिकली दूर हो गया था. उसी शाम को मैं भयभीत हुए बिना ऑफिसर्स क्लब पहुँच
गया. डंडाधारी सिपाही-सेना तब तक वहां नहीं पहुँची थी और तो और, कृष्ण कुमार भी वहां नज़र नहीं आ रहा था. सबसे आश्चर्य की
बात तो यह थी कि पिताजी और आला अफ़सर, हमारे एस. पी. साहब यानी कि
कृष्ण कुमार के पापा, दोनों टेनिस खेल रहे थे.
मैं उन दोनों का खेल देखते हुए कृष्ण कुमार का और उसकी डंडाधारी-सेना का इंतज़ार
करने लगा.
कुछ
देर बाद डंडाधारी सिपाही-सेना के बिना ही कृष्ण कुमार मुझे साइकिल पर आता हुआ
दिखाई दिया. मुझे निषिद्ध-स्थान पर देखकर उसकी हालत पतली हो गयी. ऊपर से मेरे
पिताजी और अपने पापा को वहां मौजूद देख कर तो उसके चेहरे से हवाइयां उड़ने लगीं.
मैं उसकी डांवाडोल स्थिति को तुरंत भांप गया. मैंने हेकड़ी जताते हुए उस से पूछा –
‘हाँ तो जूडो चैंपियन, एस. पी. पुत्र, कृष्ण कुमार ! तुम्हारी फ़ौज
कहाँ है? तुम तो मेरी हड्डियाँ तुड़वाने
वाले थे? अब तो छोटे अफ़सर, यानी कि मेरे पिताजी भी यहीं हैं और आला अफ़सर, यानी कि तुम्हारे पापा भी यहीं हैं. बताओ, मेरी कुटम्मस करवा के तुम मुझे कब जेल भिजवा रहे हो?’
साहबे-आलम, आला अफ़सर के शहज़ादे, भाई कृष्ण कुमार ने हाथ
जोड़ते हुए मुझ से कहा –
'गोपेश, कॉलेज में जो हुआ उसे भूल जाओ. चलो फिर से दोस्ती कर लेते
हैं.’
मैं
पहले ही तय कर चुका था की इस शेखी-खोरे के साए से भी खुद को दूर रक्खूँगा. मैंने
सख्ती से कहा –
‘मुझ मामूली लड़के की तुम
जैसे शहज़ादे से दोस्ती हो ही नहीं सकती. अभी तो तुम्हारी सारी हरक़तें मैं पिताजी
को और तुम्हारे पापा को बताने वाला हूँ.’
अपने
कान पकड़ते हुए कृष्ण कुमार ने आज़िज़ी से कहा –
‘तुम कॉलेज जैसी तुड़ाई चाहे
एक फिर कर दो पर अंकल से और पापा से मेरी शिकायत मत करो. अच्छा, ये सब बातें छोड़ो ! ये बताओ ‘बिलियर्ड्स खेलोगे?’
मैंने
कुछ देर सोचा फिर मैं रौब से बोला –
‘नहीं ! आज हम टेबल टेनिस
खेलेंगे. ’
कृष्ण
कुमार ने विनम्रता से जवाब दिया –
‘ठीक है ! हम आज टेबल टेनिस
ही खेलेंगे. भला मैं कहीं अपने सबसे अच्छे और अपने सबसे पक्के दोस्त की बात टाल
सकता हूँ?’
उस दिन के बाद से मैं और कृष्ण कुमार वाक़ई अच्छे और पक्के
दोस्त बन गए. फिर न तो कभी कोई छोटा अफ़सर हमारी बातचीत में आया और न ही कभी कोई
आला अफ़सर हमारी दोस्ती में बाधक बना. हमारी दोस्ती में छोटे-बड़े का फ़र्क
हमेशा-हमेशा के लिए मिट गया. और इस प्रकार सच्चे अर्थों में उसी दिन से भारत में
समाजवादी और साम्यवादी मूल्यों की स्थापना हुई.
बहुत बढ़िया। बहुत जगह बहुत से लोगों को कूटने की तीव्र इच्छा होते हुऐ भी मन मसोस कर रह जाना पड़ता है। चलिये आपने कुछ तो किया :)
जवाब देंहटाएंमित्र, कुछ दुष्टों को कूटने की हमारी इच्छा तो अल्मोड़ा में भी थी लेकिन वहां हमको भी तुम्हारी तरह मन मसोस कर रह जाना पड़ा था और आज भी हम-तुम कितने महापुरुषों की बेढब लीलाओं को गांधीवादी बनकर चुपचाप सहन कर रहे हैं, इसका हिसाब कर पाना भी कठिन है.
हटाएंबहुत दिनों के बाद आप का लिखा सुन्दर और रोचक संस्मरण पढ़ने को मिला ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी, यादों के पिटारे से बहुत सी कहानियां निकाल चुका हूँ लेकिन अभी भी जिनको याद कर गुदगुदी होती है, उन्हें मित्रों के साथ साझा कर लेता हूँ.
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15 -06-2019) को "पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक- 3367) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आगामी 'चर्चा अंक - 3367' में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता जी. आप सबका स्नेह मेरे साहित्य-सृजन को प्रोत्साहित करता है.
हटाएंआदरणीय गोपेश जी, बहुत मजा आया पढ़कर। आगे भी आपके संस्मरणों को मैं जरूर पढ़ना चाहूँगी। संस्मरण तो बहुत से लोग लिखते हैं पर आपकी शैली की कायल हूँ मैं तो।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी.
जवाब देंहटाएंहम सबके जीवन में बहुत कुछ रोचक और मज़ेदार घटनाएँ होती हैं. उन सबको अगर मित्रों के साथ साझा किया जाए तो आनंद आता है.
चुच्चू कद्दू कन्हैया को मस्त पेला आपने ...
जवाब देंहटाएंऐसे करेक्टर बहुत होते थे अपन लोगों के ज़माने में ... अब कम हो गए हैं ... पर दोस्ती लम्बी रहती थी हो जाने के बाद उनसे ...
अच्छा संस्मरण ...
धन्यवाद दिगंबर नासवा जी. उस ऐतिहासिक एक-तरफ़ा लड़ाई के बाद हम दोनों में जो दोस्ती हुई वो फिर कभी टूटी नहीं लेकिन 1979 से हमारा आपसी संपर्क ज़रूर टूट गया. कृष्ण कुमार के साथ मज़े की गुज़री. उनमें कुछ और यादें आप सबके साथ साझा करूंगा.
हटाएंबहुत रोचक संस्मरण,गोपेश जी।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति जी. इस उम्र में भी अपनी पुरानी शरारतें, मस्तियाँ और गुस्ताखियाँ याद करने में मुझे बड़ा आनंद आता है.
हटाएं