भगवान हज़ारों बन्दों में से किसी एक की आँखों को एक्सरे-शक्ति प्रदान करता है.
इस एक्सरे-शक्ति से वह शख्स लिफ़ाफ़े के अन्दर रखे ख़त में लिखे मजमून को बिना लिफ़ाफ़ा खोले पढ़ सकता है.
वह हमारे दिल के अन्दर चल रही खुराफ़ातों को बखूबी जान सकता है और अपने दिव्य-लाइ डिटेक्टर से हमारी ज़ुबान से निकली हर बात के अन्दर छुपे हुए झूठ को बेनक़ाब कर सकता है.
ऐसी दिव्य-शक्ति प्राप्त व्यक्ति के प्रति हम श्रद्धा-भाव व्यक्त करते हैं किन्तु जब घर में ही ऐसी कोई शख्सियत मौजूद हो तो मन में श्रद्धा के साथ भय का संचार भी होता है.
तुलसीदास जी के शब्दों में हम कह उठते हैं–
‘पीपर पात सरिस मन डोला’
एक जुडिशिअल मजिस्ट्रेट की संतान होने के हमको बड़े फ़ायदे थे.
रौब-दाब और आराम के साथ हमारा बचपन बीता.
लोगबाग़ हमारी खुशकिस्मती पर रश्क करते थे पर उन जलने वालों में से किसी ने घर में ख़त को खोले बिना ही उसका मजमून भांपने वाले मजिस्ट्रेट साहब की दिव्य-एक्सरे शक्ति से होने से होने वाली हमारी परेशानियों के बारे में नहीं सोचा था.
किसी और घर में तो लड़का क़त्ल कर के भी आ जाए तो घर वाले उसे अदालत में क़ातिल सिद्ध किए जाने तक भोला मासूम और निर्दोष ही समझते हैं लेकिन हमारे घर में अगर लड़का किसी को चपतिया कर भी आ जाता था या उसकी जेब से कोई अंजाना फ़ाउंटेन पेन भी निकल आता था तो हमारे पिताजी आँखों ही आँखों से उसके ख़िलाफ़ मजिस्ट्रेट इन्क्क्वायरी बिठा दिया करते थे.
बिना ख़त खोले ख़त का मजमून भांप लेने की पिताजी की दिव्य-शक्ति का एक दिलचस्प किस्सा याद आ रहा है -
हमारी मझली बुआ की शादी के लिए एक लड़के से बात लगभग तय हो गयी थी. लड़के ने ओवरसीयर (आज का जूनियर इंजिनियर) की परीक्षा उत्तीर्ण कर इंजिनियर बनने के लिए ए० एम० आई० की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली थी और वह शीघ्र ही उत्तर प्रदेश सरकार के पी० डब्लू० डी० में असिस्टेंट इंजिनियर के पद पर अपनी पहली पोस्टिंग पर जाने वाला था.
पिताजी को पता नहीं क्यों उस लड़के के बताए हुए बयान पर शक हो गया. उन्होंने जब उस से अपने हाकिमी स्टाइल में उसके कॉलेज और उसकी नौकरी के बारे में कुछ सवालात पूछे तो उसने अटकते-भटकते-बहकते से जवाब दिए.
पिताजी ने बाबा को आगाह किया कि कोई भी लड़का अपनी पढ़ाई और नौकरी के बारे में ऐसे अटक-अटक कर तभी जवाब देता है जब कि वह सरासर झूठ बोल रहा हो.
पिताजी के अनुरोध पर बाबा ने रिश्ता पक्का करने की रस्म कुछ समय के लिए टाल दी.
अब पिताजी की विधिवत मजिस्ट्रेट इन्क्वायरी शुरू हो गयी और पंद्रह दिन में ही पता चल गया कि उन साहबज़ादे ने न तो बताए गए
संस्थान से ए० एम० आई० किया था और न ही वो पी० डब्लू० डी० में बताई गयी जगह पर असिस्टेंट इंजिनियर थे.
पिताजी की इन दिव्य-शक्तियुक्त आँखों से उनके चपरासी बड़े भयभीत रहते थे.
बाराबंकी में हमारे यहाँ मिथिलेश पंडित नामक एक चपरासी हुआ करता था. पंडित हमारे घर का सौदा लाने में नियमपूर्वक डंडी मारा करता था. हमारे बंगले में लगे आधा दर्जन जामुन के पेड़ सारे बाराबंकी में मशहूर थे. पिताजी के साथी अफ़सरों में इन जामुनों की बड़ी डिमांड रहा करती थी और एक्सचेंज ऑफ़र के अंतर्गत उनके यहाँ से भी फल-सब्ज़ी इफ़रात में आया करते थे.
पंडित को हमारे जामुनों के पेड़ों से बड़ा प्यार था. पंडित खुद तो पेड़ पर नहीं चढ़ पाता था पर किसी राह चलते मोगली को जामुनों का लालच दे कर वह उस से ढेरों जामुन तुड़वा कर जामुनों का बंदर बाँट कर उनमें से कुछ जामुन उस मोगली को दे कर कुछ हमको दे कर बाक़ी के आधे से ज़्यादा जामुन अपने क़ब्ज़े में कर लेता था.
एक बार पंडित बाज़ार से बड़े अच्छे किस्म के एक सैकड़ा नीबू तीन रूपये में ले आया. माँ तो इतने सस्ते नीबू पा कर मगन हो गईं लेकिन पिताजी को कुछ दाल में काला नज़र आने लगा. उन्होंने बहुत कैज़ुअली पंडित से पूछा –
‘अब्बास साहब कैसे हैं?’ (जामुन-प्रेमी डिप्टी कलेक्टर अब्बास साहब पिताजी के मित्र थे और उनका बंगला नीबू के पेड़ों के लिए मशहूर था)
पंडित ने तपाक से जवाब दिया –
‘अच्छे हैं ! आपको सलाम भेजा है !’
अपने जवाब पर खुद ही फंसे पंडित ने चुपचाप एक सैकड़ा नीबू के वसूले हुए तीन रूपये माँ के चरणों में चढ़ा दिए.
झांसी में बी० ए० करने के दौरान हम महीने में तीन फ़िल्में चोरी से और एक फ़िल्म सीनाज़ोरी से देखा करते थे पर पिताजी तक पता नहीं कैसे, हमारी इन चोरी से देखी गयी फ़िल्मों की ख़बर पहुँच जाया करती थी.
लोकल अखबार में फ़िल्मों के विज्ञापन देख कर पिताजी माँ को हमारे कॉलेज से लौटने से पहले ही बता दिया करते थे कि हम कौन सी फ़िल्म देख कर घर वापस आने वाले हैं.
रिटायर हो कर पिता जी लखनऊ में प्रैक्टिस करने लगे थे.
एक बार हमारी बुआजी का बेटा जिसकी कि कई टैक्सियाँ चलती थीं उन्हें खोजता हुआ कोर्ट पहुँच गया.
भांजे ने मामा श्री के चरणों का स्पर्श किया तो उन्होंने उसे आशीर्वाद देने के बजाय एक सवाल दाग दिया –
‘बर्खुरदार, तुम्हारी टैक्सी किस इल्ज़ाम में ज़ब्त की गयी है?’
भांजे ने हैरत से पूछा –
‘मामा जी, हमारी टैक्सी ज़ब्त हो गयी है, यह आपको कैसे पता चला?’
मामा श्री ने जवाब दिया –
‘तो क्या तुम मेरे पैर छूने के लिए मुझे कोर्ट में खोज रहे थे?’
अब एक पुराना किस्सा -
पिताजी को अपनी ससुराल में वी० आई० पी० ट्रीटमेंट मिलता था.
संयुक्त परिवार के उनके डेड़ दर्जन साले उन्हें अपना हीरो मानते थे. पिताजी भी अपने सालों को बड़ा प्यार करते थे.
हाईस्कूल में पढ़ने वाले हमारे एक मामा को हीरो बनने का चस्का लग गया था.
हर पंद्रह मिनट बाद वो अपनी पैंट की पिछली जेब से कंघा निकाल कर अपनी ज़ुल्फों को संवारा करते थे.
एक बार हमारे हीरो मामा ने पिताजी के सामने ही अपनी ज़ुल्फ़ें सँवारने के लिए अपना कंघा निकाला तो उनकी जेब से कंघे के साथ ताश के पत्ते की पान की बेगम भी निकल पड़ीं.
पिताजी ने उनको घूरते हुए पूछा –
‘क्यों जनाब. क्या ये बेगम साहिबा भी आपके कंघे के साथ आपके पहलू में रहती हैं?’
मामा जनाब ने हें-हें करते हुए हाथ जोड़ कर अपने जीजाजी के सवाल का जवाब गोल कर दिया.
अब इस वाक़ए के दो दिन बाद ही एक हादसा हो गया.
हमारे यही हीरो मामा रोते-बिसूरते हुए बदहवासी की हालत में घर पहुंचे.
घर से दो-तीन मील दूर वो अपनी साइकिल से जंगली रास्ते से गुज़र रहे थे कि एक भेड़िया उनका पीछा करने लगा. मामा अपनी साइकिल छोड़ कर एक पेड़ पर चढ़ गए. अपने शिकार को पेड़ पर चढ़ा देख कर भेड़िया तो कुछ देर बाद दूर चला गया लेकिन जब मामा उतरे तो तब तक उनकी साइकिल गायब हो चुकी थी.
हीरो मामा की दर्द भरी रोमांचक गाथा सुन कर सब बड़े-बूढ़े कह रहे थे –
‘साइकिल गयी तो क्या हुआ, बच्चे की जान तो बच गयी !’
इस करुण गाथा को सुन कर हीरो के मजिस्ट्रेट जीजाजी की प्रतिक्रिया थोड़ी भिन्न थी.
उन्होंने अपने हीरो साले के गाल पर एक झन्नाटेदार झापड़ रसीद करते हुए डपट कर उन से पूछा –
‘इस भेड़िये से जुए में तुम कितने रूपये हारे थे जो उसने तुम्हारी साइकिल ज़ब्त कर ली?’
हीरो मामा ने पिताजी के चरण पकड़ कर रोते-रोते जवाब दिया –
‘पच्चीस रूपये ! जीजाजी !’
आगे की कथा सुखान्त है.
उस भेड़िये रूपी लड़के से बिना कुछ लिए-दिए हीरो मामा की साइकिल छुड़ाई गयी. फिर शिकार और शिकारी दोनों की कान-पकड़ाई और हलकी सी ठुकाई के बाद उनको अगली बार जुआ खेलने पर जेल की हवा खिलाने की धमकी भी दी गयी.
पिताजी के स्वर्गवास को तो अट्ठाईस साल होने आ रहे हैं पर उनकी लाइ डिटेक्टर वाली दिव्य-शक्ति हमारी श्रीमती जी में और हमारी बेटियों में स्थानांतरित हो गयी है.
हम जब भी कोई गड़बड़ वाला काम कर के भोला और नादान होने का अभिनय करते हैं तो फ़ौरन पकड़े जाते हैं.
ख़त का मजमून भांपने वालों के घर में रहते हुए हमको किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता था और आज भी मुल्ज़िम बन कर कितनी बार कठघरे में खड़ा होना पड़ता है, इसका हिसाब लगाने के लिए तो किसी सुपर कंप्यूटर की सेवाएँ लेना ज़रूरी हो जाएगा.
सच में जो लोग कुछ गड़बड़ करने वाले होते है उन लोगो को ऎसे पिता से डर लगना स्वाभाविक है।
जवाब देंहटाएंज्योति, हम तो बार-बार पकड़े जाने पर भी गुस्ताखियाँ करने से बाज़ नहीं आते थे. वैसे पिताजी के हिसाब से हमारे ये गुनाह कान-पकड़ाई या जेब-खर्च रुकवाई से ज़्यादा सज़ा के लायक़ नहीं हुआ करते थे.
हटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण को 'लाजवाब' बताने के लिए शुक्रिया दोस्त !
हटाएं'मंगल-बेला' (चर्चा अंक - 4227) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कामिनी सिन्हा जी.
जवाब देंहटाएंशानदार संस्मरण और अभिव्यक्ति, हमेशा की तरह रोचक मनोरंजक।
जवाब देंहटाएंहौसलाअफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया मन की वीणा !
हटाएंबहुत सुंदर संस्मरण आदरणीय।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद अनुराधा जी.
हटाएंबहुत शानदार, मजेदार संस्मरण,सुबह बन गई, मैं और मेरी बेटी दोनों साथ साथ आनंद लिए हैं,इस लेख का, मैं अपनी बेटी को अक्सर ऐसे ही भांप लेती हूं, कुछ दिन बाद वो मुझे भांपेगी 😀😀
जवाब देंहटाएंसंस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा ! शरलॉक होम्स के गुणों वाली माँ की बेटी में अगाथा क्रिस्टी के गुण तो होने ही चाहिए.
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