1947 में दो खुशख़बरियां एक साथ आई थीं. एक खुशख़बरी तो भारत के आज़ाद होने की थी और दूसरी खुशख़बरी थी – तीन बार गोते खाने के बाद शहरे-लखनऊ की शान, बाबू चुन्नीलाल के वक़ालत पास करने की.
बाबू चुन्नीलाल के इस भागीरथ प्रयास की सफलता की खुशी में उनके पिताजी ने मोहल्ले भर में लड्डू बटवाए थे, उनके लिए एक बढ़िया सा काला कोट सिलवाया था, मक्खनजीन की दो झकाझक सफ़ेद पैंट और पॉपुलीन की दो सफ़ेद कमीज़ें बनवाई थीं. इन सब के अलावा उन्हें एक नई साइकिल भी दिलवाई गयी थी.
कहने को तो बाबू चुन्नी लाल वकील थे पर अदालतों में अपने मुवक्किलों का मुक़द्दमा लड़ते हुए उन्हें शायद ही किसी ने देखा हो. उनकी आमदनी
का असली ज़रिया मिडिलमैन यानी कि मध्यस्थ की भूमिका निभाने का था.
अगर किसी जेबकतरे को या किसी उठाईगीरे को, पुलिस वालों ने रंगे हाथ पकड़ लिया हो तो वो उन्हें कुछ दे-दिवा कर मामले के दर्ज होने से पहले ही उसे रफ़ा-दफ़ा करवा सकते थे. ऐसे पुण्य-कार्य से पुलिस वालों के साथ उनकी अपनी भी चांदी हो जाती थी और इसके साथ ही साथ कागजी तौर पर लखनऊ शहर अपराध-मुक्त भी रहता था.
बाबू चुन्नीलाल एक महा-रिश्वतखोर फ़ूड इंस्पेक्टर के बड़े खासुलखास थे. इंस्पेक्टर साहब जब भी किसी हलवाई की दुकान पर छापा मारने जाते थे तो बाबू चुन्नी लाल को उसकी अग्रिम सूचना दे देते थे.
नकली खोए की मिठाइयाँ पकड़े जाने पर अगर वो पांच सौ रूपये में अपराधी हलवाई को बेदाग छुड़वा देते थे तो उसका एक चौथाई हिस्सा इंस्पेक्टर इंस्पेक्टर साहब खुश हो कर उन्हें प्रदान कर दिया करते थे.
परचून की दुकान वाले लाला लोग तो बाबू चुन्नीलाल के सहारे धड़ल्ले से वनस्पति घी मिला देसी घी और रामरज मिली हुई हल्दी बेचा करते थे और इस चोरी की कमाई में हुए लाभ को लाला लोग, फ़ूड इंस्पेक्टर और बाबू चुन्नीलाल, आपस में क्रमशः – चार-दो-एक के अनुपात में बाँट लिया करते थे.
हमारे वक़ील बाबू की आमदनी कम थी पर उनका खर्चा उसका आधा भी नहीं था. पैसा आते हुए तो उनको अच्छा लगता था पर उसको जाते हुए देख पाना वो क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.
अपने पुश्तैनी मकान में रहते हुए, अपने पिताजी के सच्चे सपूत ने उनकी भेंटों के सहारे अगले बाईस साल काट दिए थे लेकिन उनके पूर्णतया छिन्न-भिन्न और जीर्ण-क्षीण होने के बाद निक्सन मार्केट से कौड़ियों के दाम में दो सफ़ेद पैंटें, दो सफ़ेद कमीज़ें और एक काला कोट, खरीद कर उसने ख़ुद को फिर से राम जेठमलानी जैसा अपटूडेट कर लिया था.
अपने पिताजी की खटारा साइकिल को रिटायर करने का बाबू चुन्नीलाल का कोई इरादा नहीं था लेकिन उनके क्लाइंट अमजद उठाईगीरे ने उनके पुराने एहसान चुकाने की खातिर उन्हें कानपुर से उठाई हुई एक चमचमाती साइकिल प्रदान कर दी.
नत्थूलाल पंसारी वक़ील बाबू का रेगुलर क्लाइंट था. पता नहीं कितनी बार उन्होंने उसे जेल जाने से और मोटा जुर्माना भरने से बचाया था. लेकिन इस कमबख्त नत्थूलाल ने उन्हें कभी भी एक धेला मेहनताना या एक चवन्नी नज़राना नहीं दिया था.
हाँ, वह उन्हें चूहों के कुतरे हुए बिस्किट के, नमकीन के, पैकेट्स और सीले हुए पापड़, मसाले वगैरा मुफ़्त में दे दिया करता था.
घुन लगे आटा-दाल-चावल, चींटी पड़ी चीनी, खुली चाय के चूरे, साबुन के टुकड़े आदि के वह उन से बहुत कम पैसे लिया करता था.
लेकिन बाबू चुन्नीलाल के सभी क्लाइंट्स उनके लिए नत्थूलाल जितने उपयोगी नहीं थे.
गुप्ता बारात घर वाला गुप्ता तो एक नंबर का बेईमान निकला था. जिन दिनों शादी में सिर्फ़ पचास मेहमानों को बुलाने की इजाज़त थी, उन दिनों में वह धड़ल्ले से तीन सौ-चार सौ लोगों की दावत करा रहा था. जब वह ऐसा संगीन गुनाह करते हुए पकड़ा गया तो बाबू चुन्नीलाल ने ही उसे पुलिस के चंगुल से छुड़वाया था.
पुलिस वाले तो पूरे एक हज़ार ले कर विदा हुए लेकिन संकटमोचक बने बाबू चुन्नीलाल को वादे के दो सौ की जगह फ़क़त मिठाई का एक डिब्बा पकड़ाया गया था.
बाबू चुन्नीलाल ने उस दुष्ट गुप्ता को उसके अगले अपराध में अगर फांसी की नहीं तो कम से कम काले पानी की सज़ा दिलवाने की तो ठान ही ली थी.
अपने बच्चों के विवाह के विषय में बाबू चुन्नीलाल के दोहरे मापदंड थे. उनकी बेटी चित्रा ने जब अपने ही गुरु जी, विजातीय प्रेम कुमार से प्रेम-विवाह करने की इच्छा जताई तो उन्होंने उसका पुरज़ोर समर्थन किया और उसकी माँ के विरोध के बावजूद आर्यसमाज मन्दिर में उसका आदर्श विवाह करा दिया.
बिना दान-दहेज़ की इस शादी में प्रगतिशील पिता ने कुल जमा साढ़े पंद्रह सौ रूपये खर्च किए थे लेकिन ओवरसियर का कोर्स कर रहे अपने होनहार बेटे कुलदीप की शादी में उनकी योजना कम से कम पचास हज़ार का दहेज़ लेने की थी.
चित्रा अब अपने पति के घर में सुखी थी और उसके पिता उससे भी ज़्यादा सुखी थे क्योंकि एक तरफ़ उनके सर से बेटी के लालन-पालन का बोझ पूरी तरह से उतर गया था और दूसरी तरफ़ उनका बेटा कुलदीप एक साल के अन्दर ही कमाऊ पूत होने वाला था.
बाबू चुन्नीलाल के दिन अच्छे बीत रहे थे.
एक शाम भरी जेब ले कर वो बड़े अच्छे मूड में अपने घर पहुंचे लेकिन उनकी धर्मपत्नी अंगूरी देवी के दो वाक्यों ने उनका मूड ख़राब कर दिया. अंगूरी देवी के ये दो खतरनाक वाक्य थे –
‘हमारे प्रेम कुमार जी एक सेमिनार में लखनऊ आए हुए हैं. मैंने उन्हें और उनके दोस्तों को आज रात खाने पर बुलाया है.’
अपने सीने पर पत्थर रखते हुए कराहती आवाज़ में बाबू चुन्नीलाल ने अंगूरी देवी से पूछा –
‘प्रेम कुमार कितने दोस्तों को ले कर आ रहे हैं?’
अंगूरी देवी ने जवाब दिया –
‘यूँ तो उनके साथ बारह लोग हैं पर प्रेम कुमार अपने सिर्फ़ छह दोस्त ले कर हमारे यहाँ आएँगे.
और सुनो ! नत्थूलाल पंसारी के खैराती और घटिया सामान से दामाद जी की खातिर नहीं होगी. तुम बत्रा स्टोर्स से बढ़िया वाले चावल, दाल, बेसन, मसाले और देसी घी ले आना.
राधे हलवाई के यहाँ से आधा किलो पनीर ले आना और दो तरह की आधा-आधा किलो मिठाई भी ! और हाँ, आधा किलो अच्छा वाला नमकीन भी लाना होगा.’
बाबू चुन्नीलाल ने बड़े धीमे स्वर में प्रतिवाद किया –
‘नमकीन का पैकेट तो अपने घर में ही है.’
अंगूरी देवी ने अपने पतिदेव को झिड़कते हुए उन से पूछा –
‘खैरात में मिले हुए चूहों के कुतरे, सीले नमकीन को क्या तुम दामाद जी को और उनके दोस्तों को खिलाओगे?'
अपने पति को एक और झटका देते हुए अंगूरी देवी बोलीं -
'दो-तीन बढ़िया वाली सब्ज़ियाँ और कुछ अच्छे फल भी लेते आना.’
दुखी मन से अपनी साइकिल चलाते हुए बाबू चुन्नीलाल मन ही मन हिसाब लगा रहे थे –
‘आधा किलो बासमती चावल तीन रूपये के, आधा किलो दाल दो रूपये की, आधा किलो बेसन दो रूपये का, ढाई सौ ग्राम देसी घी चार रूपये का, आधा किलो पनीर चार रूपये का, आधा-आधा किलो मिठाई आठ-आठ रूपये की और आधा किलो नमकीन चार रूपये का और सब्ज़ी-फल कम से कम दस रूपये के !
हे भगवान ! ये तो मुझे कुल पैंतालिस रूपये का चूना लगने वाला है.
इस अंगूरी की बच्ची को तो मैं कभी माफ़ नहीं करूंगा.
दामाद को तो बुलाना ठीक था पर उसके साथ इन छह मुस्टंडों को बुलाने की क्या ज़रुरत थी?’
ऐसा ही हिसाब लगाते हुए अपनी साइकिल पर बाबू चुन्नीलाल गुप्ता बारात घर को क्रॉस कर के चले जा रहे थे कि उन्हें उनके पीछे से किसी ने – ‘वक़ील साहब’ कह कर पुकारा.
चुन्नीलाल जी ने पलट कर देखा तो गुप्ता बारात घर वाला गुप्ता उन्हें बुला रहा है. उनका मन तो किया कि दुष्ट गुप्ता की पुकार को अनदेखा-अनसुना कर के वो आगे बढ़ जाएं पर न जाने क्या सोच कर वो रुक गए.
गुप्ता बाबू चुन्नीलाल के पास आया और उनका हाथ पकड़ कर कहने लगा –
‘वकील साहब, मुझे पता है कि आप मुझ से बहुत नाराज़ हैं पर आज मैं आपकी सारी नाराज़गी मिटा दूंगा. आप मेरे साथ बारात घर चलिए.’
गुप्ता बारात घर में घुसते ही बाबू चुन्नीलाल की नाक में सुगन्धित पकवानों की ख़ुशबू समा गयी.
वाह ! क्या-क्या मिठाइयाँ थीं, क्या पूड़ियाँ थीं, क्या कचौड़ियाँ थीं, क्या नान थीं, क्या दही बड़े थे, क्या शाही पनीर था, क्या दाल मखानी थी, क्या दम आलू थे, क्या पुलाव था, और क्या मटका कुल्फी थी !
बाबू चुन्नीलाल के दिल में आशा का संचार होने लगा था फिर भी बनावटी रुखाई से उन्होंने गुप्ता से पूछा –
‘तुम ये सब पकवान मुझे क्यों दिखा रहे हो?
इन्हें ख़रीदने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं.’
गुप्ता ने हाथ जोड़ते हुए कहा –
‘क्यों मुझे नरक में डालने की बात कर रहे हैं वकील साहब?
आज हमारे यहाँ दो सौ लोगों की दावत थी पर मेहमान सिर्फ़ सौ ही आए थे. तमाम सामान बचा है. गर्मियों के दिन हैं, कल तक तो सब पकवान खराब हो जाएंगे. अगर इन में से कुछ आपके काम आ जाए तो मुझे खुशी होगी.’
बाबू चुन्नीलाल ने बीस आदमियों का खाना पैक करवा लिया और कुल्फी के मटके के साथ मिठाइयों के कई डिब्बे भी.
सोने पर सुहागा वाली बात यह हुई कि गुप्ता ने अपने ठेले से सारा सामान उनके घर तक पहुंचवा भी दिया.
अंगूरी देवी और कुलदीप फटी-फटी आँखों से ठेले से उतारे जाते आइटम्स को देख रहे थे.
अंगूरी देवी ने प्यार से अपने पति से कहा –
‘दामाद की और उनके दोस्तों की खातिर करने के लिए तुम तो पूरा बाज़ार उठा लाए हो जी ! अब मुझे तो कुछ बनाना ही नहीं पड़ेगा.’
बाबू चुन्नीलाल ने हातिमताई का किरदार निभाते हुए कहा –
‘भागवान ! शादी के बाद पहली बार दामाद हमारे घर आ रहे हैं. उनकी खातिर तो शानदार होनी ही चाहिए.
आज तुम्हारा काम तो सिर्फ़ यह देखना है कि दामाद जी की और उनके दोस्तों की खातिर में कोई कमी न रह जाए.
ऐसा करो, तुम दामाद जी के छह दोस्तों को ही नहीं, बल्कि उनके सभी दोस्तों को दावत पर बुला लो.
और हाँ, हमको कंजूस कहने वाले हमारे पड़ौसी शर्मा परिवार को भी तुम इस दावत में बुलाना मत भूलना.'
हैरान-परेशान कुलदीप ने बाबू चुन्नीलाल से पूछा –
‘बाबू जी, मिठाई के इतने डिब्बों का हम क्या करेंगे?'
बाबू चुन्नीलाल ने दरियादिली से कहा –
‘काजू की कतली वाला डिब्बा तेरी दीदी के लिए है, कलाकंद वाला डिब्बा उसके सास-ससुर के लिए है और लड्डू के चार डिब्बे अड़ौस-पड़ौस में बांटने के लिए हैं.
समधियाने वाले भी क्या याद करेंगे कि किस रईस समधी से उनका पाला पड़ा है.’
इस सुखांत कथा में बस एक नया पेच जुड़ गया था -
अंगूरी देवी को और कुलदीप को लग रहा था कि बाबू चुन्नीलाल का रास्ते में अपहरण हो गया है और उनकी शक्ल का कोई दरियादिल शख्स ये सारा माल-असबाब ले कर उनके घर आ गया है.
बढिया
जवाब देंहटाएंअभी भी तीन-चार मेहमानों की गुंजाइश है.
जवाब देंहटाएंबाबू चुन्नीलाल दावत पर आपको सपरिवार आमंत्रित कर रहे हैं.
गोपेश जी , एक बार पढ़ कर देखिये , ऊपर ही कुछ पँक्तियाँ या तो मिसिंग हैं , या लिखा हुआ सब इधर उधर हो रहा है । या फिर मैं ही नहीं पढ़ पा रही हूँ ।
जवाब देंहटाएंसंगीता जी, मुझे तो कुछ भी मिसिंग नहीं लग रहा है. वैसे मेरी पिछली दो पोस्ट्स पर मित्रगण कमेंट ही नहीं कर पा रहे थे.
हटाएंमैं अपनी बेटी से कहूँगा कि वह आवश्यक सुधार कर दे. मैं तो इस मामले में बिलकुल पैदल हूँ.
अरे , आप ये पैदल वाली बात न करें ।असल में आपके ब्लॉग का टेम्पलेट ऐसा है कि मैं ही ठीक से नहीं पढ़ पाई । फ़ोन पर पढ़ना वैसे भी अब मुश्किल होता जा रहा है । कंप्यूटर खोलने का आलस्य ही कह लीजिए । साइड का काफी भाग छुट गया था ,तभी समझ नही आ रहा था । अब पूरा पढ़ कर प्रतिक्रिया दूँगी । 😄
हटाएंक्षमा सहित 🙏🙏
संगीता जी, अपने फ़ोन का तो मैं ठीक से उपयोग करना भी नहीं जानता. मेरा तो सारा काम मेरे डेस्कटॉप पर ही होता है.
हटाएंवैसे आप भी अगर डेस्कटॉप या फिर लैपटॉप पर लिखें-पढ़ें तो आपको अधिक आनंद आएगा.
वाह! भगवान जब देते हैं तो छप्पर फाड़ कर देते हैं
जवाब देंहटाएंअनिता जी, मेरे बी० ए० करने दौरान मोरारजी देसाई 1970 में झांसी आए थे. हम उन्हें देखने के लिए सर्किट हाउस पहुँच गए. हमको देख कर एक आदमी हमारे पास आया. हम समझे कि वह हमको भगाने आ रहा है पर वह शख्स हमको मोरारजी भाई के पास ले गया. हमने उनके साथ चाय, समोसे और मिठाइयों का आनंद लिया. उस दिन -'भगवान देता है तो छप्पर फाड़ कर' का मतलब मेरे समझ में आ गया था.
हटाएंअपहरण 😄😄😄😄 वैसे इतने वर्षों के साथ के बाद समझ आ जाना चाहिए था कि आज लम्बा हाथ मारा है । मज़ेदार किस्सागोई ।
जवाब देंहटाएंकिस्सागोई की तारीफ़ के लिए शुक्रिया संगीता जी. लगता है कि अब आपने मेरी पूरी कहानी पढ़ ली है.
हटाएंबाप रे! सर आपकी यह कहानी तो पाठकों के मुँह में पानी नही बाढ़ ला रही है 😀..... कचौड़ी... दही बड़े.... मटका कुल्फी 😍😍... आहा!
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर आपकी लेखनी को कोटिशः प्रणाम 🙏
हर बार आपकी कहानियों एवं संस्मरणों को पढ़कर आनंद आ जाता है। इस आनंद हेतु हार्दिक आभार। सादर प्रणाम 🙏
आंचल, हमारे-तुम्हारे जैसे शाकाहारी तो ऐसे ही व्यंजनों की बात कर सकते हैं. मेरी कहानियां किसी न किसी सत्यकथा पर आधारित होती हैं. अगर पाठकों को उनको पढ़ कर आनंद आता है तो मेरी कलम खुश हो जाती है.
हटाएंइतना शानदार और मजेदार कि बिना व्यंजनों के मुंह में पानी आ जाय।
जवाब देंहटाएंआपकी कहानियां जीवन से जुड़ी हुई होती हैं इसीलिए पाठक जुड़ जाता है । आभार सहित अभिवादन ।
मेरी कहानी की तारीफ़ के लिए शुक्रिया जिज्ञासा.
हटाएंमेरा जैसा शाकाहारी चटोरा, शाकाहारी व्यंजनों की महिमा बखाने बिना रह ही नहीं सकता.