मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

ये जो हल्का-हल्का सुरूर है

ये जो हल्का-हल्का सुरूर है –
लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना हेतु अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले महात्मा गाँधी अपने मद्य-निषेध कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए एक दिन के लिए तानाशाह भी बनने को तैयार थे. मैंने अपने जीवन में किसी भी मादक पदार्थ का सेवन नहीं किया है किन्तु मैं नहीं समझता कि कोई कानून बनाकर मद्य-निषेध अभियान को सफल बनाया जा सकता है, इसके लिए तो नशा करने वाले को खुद ही पहल करनी होगी. मेरे विचार से किसी भी व्यक्ति के शराब पीने में या किसी भी प्रकार का नशा करने में तब तक कोई खराबी नहीं है जब तक कि वह उसके स्वास्थ्य, उसके नैतिक मूल्यों, उसके आचार-विचार, उसके पारिवारिक दायित्व, उसकी आर्थिक स्थिति, उसकी बौद्धिक क्षमता, उसकी कार्यक्षमता और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव न डाले. लेकिन अगर यह नशाखोरी उसे, खुद अपने और परिवार के लिए बायसे शर्मिंदगी और बर्बादी का कारण बना दे, अपने सहकर्मियों और मित्रों के लिए एक मुसीबत बना दे और समाज पर बोझ बना दे तो फिर उसकी यह लत सबके लिए घातक हो जाएगी.
बादशाह जहाँगीर ने अपनी अफीम और शराब की लत के कारण राजकाज का सारा ज़िम्मा नूरजहाँ को सौंप दिया था और मलिका साहिबा ने भाई-भतीजा वाद से, षड्यंत्रों की रचना व भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा कर मुग़ल प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया था. हमारे ज़माने के एक बहुत सम्माननीय प्रधान मंत्री के विषय में प्रसिद्द था – ‘एट पी. एम. नो पी. एम.’ (रात आठ बजे के बाद टुन्न होकर प्रधान मंत्री कोई काम करने लायक नहीं रह जाते हैं)
कभी अपनी कर्मठता के लिए प्रसिद्द पंजाब की अधिकांश युवा पीढ़ी आज नशा-खोरी में खुद को बर्बाद कर रही है. उत्तर-पूर्व में भी इसका भयंकर प्रकोप है. यूँ तो यह समस्या हर जगह है पर पहाड़ में इसकी व्याप्ति कुछ अधिक ही है. लोग कहते हैं –‘सूर्य अस्त, पहाड़ मस्त’        
मार्च, 1980 में मैंने राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर ज्वाइन किया. मेरे एक वरिष्ठ सहकर्मी इस बात के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को कोसते रहते थे कि उसने पहाड़ में शराबबंदी लागू कर रक्खी है. बेचारे दिन-रात बोतलों के जुगाड़ में लगे रहते थे और अपने प्रयासों में असफल होने पर डाबर कंपनी की सुरा और अगर वो भी न मिले तो पुदीन हरा (वो भी नीट) पीकर अपनी तलब मिटा लिया करते थे. कॉलेज के परिसर में उनके पहुँचने से दस सेकंड पहले ही उनकी साँसों की महक उनके आगमन की सूचना दे देती थी. हमारे इन प्रोफ़ेसर साहब ने अपने घर वालों की ज़िन्दगी को नरक बना दिया था पर 50 साल की आयु में इस असार संसार को छोड़ते समय उत्तर प्रदेश सरकार पर उन्होंने एक एहसान अवश्य किया और वह यह था कि सरकार को उन्हें पूरी पेंशन देने के स्थान पर उनकी पत्नी को पूरी पेंशन से बहुत कम, सिर्फ फैमिली पेंशन ही देनी पड़ी.
शराबबंदी के दिनों में पर्यटन स्थल होने के कारण नैनीताल इस बंधन से मुक्त था. हमारे अल्मोड़ा परिसर के कई तलबी मित्र केवल वहां से चोरी-छुपे बोतलें लाने के लिए यूनिवर्सिटी का कोई भी काम करने के लिए अपनी सेवाएँ देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे.
खैर दुःख की घड़ियाँ बीत गयीं और शराब सर्वत्र सुलभ हो गयी. हमारे परिसर में एक क्लर्क था, बहुत काबिल और हंसमुख. एक घंटे में वह 10-12 पेज टाइप कर देता था. अक्सर मैं उसी से अपनी कहानियाँ, कवितायें या शोध-पत्र टाइप करवाता था. मेरी शर्त थी कि वो पारश्रमिक के पैसे से शराब नहीं पिएगा पर वो हर बार मुझे दिया गया अपना वादा तोड़कर, शराब पीकर, बाज़ार के  किसी कोने में अर्ध-मूर्छित पड़ा पाया जाता था. शराब के नशे में ही सीढ़ियों से धड़ाम गिरने से ब्रेन हैम्ब्रेज हो जाने से उसकी मृत्यु हो गयी और उसकी बिना पढ़ी-लिखी पत्नी को परिवार के भरण-पोषण की खातिर हमारे ही परिसर में चपरासी की नौकरी करनी पड़ी.
मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी अपने विषय के ख्याति-प्राप्त विद्वान माने जाते थे. वो हमारे परिसर के चयनित     प्रोफेसरों में से एक थे. लेकिन ये श्रीमानजी बोतल भर नहीं बाल्टी भर शराब पिया करते थे. बोतल के पैसों का लिए वो अपने साथियों से तो क्या, छात्रों और चपरासियों तक के सामने हाथ फैलाये खड़े रहते थे. तमाम बैंकों से उन्होंने लोन ले रक्खा था और उनकी आधी से ज्यादा तनखा इनकी किश्तें चुकाने में चली जाती थी. धीरे-धीरे उनके पठन-पाठन की गति पर लगाम लगी, उनकी जुबान लड़खड़ाने लगी और अक्सर उन्हें किसी नाली में से उठाकर घर पहुँचाया जाने लगा. अंत में जब अपना लिवर पूरी तरह से ख़राब करके वो एक बड़े अस्पताल ले जाए गए तो डॉक्टर ने उन्हें एक्जामिन करने के बाद उनका ऑपरेशन करने से इनकार करते हुए सिर्फ इतना कहा –
‘ये शख्स अब तक जिंदा कैसे रहा?’
मेरे कई मित्र मेरे आलेख को लेकर नाराज़ हो सकते हैं पर मैं नशाखोरी के विरुद्ध कोई प्रवचन नहीं दे रहा हूँ केवल यह सलाह दे रहा हूँ कि अपनी लत को वो अपनी बीमारी न बना लें. मशहूर शायर मजाज़ लखनवी को उर्दू साहित्य जगत में जोश मलिहाबादी और जिगर मुरादाबादी का उत्तराधिकारी माना जाता था लेकिन इन जनाब को बिना बोतल मुंह में लगाए हुए एक भी शेर कहते हुए नहीं बनता था. शराब की लत ने उन्हें कई बार अस्पताल पहुँचाया और एक बार तो वो पागलखाने तक भी पहुंचाए गए. उनकी तबियत सुधरने पर जिगर मुरादाबादी उनकी खैर-खबर लेने पहुंचे और उनको समझाने लगे –
‘बरखुरदार, उर्दू अदब (साहित्य) ने तुमसे बहुत उम्मीदें लगा रक्खी हैं. यूँ खुद को शराबखोरी से बर्बाद मत करो. पीते तो हम भी हैं पर सलीके से. मुझको जब इसकी तलब लगती है तो मैं गिलास में एक पेग डाल लेता हूँ, सामने घडी रखकर उसे धीरे-धीरे पंद्रह मिनट में पीता हूँ. एक दो पेग में ही तलब मिट जाती है. शराब पीने का यही सही सलीका है. आगे से तुम भी सामने घड़ी रखकर पिया करो.’
मजाज़ तपाक से बोले –‘हुज़ूर आप घड़ी रखकर पीने की बात कर रहे हैं. मेरा बस चले तो मैं घड़ा रख कर पियूं.’
ज़ाहिर है इस किस्से को पढ़कर सब के होठों पर मुस्कराहट आएगी पर तब शायद नहीं जब उन्हें यह मालूम होगा कि शराबखोरी के कारण दिमाग की नसें फट जाने से मजाज़ की असमय ही मृत्यु हो गयी.

इसलिए मित्रो, जिगर मुरादाबादी की तरह मेरा केवल एक अनुरोध है, आप नशा करना नहीं छोड़ना चाहते तो न छोड़ें पर उसे करने का सलीका तो सीख लें और मजाज़ और मेरे तलबी मित्रों के जैसे हश्र से खुद को बचा लें.                  

4 टिप्‍पणियां:

  1. बाकी सब बढ़िया है उम्दा है पर हजूर ये सुरुर किस ने समझा दिया आपको वो भी हल्का हल्का :)

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  2. शुरुआत में तो सुरूर हल्का-हल्का ही होता है पर जब वो हलक में और दिलो-दिमाग में हमेशा के लिए अटक जाता है तो इंसान भटक जाता है.

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  3. मद्ध निषेध पर फिलहाल पाबंदी की जरूरत भी नहीं है। हां तम्‍बाकू उत्‍पादन और विपणन को कानून बनाकर तुरंत प्रतिबंधित करने की आवश्‍यक्‍ता है। मैं बुंदेलखंड के छोटे से शहर में निवास करता हूं। यहां तो गुटखा मानों संस्‍कृति में ही रच बस गया है। छोटे छोटे बच्‍चे हों या बुजुर्ग सभी गुटखे का सेवन करते दिख जाते हैं। इस क्षेत्र में तम्‍बाकू का आंतक देखने को मिल रहा है। परिवार के परिवार तबाह हो गए हैं। मेरे ब्‍लाग पर आपका स्‍वागत है।

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  4. जमशेद आज़मी साहब, मेरे विचार से नशे के विनाशकारी प्रभाव को रोकने के लिए कानून की लाठी इस्तेमाल करने से ज्यादा जन-जागृति की और आत्म-शोधन आवश्यकता है. गुटके या किसी भी मादक पदार्थ पर प्रतिबन्ध लगाने के बाद उसकी चोरी-छुपे बिक्री होती ही रहती है या तलबी लोग उसका कोई और भी हानिकारक विकल्प खोज लेते हैं. आप से और आपके ब्लॉग से जुड़कर मुझे प्रसन्नता होगी.

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