मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

धर्म और मज़हब के नाम पर

धर्म और मज़हब के नाम पर -
धर्म औ मज़हब की खातिर, खूँ बहाते जायेंगे,
बांट कर, भारत की हम, शोभा बढ़ाते जायेंगे.   
छत्रपति शम्भाजी भोंसले महान साम्राज्य निर्माता, छत्रपति शिवाजी का ज्येष्ठ पुत्र था किन्तु उसमें अपने पिता के सदगुणों का सर्वथा अभाव था. वह एक नितांत विलासी, गैर-ज़िम्मेदार, जल्दबाज़, क्रोधी, क्रूर और बड़ों की अवहेलना करने में आनंद का अनुभव करने वाला व्यक्ति था. शिवाजी ने उसकी उद्दंडता को देखते हुए उसे पन्हाला के किले में क़ैद कर दिया था पर वो वहां से भागकर मुगलों से जा मिला और एक साल उन्हीं के पास रहा. बाद में वह फिर अपने पिता की शरण में आ गया पर उसकी काली करतूतों से परेशान होकर एक बार फिर शिवाजी ने उसे पन्हाला के किले में क़ैद कर दिया. 1680 में शिवाजी की मृत्यु के समय शम्भाजी पन्हाला के किले में ही क़ैद था. शिवाजी की मृत्यु के बाद की राजनीतिक उठा-पटक में सफल होने पर शम्भाजी स्वयं को छत्रपति के रूप में प्रतिष्ठित करने में सफल रहा. उसने अपनी सौतेली माँ सोराबाई को अपने विरुद्ध षड्यंत्र रचने के अपराध में प्राणदंड दिया और उसके बेटे तथा अपने सौतेले भाई राजाराम को क़ैद कर लिया.
छत्रपति शम्भाजी ने औरंगजेब के बागी बेटे अकबर को अपने राज्य में शरण देकर मुगल-मराठा वैमनस्य को और भी बढ़ा दिया. मुगलों, उनके अधीनस्थ जंजीरा के सिद्दियों, मैसूर के वादियार और पुर्तगालियों के विरुद्ध, उसके सभी अभियान असफल रहे. शम्भाजी की प्रशासन में कोई अभिरुचि नहीं थी. उसकी विलासी प्रवृत्ति के कारण राज्य की कोई भी सुन्दर बहू-बेटी स्वयं को सुरक्षित नहीं समझती थी. कवि कलश शम्भाजी के पाप कृत्यों में उसका सबसे बड़ा सहायक था. मराठा प्रजा इस विलासी और आततायी छत्रपति से छुटकारा पाने के लिए भगवान् से नित्य प्रार्थना करती थी.
1682 में औरंगजेब ने अपनी विशाल सेना के साथ दक्षिण के लिए कूच किया. उसका उद्देश्य बागी शहजादे अकबर को पकड़ना, अकबर को शरण देने वाले छत्रपति शम्भाजी का दमन करना और बीजापुर व गोलकुंडा के राज्यों को जीतकर उन्हें मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित करना था. 1687 तक औरंगजेब अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में काफी हद तक सफल हो गया था. बागी शहजादा अकबर, ईरान भाग गया था, बीजापुर और गोलकुंडा मुग़ल साम्राज्य का अंग बन चुके थे और मराठों को वाई के युद्ध में पराजित किया जा चुका था. किन्तु शम्भाजी और कवि कलश को अपनी विलासिता से फुर्सत ही कहाँ थी कि वो इस सन्निकट संकट से मराठा साम्राज्य को बचाने की सोचते.
फ़रवरी, 1689 में जब शम्भाजी और कवि कलश संगामेश्वर में रंगरेलियां मना रहे थे तब उनकी असावधानी का लाभ उठाकर मुगलों ने उन पर आक्रमण कर उन्हें क़ैद कर लिया. सभी को अनुमान था कि बादशाह औरंगजेब अपने इस प्रबल विरोधी के साथ किस प्रकार का व्यवहार करने वाला है. कैदी शम्भाजी को अपने प्राण बचाने के लिए मुगलों की आधीनता स्वीकार करने, अपने किले और अपने राज्य का अधिकांश भू-भाग मुगलों को समर्पित करने तथा धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा गया. शम्भाजी को अपना अंजाम पता था. इस बार अपने साहस का परिचय देते हुए उसने न केवल इन शर्तों को मानने से इंकार किया बल्कि औरंगजेब के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग भी किया. धर्म परिवर्तन कर अपनी जान बचाने के प्रस्ताव पर उसने कहा –
‘अगर औरंगजेब मुझे अपना दामाद भी बना ले तो भी मैं धर्म परिवर्तन नहीं करूँगा.’
औरंगजेब ने ऐसी धृष्टता करने वाले दुस्साहसी कैदी की तुरंत जीब कटवा दी, आँखें तरेरने के इलज़ाम में उसकी आँखें निकाल ली गयीं. उसके अंग-अंग काटकर उसे 24 दिन तक यातना देकर उसके प्राण लिए गए. शम्भाजी के शव का अंतिम संस्कार भी नहीं किया गया अपितु उसके शरीर के बचे हुए मांस के लोथड़े को जंगली कुत्तों के आगे डाल दिया गया.
औरंगजेब को लगता था कि उसने हर तरफ सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं, खासकर मराठों को तो उसने हमेशा के लिए कुचल दिया है. पर उसने जो सोचा था वैसा कुछ भी नहीं हुआ. दक्षिण में उसने खुद अपनी और मुग़ल सल्तनत की कब्र खोद ली थी. मराठों ने अपने दिवंगत अयोग्य व अत्याचारी-दुराचारी छत्रपति को अब महानायक, धर्मवीर, धर्म-रक्षक और शहीद का सम्मान दिया. राजा राम के नेतृत्व में मराठा राज्य और अपने धर्म की रक्षार्थ अब स्वतंत्रता संग्राम व धर्मयुद्ध छिड़ गया जिसे उसकी मृत्यु के बाद उसकी पत्नी तारा बाई ने जारी रक्खा. मराठा सेनापतियों - धानाजी जाधव और संताजी घोरपड़े ने, अपने छापामार हमलों से मुगलों की नाक में दम कर दिया. अब मुग़ल अपनी जान बचाने के लिए मराठों को इस बात की रिश्वत देने लगे कि वो उन पर हमला न करें. मुग़ल आपूर्ति व्यवस्था को भंग कर और मुगलों का माल लूट कर मराठे ऐश करने लगे. बेबस औरंगजेब अपने प्रिय भोज्य-पदार्थ - सूखे मेवे और करोंदों को खाने के लिए भी तरसने लगा. अब मराठे चाहते थे कि बाबा औरंगजेब दकिन में ही अपना डेरा जमाये रक्खें और सलामत रहें ताकि वो उनको लूटकर मौज उड़ाते रहें. पच्चीस साल तक मराठों को जीतने की नाकाम कोशिश में अपना लगभग सभी कुछ गँवा कर निराश और हताश औरंगजेब ने दकिन में (औरंगाबाद में) ही अपनी आख़िरी सांस ली.
औरंगजेब और शम्भाजी के इस प्रसंग से हमको पता चलता है कि धर्म के नाम पर किस प्रकार की राजनीति होती है. बाप को क़ैद करने वाले, भाइयों का खून बहाने वाले और मज़हब के नाम पर मुग़ल साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाले  औरंगजेब को इस्लाम का रक्षक तथा ज़िन्दा पीर कहा जाता था. महा विलासी, अत्याचारी, लुटेरे और अनाचारी शम्भाजी को उसकी दुखद मृत्यु के बाद ‘धर्मवीर’ कहा जाने लगा था. आज भी हम धर्म के नाम पर किसी को, उसके अनेक कुकृत्यों के बावजूद, धर्म-संरक्षक का महत्त्व दे देते हैं. आज भी हम किसी फिरका-परस्त, ज़ालिम और मौका-परस्त को मज़हब के नाम पर अपना मसीहा समझ बैठते हैं. हमने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया है. हम बार-बार धर्म और मज़हब के नाम पर खुद को और दूसरों को तबाह करने पर आमादा हो जाते हैं.

हमको औरंगजेब जैसे ज़ालिम, धर्मांध ज़िन्दापीर और इस्लाम के संरक्षक नहीं चाहिए, हमको शम्भाजी जैसे अनाचारी, दुराचारी धर्म-रक्षक और धर्मवीर नहीं चाहिए. पर यहाँ तो धार्मिक उन्माद, मज़हबी वहशीपन की आंधी में हमारा विवेक, हमारा ज़मीर कहीं उड़न छू हो जाता है और हमारा अपना भारत बार-बार खून के आंसू बहाने पर, तो कभी अपने टुकड़े करवाने पर, मजबूर हो जाता है.                                             

2 टिप्‍पणियां:

  1. आप खुश होकर पढ़ते रहिएगा तो हम यूँ ही लिखते रहेंगे. पर आपसे कद्रदान बहुत कम मिलते हैं.

    जवाब देंहटाएं