कल मेरी छोटी
बेटी रागिनी का जन्मदिन था. रागिनी बहुत खुश है, सफल है और खुशहाल है. मेरी कामना
है कि वह यूँ ही सदा खुश रहे. बहुत दिन पहले मैं, उसके साथ, जून की तपती दोपहर
में, दिल्ली की एक व्यस्त सड़क पर, अपने गंतव्य स्थान तक जाने के लिए किसी सिटी बस
की तलाश में था. इसी बस खोजी अभियान के दौरान उसने मुझसे जो प्रश्न पूछा था, उसका
जवाब तो मैं उसे ठीक तरह से नहीं दे पाया पर उसका सवाल मैंने ऊपर वाले परम पिता को
पास-ऑन कर दिया था. मेरे उस सवाल का जवाब मुझे आज तक नहीं मिला है -
शाश्वत प्रश्न
पिघले कोलतार की
चिपचिप से उकताई,
गर्म हवा के
क्रूर थपेड़ों से मुरझाई,
मृग तृष्णा सी
लुप्त सिटी बस की तलाश में,
राजमार्ग पर
चलते-चलते।
मेरी नन्ही सी,
अबोध, चंचल बाला ने,
धूल उड़ाती,
धुआं उगलती,
कारों के शाही
गद्दों पर,
पसरे कुछ बच्चों
को देखा ।
बिना सींग के,
बिना परों के,
बच्चे उसके ही
जैसे थे ।
स्थिति का यह
अंतर उसके समझ न आया ,
कुछ पल थम कर,
सांसे भर कर,
उसने अपना प्रश्न
उठाया-
‘पैदल चलने वाले
हम सब,
पापा ! क्या पापी
होते हैं ?’
कुछ पल उत्तर सूझ
न पाया,
पर विवेक ने
मार्ग दिखाया ।
उठा लिया उसको
गोदी में,
हंसते-हंसते उससे
बोला -
‘होते होंगें,पर तू क्यों चिंता करती है ?
मेरी गुडि़या
रानी तू तो,
शिक्षित घोड़े पर
सवार है ।’
यूँ बहलाने से लगता
था मान गई वह,
पापा कितने पानी
में हैं, जान गई वह ।
काँधे से लगते ही
मेरे,
बिटिया को तो
नींद आ गई,
किंतु पसीने से
लथपथ मैं,
राजमार्ग पर
चलते-चलते।
अपने अंतर्मन में
पसरे,
परमपिता से पूछ
रहा था-
‘पैदल चलने वाले
हम सब,
पापा ! क्या पापी
होते हैं?’
पापी पेट के पापी सवाल होते हैं :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति है खुदा भी खुश हो गया होगा ।
धन्यवाद सुशील बाबू. यह कविता दिल से लिखी गयी थी, दिमाग का इस्तेमाल करने की इसमें ज़रुरत ही नहीं पड़ी थी. मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होने वाले और कुआँ खोदकर पानी पीने वाले, दोनों ही ऊपर वाले ने बनाये हैं पर उसने उनमें इतना फर्क क्यूँ किया है, यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया है.
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