बागेश्वर प्रवास –
लखनऊ विश्विद्यालय के मध्यकालीन एवं
भारतीय इतिहास में तदर्थ प्रवक्ता के रूप में कार्यरत रहते हुए मुझे चार साल हो गए
थे. सितम्बर, 1978 में मैं अपनी पीएच. डी. थीसिस भी सबमिट कर चुका था पर 1979 के प्रारंभ से मेरे ही गर्दिश के दिन
शुरू हो गए. दो स्थायी नियुक्तियों के लिए
हम तीन प्रत्याशी थे, मेरे दोनों प्रतिद्वंदी मुझसे शैक्षिक योग्यता में बहुत पीछे
थे, उनमें से एक साहब हक्ले भी थे पर दोनों बहुत वज़नदार लोगों की संतान थे. उनके
इशारे पर मेरा पीएच. डी. वाइवा टलता रहा, मेरे शोध निर्देशक और विभागाध्यक्ष बिना
बात मुझसे खफ़ा हो गए. ज़ाहिर था कि चयन समिति द्वारा नियुक्ति तो मेरे
प्रतिद्वंदियों की ही होनी थी. जनवरी, 1980 में, मैं सड़क पर आ गया.
1979 के संकटकाल में मैंने उत्तर प्रदेश
के गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता पद के लिए आवेदन किया था पर
उनका कोई जवाब नहीं आया था.
मार्च, 1980 की बात थी. एक दिन मैं निराश,
दुखी और मायूस सा घर पहुंचा तो मुस्कुराती हुई माँ ने मेरा स्वागत किया और मुझसे
बोलीं –
‘बब्बा (मुझे प्यार से वो ‘बब्बा’ कहती थीं) ! बागेश्वर
जाने की तैयारी कर ले.’
अब माँ के बब्बा ने तो बागेश्वर का नाम भी नहीं सुना था.
मैंने पूछा –
‘ मैं बागेश्वर क्यूँ जाऊं, किसने आपको ऐसी खबर दी है? और
ये बागेश्वर है कहाँ?’
माँ ने एक टेलीग्राम मुझे पकड़ाते हुए कहा –
‘ये तो मैं नहीं जानती, तेरे पिताजी तो
कोर्ट गए हैं. मैं पडौस के अग्रवाल साहब से ये टेलीग्राम पढ़वाकर लाई हूँ, तुझे
गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज, बागेश्वर ज्वाइन करना है.’
मैंने झपट के उनके हाथ से टेलीग्राम लिया
और अपनी आँखों से बहते आंसुओं के बीच उसका मजमून को बड़ी मुश्किल से पढ़ा. माँ की
सूचना सही थी. वाह ! मेरे एक कागजी आवेदन पर सीधे नियुक्ति पत्र? इसका मतलब था कि भगवानजी
अपनी छुट्टी से वापस आ गए हैं.
दो दिन बाद रजिस्टर्ड पत्र से नियुक्ति पत्र भी आ गया. अब मुझे अपना मेडिकल एग्जामिनेशन कराना
था, बागेश्वर के बारे में जानकारी जुटानी थी. पता चला कि बागेश्वर अल्मोड़ा की एक
तहसील है और वहां अल्मोड़ा होते हुए ही पहुंचा जाता है. इससे पहले कुमाऊँ में मैं,
सिर्फ़ नैनीताल और हल्द्वानी गया था. खैर पहाड़ी यात्रा और पहाड़ी प्रवास की पूरी
तैयारी कर मैंने काठगोदाम जाने वाली ट्रेन पकड़ी. हल्द्वानी रेलवे स्टेशन से मैं
हल्द्वानी बस स्टैंड पहुँचा जहाँ पर बागेश्वर ले जाने वाली केएमओयू. की एक
मरगिल्ला बस मेरा इंतज़ार कर रही थी. आठ घंटे धक्के खाते, हिचकोले खाते, जलेबी जैसे
रास्ते से चलते हुए शाम को साढ़े सात बजे हमारी बस सांय-सांय करते सुनसान, शांत
बागेश्वर पहुंची. रात एक होटल में बिताकर, सुबह तैयार होकर मैं कॉलेज पहुंचा तो
उसकी भव्यता देखकर मैं हैरान रह गया. एक टूटे-फूटे, छोटे से, डाक बंगले में हमारा
कॉलेज था. कॉलेज ज्वाइन करने के लिए जब मैं प्रिंसिपल साहब, प्रोफ़ेसर गुप्ता के
कक्ष में गया तो वो परेशान और हैरान होकर मेरे डाक्यूमेंट्स देखते रहे. फिर
उन्होंने मुझसे ये सवाल पूछे –
‘तुम वाक़ई 5 साल लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ा
चुके हो? वहां के तुम टॉपर भी हो? फिर भैया, तुमको इस बागेश्वर में लेक्चरर की एड
हॉक जॉब पर आने की क्या ज़रूरत पड़ गयी?’
मैं उनके प्रश्नों का उत्तर ज़ुबानी तो
नहीं दे पाया पर मेरे आंसुओं ने उनके हर सवाल का जवाब दे दिया.
प्रोफ़ेसर गुप्ता के रिटायर्मेंट में
दो-तीन साल बाक़ी थे. उनका बड़ा बेटा उत्तर प्रदेश के ही एक गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज
में लेक्चरर था. पहली भेंट में ही मैं प्रोफ़ेसर गुप्ता को पसंद आ गया. उन्होंने
स्टाफ़ रूम में मुझे अपने साथियों से मिलवाया. कुछ वरिष्ठ थे, कुछ मेरी ही तरह नए
रंगरूट थे. साथियों के लिए मैं अजूबा ज़्यादा था पर उनमें से कुछ मुझ पर मेहरबान भी
हो गए. इनमें एक थे इंगलिश डिपार्टमेंट के हेड पंतजी. पंतजी, कवि सुमित्रानंदन पंत
के भतीजे थे और बागेश्वर के शायद सबसे ज्ञानी व्यक्ति थे. इंगलिश डिपार्टमेंट के
ही एक पांडेजी भी विद्वान थे पर हमारे अधिकांश साथी पढ़ाई-लिखाई में पैदल थे. उनकी अभिरुचियाँ
भी बड़ी विचित्र थीं. घंटों तक ये विद्वानगण इस बात पर बहस कर सकते थे कि ‘पहलवान
छाप बीड़ी’ ज़्यादा अच्छी है या ‘बीड़ी नंबर 207’.
उन दिनों पहाड़ में पर्यटन स्थलों को छोड़कर सभी जगह नशाबंदी
लागू थी और बागेश्वर में भी सबको गाँधीवादी बनना पड़ता था. हमारे शौक़ीन साथी या तो
चोरी-छुपे आर्मी वालों की मेहरबानी से कुछ बोतलें प्राप्त कर लेते थे या ‘डाबर
सुरा’ या किसी अन्य एल्कोहलयुक्त टॉनिक से अपना काम चला लेते थे. मेरे एक चैंपियन
मित्र तो तलब लगने पर नीट पोदीन हरा ही पी लेते थे. मेरे जैसे टी टोटलर के लिए ऐसे
रसिकों का साथ कितना त्रासदायी होता था, इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता
था.
प्रोफ़ेसर गुप्ता ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश
के एक नये लेक्चरर के साथ मेरे रहने की व्यवस्था करा दी थी. वो पट्ठा बोल-बोलकर अपने
अगले लेक्चर की तैयारी करता था और सोते वक़्त ज़ोरों के खर्राटे लिया करता था पर
बागेश्वर के सुनसान वातावरण में यह अनचाहा शोर भी मुझे संगीत जैसा मधुर लगता था.
बागेश्वर के विद्यार्थी भोले थे, नादान
थे, थोड़े बुद्धू भी थे पर उन्होंने मुझे अपना भरपूर प्यार दिया. बिना नोट्स की मदद
के पढ़ाने का मेरा तरीक़ा उन्हें पसंद आता था, फिर मेरे द्वारा सुनाई गईं इतिहास की
अंतर्कथाएं भी उन्हें अच्छी लगती थीं. मेरा शेर कहने का अंदाज़ भी उन्हें पसंद था.
पंतजी ने मुझे एक बार हंसकर बताया था कि उनसे कुछ छात्राएं कह रही थीं –
‘जैसवाल सर, शेर बहुत अच्छे मारते हैं.’
बागेश्वर के बीचोबीच सरयू और गोमती का
संगम है और इस संगम पर ही दाह-संस्कार होता है. मैंने शहर के बीच पहली बार श्मशान
देखा था और श्मशान के दृश्यों ने कितनी रातों की मेरी नींद ख़राब की थी, इसकी गिनती
करना मुश्किल था.
इंगलिश डिपार्टमेंट के पंतजी से मैं
बाकायदा लड़ता रहता था कि वो कैसे ऐसे मनहूस वातावरण में, साहित्य और अदब से दूर
वातावरण में, हँसते-मुस्कुराते रहते हैं. पंतजी कहते थे –
‘भैया, चिंता मत करो या तो तुम अपनी लखनऊ
यूनिवर्सिटी में वापस चले जाओगे या फिर तुमको इस माहौल की आदत पड़ जाएगी.’
पंतजी की दोनों बातें ग़लत सिद्ध हुईं. लखनऊ यूनिवर्सिटी ने
कभी मुझे वापस बुलाया नहीं और मुझे बागेश्वर तो क्या, 31 साल अल्मोड़ा में रहकर
वहां के माहौल की भी आदत नहीं पड़ी.
कॉलेज ज्वाइन करने के 10 दिन बाद ही मुझे
मुरादाबाद के रामा बुक डिपो से इतिहास विभाग के लिए किताबें खरीदकर लाने का
दायित्व दिया गया. आवंटित राशि का आधा पाठ्य-पुस्तकों पर और आधा सन्दर्भ ग्रंथों
पर खर्च करना था. मुझे आधे से भी कम दामों में भारतीय विद्या भवन प्रकाशन की
पुस्तकें मिलीं तो मैंने सन्दर्भ ग्रंथों के लिए आवंटित राशि से उसकी पूरी सीरीज़
ख़रीद ली. बागेश्वर लौटकर जब मैंने प्रोफ़ेसर गुप्ता को अपनी उपलब्धि बताई तो वो शांत रहे पर बाद में
स्टाफ़ मीटिंग में उन्होंने मेरी क्लास ले ली. मुझे बाकायदा डांट पड़ी कि मैंने
संदर्भ ग्रंथों की पूरी राशि एक सीरीज़ खरीदने में लगा दी.
मैंने प्रिंसिपल साहब से खड़े होकर विनम्रता से कहा –
‘सर, आपका डिसिप्लिन तो केमिस्ट्री है.
हिस्ट्री तो आपने आठवें क्लास तक ही पढ़ी होगी. मैंने तो केमिस्ट्री इंटरमीडिएट तक
पढ़ी है. मैं अगर आपके सब्जेक्ट पर एक्सपर्ट की तरह बोलूँ तो आपको कैसा लगेगा?’
पूरे कक्ष में सन्नाटा छा गया. प्रिंसिपल
साहब ने ‘सॉरी, जैसवाल’ कहके बात ख़त्म कर दी पर मीटिंग ख़त्म होने के बाद उन्होंने
मुझे अकेले में बुलाया फिर प्यार से बोले –
‘जैसवाल, आज शाम घर आना, तुम्हारी आंटी तुम्हें याद कर रही
थीं.’
आंटी से मेरी बड़ी दोस्ती हो गयी थी, जब भी
उन के घर जाओ तो वो बड़े प्यार से पकवान बना-बनाकर
खिलातीं थीं. उस दिन भी पकवान खिलाए गए पर फिर प्रोफ़ेसर गुप्ता ने मेरी
ऐतिहासिक क्लास ले डाली. उन्होंने मुझसे बड़े प्यार से कहा –
‘बेटा जैसवाल, आज स्टाफ़ मीटिंग में जो तुमने
बदतमीज़ी की थी, उसकी वजह से तुम्हारी नौकरी भी जा सकती थी. माना कि मैंने तुमसे
ग़लत बात की थी पर एक एडहॉक लेक्चरर अपने प्रिंसिपल से क्या ऐसे बात कर सकता है?’
मैंने सॉरी सर कहा तो उन्होंने प्यार से मेरे गाल थपथपाते
हुए कहा –
मैं भगवान से दुआ करूँगा कि तुम्हारी
नौकरी किसी यूनिवर्सिटी में फिर से लग जाए क्यूंकि तुम तो अपनी लड़ाकू आदत से बाज़
आओगे नहीं और हर प्रिंसिपल या तुम्हारा हेड तुम्हारी हरक़तों को इस बेचारे प्रोफ़ेसर
गुप्ता की तरह माफ़ तो करेगा नहीं.’
मैंने प्रोफ़ेसर गुप्ता के चरण छूकर उन्हें
वचन दिया कि मैं आगे ऐसी कोई हरक़त नहीं करूँगा. बागेश्वर में कुल आठ महीने चार दिन
काम करके मेरी नियुक्ति कुमाऊँ विश्विद्यालय में हो गयी पर मैंने प्रोफ़ेसर गुप्ता
को दिया अपना वचन क़तई निभाया नहीं और अपने शेष सेवा-काल में अपने उच्चस्थ अधिकारी
अर्थात अपने विभागाध्यक्ष के साथ मैं निरंतर तलवारबाज़ी करता रहा.
बागेश्वर में वहां की तहसील का दफ़्तर
रेलवे प्लेटफार्म के रूप में मशहूर था. मुझे तो काठगोदाम और टनकपुर के अलावा और
निकटस्थ स्टेशन की जानकारी थी नहीं फिर ये बागेश्वर में रेलवे प्लेटफार्म कहाँ से
आ गया?
पता चला कि बहुत पहले प्रधानमंत्री इंदिरा
गाँधी ने अपने बागेश्वर आगमन पर यह घोषणा की थी कि टनकपुर से बागेश्वर तक रेलवे
लाइन बिछाई जाएगी और इसके लिए रेलवे स्टेशन तथा रेलवे प्लेटफार्म की जगह भी
निश्चित कर दी गयी थी. उसी जगह पर तहसील दफ़्तर बना पर वह रेलवे प्लेटफार्म ही
कहलाता रहा.
बागेश्वर में पहले एक मोबाइल सिनेमा था पर
बाद में वह भी बंद हो गया था. हर शाम हमारे जैसे एकाकी लोगों के लिए टेप रिकॉर्डर
पर मुकेश के दर्द भरे नग्मे सुनने के अलावा कोई काम नहीं होता था.
बागेश्वर के ग़मगीन वातावरण ने मुझे कवि
बना दिया. उन आठ महीनों में मैंने एक से एक निराशावादी कविताएँ लिखीं जिनमें से एक
प्रस्तुत है -
‘दिन बदलते हैं सभी के, पर यहाँ पर रात ढलती ही नहीं है,
वेदना के स्वर हमेशा गूंजते हैं, मद भरा संगीत बजता ही नहीं
है.
शाम की तनहाइयों में डूबता मन, आज जाने क्यूँ विकल है,
ठोकरों ने सिर्फ़ इतनी सीख दी है, पत्थरों में प्यार पल सकता
नहीं है.
अब कोई उम्मीद का नग्मा, भुलाकर गम, मुझे छलता नहीं है,
दर्दे-दिल को थपकियाँ देकर सुला दे, ऐसा कोई चारागर मिलता
नहीं है.
मौत ही शायद दवा हो, कौन जाने, मंज़िले-मक़सूद भी हो,
राह कब तक मैं खड़ा उसकी निहारूं, ज़िन्दगी को अब सहा जाता
नहीं है.’
मैं कृतघ्न हूँ, जिस बागेश्वर ने मुझ
बेरोजगार को रोटी दी, उसका मैं शुक्रगुज़ार न हुआ. बागेश्वर में मेरे कुछ दोस्त भी
बने, कुछ वहां अच्छा वक़्त भी बीता, कुछ शरारतें भी कीं और तमाम नादानियाँ भी, पर मैं लखनऊ को ही अपना मक्का शरीफ़ मानकर उधर की
तरफ़ ही मुंह करके नमाज़ पढ़ता रहा. 31 वर्ष के अल्मोड़ा प्रवास में बागेश्वर जाने के
दो-चार अवसर मिले भी तो वो मैंने जानबूझकर जाने दिए. पर अब एक बार बागेश्वर जाने
का मन हो रहा है. अब तो बागेश्वर का बहुत विकास हो चुका है, वह जिला भी बन गया है,
सुनते हैं कि वहां कॉलेज की बड़ी भव्य इमारत है. पर इस बार बागेश्वर जाऊँगा तो यह
तय है कि वहां जाकर मैं कोई निराशावादी कविता नहीं लिखूंगा बल्कि कृतज्ञता-ज्ञापन
का एक प्यारा सा गीत लिखूंगा.
इसी तरह अल्मोड़ा में गुजारे 30 सालों की कविताएं भी सुनाते चलिये एक एक करके। बिना डरे :)।
जवाब देंहटाएंसुशील बाबू, बागेश्वर में लिखी एकाद कविताएँ कभी और भी पोस्ट करूँगा. अल्मोड़ा में लिखी गयी अधिकांश कविताओं से तुम परिचित हो फिर भी तुम्हारे अनुरोध का सम्मान कर उन्हें भी कभी पोस्ट करूँगा.
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