सोमवार, 9 नवंबर 2020

बालकनी

 बचपन में हमको माँ-पिताजी के साथ साल में या तो एक फ़िल्म या फिर दो फ़िल्में देखने का मौक़ा मिल जाता था.

अपने बचपन में फ़िल्में देखने के लिए हम बालकनी से कभी नीचे उतरे ही नहीं.

किसी सिनेमा हॉल की बालकनी में बैठकर हम ख़ुद को शहज़ादा सलीम से कम नहीं समझते थे.
कितने लोगों को यह पता होगा कि फ़िल्म ‘मुगले आज़म’ में जब अनारकली शीश महल में मुजरा करने वाली थी तो उसे मुजरा करने का हुक्म तख़्त पर बैठे बादशाह अकबर के साथ-साथ बालकनी में बैठे शहज़ादा गोपेश मोहन जैसवाल ने भी दिया था.
जवानी में क़दम रखते ही टीवी विहीन ज़माने में फ़िल्में देखने का हमारा जुनून परवान चढ़ने लगा लेकिन अपने जेब-खर्च से बालकनी की टिकट लेकर महीने में एक-दो फ़िल्में ही देखी जा सकती थीं और हमको तो अपने बचपन में देखे जाने से छोड़ी हुई तमाम फ़िल्मों की भरपाई भी तो करनी थी.
बी. ए. , एम. ए. करते समय हमारा यही सपना हुआ करता था कि सिनेमा हॉल में बालकनी में बैठ कर फ़िल्म देखने का मज़ा लिया जाए और साथ में सस्ती टिकटें लेकर नीचे बैठने वालों की तुलना में ख़ुद को अगर मुगले आज़म, नहीं तो कम से कम नवाब वाजिद अली शाह तो ज़रूर समझा जाए.
लेकिन इस ख़ूबसूरत सपने को साकार कर पाना हमारी जेब के बूते की बात नहीं थी.
झांसी में बी. ए. करने के दौरान चोरी से महीने में औसतन चार फ़िल्में और लखनऊ में एम. ए. करने के दौरान महीने में औसतन आठ फ़िल्में देखने वाला हमारे जैसा कोई त्यागी, संयमी, अनुशासित, वीतरागी और आदर्श विद्यार्थी के पंच-लक्षणों से सुशोभित बन्दा अपने इस रईसी ठाठ वाले सपने को कैसे साकार कर सकता था?
1970 के दशक में हॉस्टल के मेस में एक रुपया प्रति डाइट के ज़माने में पांच रूपये की बालकनी की टिकट खरीद पाना तो धन्ना सेठों की संतानों के ही बस में था.
भला हो मात्र एक रूपये पिचहत्तर पैसे की स्टूडेंट क्लास की टिकट का !
उस पर अगर अपना आइडेंटिटी कार्ड दिखा दो तो पच्चीस पैसे की छूट अलग से !
इसी लोक-कल्याणकारी, जनता-जनार्दन वाले क्लास में अंधाधुंध फ़िल्में देखने के साथ-साथ हम पार्टटाइम जॉब के रूप में अपनी पढ़ाई भी करते रहे.
वैसे अपनी तंगहाली में भी जेब पर एक्स्ट्रा बोझ डाले बिना बालकनी में फ़िल्में देखने का शौक़ जब-तब पूरा हो जाता था.
झांसी का छोटे स्क्रीन वाला चित्रा सिनेमा हाफ़ रेट्स पर पुरानी या दूसरे सिनेमा हॉल्स से उतारी गयी नयी फ़िल्में दिखाता था और लखनऊ में घटी दरों पर फ़िल्में दिखाने वाले सिनेमा हॉल्स तो क़रीब आधा दर्जन थे.
हमको लखनऊ के ऐसे कड़का स्टूडेंट-फ्रेंडली सिनेमा हॉल्स में सेवेंटी एम. एम. के स्क्रीन वाला, एक रूपये पिचहत्तर पैसे में बालकनी की टिकट वाला, अलंकार सिनेमा सबसे ज़्यादा पसंद था.
लेकिन नई फ़िल्मों को उनके रिलीज़ होने के पहले दो-चार दिनों के अन्दर ही देखने के हम जैसे शौकीनों को मन मसोस कर बार-बार स्टूडेंट क्लास की शरण में जाना ही पड़ता था.
स्टूडेंट क्लास में फ़िल्म देखने में यह बड़ा ख़तरा था कि बालकनी में बैठा कोई दुष्ट हम पर मूंगफली के छिलकों की पुड़िया न फ़ेंक दे.
इस स्टूडेंट क्लास की एक दुखदायी बात यह थी कि इसमें बैठ कर फ़िल्म देखने पर आँखों पर जोर बहुत पड़ता था और ऐसा भी लगता था कि हम ज़मीन में धंसे जा रहे हैं.
लेकिन इस स्टूडेंट क्लास के पाताल लोक में फ़िल्म देखने के अलावा हमारे पास कोई और ऑप्शन होता ही कहाँ था?
इस फटीचर स्टूडेंट क्लास में फ़िल्में देखने की ज़िल्लत और तकलीफ़ से बचने के हमारे पास बस, दो ही विकल्प थे –
पहला विकल्प यह था कि हम फ़िल्मों को देखने की संख्या में क्रांतिकारी सीमा तक कमी कर दें और फिर ठाठ से बालकनी की टिकट लेकर इक्का-दुक्का ही फ़िल्म देखें.
ज़ाहिर था कि इस महा-त्यागी विकल्प पर अमल कर पाना हमारे बस में नहीं था.
दूसरा विकल्प यह था कि हम ख़ुद अपने पैरों पर शीघ्रातिशीघ्र खड़े हो जाएं ताकि हमको मजबूरन कष्टकारी टिकट-बचत योजना की ज़रुरत ही न पड़े.
इस आत्मनिर्भर अभियान को सफल बनाने के लिए हमारा एम. ए. में टॉप कर के यू जी. सी. फ़ेलोशिप हासिल करना ज़रूरी था.
बी. ए. में हम बुंदेलखंड कॉलेज के टॉपर तो थे ही.
एम. ए. करने के दौरान भी हमने टॉप करने का ही विकल्प चुना.
इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी की टैगोर लाइब्रेरी की और विभागीय पुस्तकालय की, एक-एक ज़रूरी किताब हमने चाट डाली.
इस मेहनत का परिणाम सुखद रहा. फ़िल्म देखने में डबल सेंचुरी लगाते हुए भी हमने एम. ए. में टॉप किया और फिर यू. जी. सी. फ़ेलोशिप भी हासिल कर ली.
चार महीने की फ़ेलोशिप जब हमको एक साथ मिली तो एक दर्जन सौ के नोटों की भारी गड्डी (हमारी फ़ेलोशिप पहले 300/ प्रति माह थी फिर वह बढ़ कर 400/- प्रति माह हो गयी थी) हम से उठ ही नहीं रही थी.
अब टाटा, बिरला जैसी रईसी करने से हमको भला कौन रोक सकता था?
गुड बाय स्टूडेंट क्लास ! अब हम अपने बचपन के दिनों की तरह फिर से बालकनी में बैठकर –
‘यलगार हो !’ का नारा बुलंद कर पर्दे पर खड़ी अपनी पसंदीदा फ़ौज को दुश्मन की फ़ौज पर टूट पड़ने का हुक्म दे सकते थे.
हमारे संगी-साथियों को हमारे साथ फ़िल्म देखने के वक़्त मिल-बाँट कर खर्च करने का हमारा डच सिस्टम कभी अच्छा नहीं लगता था.
अब अपने कमाऊ दोस्त की जेब पर डाका डालने से उन्हें भला कौन रोक सकता था?
इधर हम भी कम से कम एक बार दानवीर कर्ण के जैसी दानशीलता या फिर हातिमताई के जैसी दरियादिली दिखाने को बेक़रार थे.
आखिरकार चार चिपकू दोस्तों को पहली बार अपनी जेब से हमने फ़िल्म दिखाने की हामी भर दी.
जश्न मनाने के लिए हम यूनिवर्सिटी के पास वाले तुलसी सिनेमा जा पहुंचे.
टिकट विंडो पर बुकिंग क्लर्क ने मुस्कान के साथ हमारा स्वागत किया.
हमने अपना पर्स निकाला फिर यकायक हमारी नज़र टिकट रेट्स पर गयी – स्टूडेंट क्लास, एक रुपया पिचहत्तर पैसे, ड्रेस सर्किल, तीन रूपये और बालकनी, पांच रूपये.
हाय ! पांच गुणा पांच रूपये यानी कि तीन घंटों के फ़ालतू से मनोरंजन के लिए बैठे-ठाले पच्चीस रूपये की बर्बादी?
यह रकम तो हमारे हॉस्टल के मेस के बारह दिनों के दोनों वक़्त की डाइट के कुल चार्जेज़ से भी एक रुपया ज़्यादा थी!
प्रैक्टिकल दिमाग कह रहा था - भाड़ में जाए दानवीर कर्ण की दानशीलता और हातिमताई की दरियादिली !
लेकिन यह तो हमने तय कर लिया था कि अब से फ़िल्म तो बालकनी में ही देखनी है.
दृढ़ निश्चय के साथ हमने टिकट विंडो में हाथ डाला और फिर बुकिंग क्लर्क को सौ का एक नोट देकर उससे कहा –
‘पांच टिकट बा-बा-बा-बाल, ड्रेस सर्किल !’
बुकिंग क्लर्क ने हमारी – ‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं’ जैसी डांवाडोल हालत पर हँसते हुए पिच्यासी रुपयों के साथ हमको पांच टिकट ड्रेस सर्किल के पकड़ा दिए.
हमारे दोस्त भी हमारे इस हकलाने पर अपने-अपने पेट पकड़ कर हँसे चले जा रहे थे.
अपनी ख़ुद की बुलाई हुई इस छीछालेदर पर हम मन ही मन सीता जी की तरह धरती माता की गोद में समा जाने की इच्छा कर रहे थे लेकिन साथ में अपने दस रूपये की बचत की खुशी भी थी.
कमाऊ होने के बाद से हमने सिनेमा हॉल्स में स्टूडेंट क्लास को छोड़ ड्रेस सर्किल में बैठना शुरू कर दिया.
रही बालकनी में ही बैठकर फ़िल्में देखने की बात तो अलंकार सिनेमा में जाने से या किसी और सिनेमा हॉल में बालकनी में बैठ कर घटी दर पर फ़िल्म देखने से हमको भला कौन रोक सकता था?
और अब अगर 2020 की बात की जाए तो जैसवाल साहब चाहें तो ख़ुद अपने लिए और अपने सारे दोस्तों के लिए बालकनी की टिकटें खरीद कर उनके साथ फ़िल्म देख सकते हैं
वैसे भी आज ज़माना बदल गया है और अब बालकनी-रहित मल्टीप्लेक्स का ज़माना आ गया है.
लेकिन अब सिनेमा हॉल्स में जाकर हम फ़िल्में देखते ही कितनी हैं?
इंटरनेट से जुड़े हुए इस जाइंट स्क्रीन वाले स्मार्ट टीवी के दौर में घर-घर थिएटर खुल गए हैं.
उस्ताद मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक़ के अंदाज़ में अब हम कहेंगे -
कौन जाएगा सिनेमा, घर का टीवी छोड़ कर !
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5 टिप्‍पणियां:

  1. उत्साहवर्धन के लिए बहुत धन्यवाद मित्र !

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  2. 'आवाज़ मन की' (चर्चा अंक - 11-11-2020) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !

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