मैंने अपना होश संभालने से पहले दो-तीन बार ट्रेन में सफ़र किया होगा लेकिन अपने होश में, 5 साल की उम्र में, मेरी पहली रेल-यात्रा जून, 1956 में हुई थी.
पिताजी का ट्रांसफ़र बिजनौर से लखनऊ हो गया था.
लखनऊ जाने के लिए हम लोगों को ट्रेन से अपनी यात्रा संपन्न करनी थी.
हमारे परिवार के अन्य सदस्यों के लिए रेल-यात्रा का यह पहला अनुभव नहीं होता लेकिन मेरे होश संभालने के बाद, मेरी पहली रेल-यात्रा होने की वजह से यह मेरे लिए एक ऐतिहासिक महत्व की घटना होने वाली थी.
मेरे भाइयों ने रेल-यात्रा के बारे में मेरा सामान्य-ज्ञान बढ़ाने में मेरी बड़ी मदद की थी.
स्टेशन मास्टर की हरी झंडी का इशारा मिलते ही कैसे धुआं उड़ाता हुआ एक दैत्याकार काला इंजन, बीसियों डिब्बों वाली ट्रेन को लोहे की दो पटरियों पर –
‘हुश्यिप छिक-छिक, हुश्यिप छिक-छिक, कू’
करते हुए फ़र्राटे से खींचता हुआ ले जाता है और फिर अगले किसी स्टेशन पर कैसे वहां के स्टेशन मास्टर के हाथ में लाल झंडी का इशारा मिलने पर वह पूरी ट्रेन को एक झटका सा देकर रुक जाता है, इस कथा को मैंने आदि से अंत तक कितनी बार सुना, इसका हिसाब दे पाना मेरे लिए मुश्किल है.
मुझे यह भी बताया गया कि पिताजी के एंटाइटलमेंट की बदौलत हम लोग ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास में सफ़र करने वाले हैं.
अब तक मैंने किसी स्कूल में ही फ़र्स्ट क्लास, सेकंड क्लास और थर्ड क्लास का नाम सुना था.
मैंने बड़े भाई साहब से पता किया कि ट्रेन में यह फ़र्स्ट क्लास क्या बला होती है.
बड़े भाई साहब से मुझे मिली जानकारी का सारांश था -
ट्रेन में यात्रियों के लिए कुल तीन क्लास होते हैं – फ़र्स्ट क्लास, सेकंड क्लास और थर्ड क्लास
(उन दिनों शायद ए. सी. फ़र्स्ट क्लास का चलन नहीं हुआ होगा और यह तो तय है कि तब स्लीपर क्लास नहीं होता था).
सबसे कम पैसे की टिकट वाले थर्ड क्लास में भीड़-भड़क्का, धक्कम-मुक्का, चिल्ल-पों का साम्राज्य होता है और यात्रियों को लकड़ी के पटरों से बनी बेंचों पर बैठ कर, एक-दूसरे से सटे-सटे, सफ़र करना होता है.
थर्ड क्लास के विषय में मिली इस भयावह जानकारी पर मेरी कुछ ऐसी थी –
‘राम ! राम ! ऐसी तकलीफ़देह यात्रा करने की तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता !’
(वैसे एक मज़े की बात बताऊं - पिताजी के ट्रांसफ़र के समय होने वाली रेल-यात्रा को छोड़ कर हमारी सभी रेल-यात्राएं इसी तकलीफ़देह थर्ड क्लास में ही हुआ करती थीं.)
थर्ड क्लास से करीब दुगुनी टिकट वाले सेकंड क्लास में सीटों पर गद्दियाँ होती हैं, उनमें भीड़-भाड़ भी कम होती है और सफ़र भी आरामदेह होता है.
लेकिन राजाओं और नवाबों वाले ठाठ तो महा-महंगे फ़र्स्ट क्लास में बैठने वालों के ही होते हैं.
अल्लाताला से वीआईपी किस्मत लिखा कर लाए यात्रियों के लिए उपलब्ध फ़र्स्ट क्लास में बैठने-सोने के लिए ऐसी सोफ़ेनुमा, बेडनुमा, व्यवस्था होती है जो कि हमारे घर के बेंत से बुने सोफ़े की तुलना में या हमारे घर के रुई के गद्दे वाले बिस्तरों की तुलना में, बहुत आरामदायक और शानदार होती है.
फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में छत पर पंखे लगे होते हैं और उसके दोनों ओर बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ होती हैं जिन से कि सफ़र करते हुए बाहर का नज़ारा देखा जा सकता है.
सुना है कि अमीर ख़ुसरो ने कभी काश्मीर के लिए कहा था –
अग़र फ़िरदौस बर-रूए ज़मीं अस्त,
हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त.
(पृथ्वी पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है)
अगर 1956 में अमीर ख़ुसरो होते तो किसी ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में बैठ कर भी शायद वो यही शेर कहते.
ट्रेन में सफ़र करने से दो सप्ताह पहले ही मैंने भाइयों से और बहन जी से लड़-झगड़ कर अपने लिए विंडो-सीट रिज़र्व करवा ली थी.
मेरे लिए सबसे ज़्यादा ख़ुशी की बात यह थी कि पिताजी ने भी घर के मुझ सबसे छोटे सदस्य की मांगों पर अपनी संस्तुति की बाक़ायदा मुहर लगा दी थी.
आख़िरकार बहुत दिनों के इंतज़ार के बाद हमारे सुहाने सफ़र की घड़ी आ ही गयी.
डेड़ दर्जन छोटे-बड़े अस्बाब के साथ हम चार भाई, बहन जी, माँ और पिताजी यानी कि कुल 25 अदद, बिजनौर रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हुए.
हमको छोड़ने के लिए माँ-पिताजी के मित्रों की और पिताजी के मातहतों की भीड़ स्टेशन पर पहले से मौजूद थी.
पिताजी को माला पहनाई गयी, माँ को किसी ने फूलों का गुलदस्ता भेंट किया, और तो और, किसी मेहरबान ने एक छोटी सी माला मेरे गले में भी डाल दी.
स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर एक बदसूरत सी, खटारा सी, हर तरफ़ से बंद डिब्बों वाली, एक भदरंगी ट्रेन खड़ी थी.
मुझे पता चला कि वह एक मालगाड़ी थी जिसमें कि सामान को इधर से उधर पहुँचाया जाता था.
हम लोग इंतज़ार में थे कि कब प्लेटफ़ॉर्म से यह मुई मालगाड़ी हटे, उस पर हमारी ट्रेन आए और फिर हमारा सुहाना सफ़र शुरू हो.
लेकिन कमबख्त मालगाड़ी थी कि प्लेटफ़ॉर्म से हटने का नाम ही नहीं ले रही थी.
बिजनौर रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर पिताजी को वीआईपी ट्रीटमेंट दे रहे थे.
पुराने ज़माने में बिजनौर जैसे एक छोटे से स्टेशन से किसी ऑफ़िसर की विदाई कभी-कभार ही हुआ करती होगी.
कुछ देर बाद प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी मालगाड़ी के गार्ड भी भीड़ में शामिल हो गए.
स्टेशन मास्टर और मालगाड़ी के गार्ड के बीच में कुछ बातचीत हुई और फिर कुलियों द्वारा हमारा सारा सामान मालगाड़ी के पिछले हिस्से की तरफ़ ले जाया जाने लगा. हम सब भी उसी दिशा में बढ़ने लगे.
ट्रेन के आख़िर में झोंपड़ी जैसा एक डिब्बा आया जो कि उस मालगाड़ी के गार्ड का केबिन था.
मेरी हैरानी की कोई इंतिहा नहीं रही जब मैंने देखा कि मालगाड़ी के गार्ड्स-केबिन में कुलियों द्वारा हमारा कुल डेड़ दर्जन सामान बड़े करीने से सजाया जा रहा है.
जब हमारा सारा सामान गार्ड के केबिन में फ़िट हो गया तो फिर हम लोगों को भी उसी केबिन में बैठने के लिए कहा गया.
खटारा मालगाड़ी के गार्ड्स-केबिन में सफ़र करने की बात सुन कर सुहाने और नवाबी सफ़र के मेरे सारे सपने भुने हुए पापड़ की तरह टूट गए.
हाय ! घुचकुल्ली गार्ड्स-केबिन में हमारा सात लोगों का परिवार और गार्ड को मिला कर कुल जमा आठ लोग, हमारे डेड़ दर्जन सामान के साथ, कैसे फ़िट हुए, इसे समझने के लिए हमको किसी ट्रक में कसाई घर को ठूंस-ठूंस कर ले जाई जा रही गाय-भैंसों को ही देखना पड़ता.
अपनी दुर्दशा देखा कर मेरी आँखों से तो आंसू बहने लगे.
पिताजी ने मुझे पुचकारते हुए समझाया कि बिजनौर स्टेशन से कोई पैसेंजर ट्रेन लखनऊ के लिए नहीं जाती थी (यह 1956 की बात थी) और शाम के वक़्त तो कोई पैसेंजर गाड़ी बिजनौर से नजीबाबाद भी नहीं जाती थी इसलिए हमको मजबूरन बिजनौर से नजीबाबाद तक इसी कष्टकारी मालगाड़ी में सफ़र करना था.
लेकिन अच्छी बात यह थी कि नजीबाबाद से लखनऊ तक का बाक़ी सफ़र हमको एक पैसेंजर ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में, आराम के साथ, बैठ कर या फिर शेषशायी भगवान विष्णु की तरह लेट कर, मज़े से पूरा करना था.
मालगाड़ी में लद-फंद कर, सिर्फ़ तीस किलोमीटर का सफ़र, हमने ढाई-तीन घंटे में पूरा किया.
हमारा अंग-अंग दुःख रहा था.
नजीबाबाद पहुँचते-पहुँचते रात हो चुकी थी और अभी तो हमको नजीबाबाद स्टेशन पर नजीबाबाद से लखनऊ जाने वाली ट्रेन का दो घंटे इंतज़ार भी करना था.
बिजनौर से नजीबाबाद तक के दुखदायी सफ़र से बुरी तरह से थका हुआ, लखनऊ जाने वाली ट्रेन के आने का इंतज़ार करते-करते, मैं कब सो गया, मुझे पता ही नहीं चला.
बहन जी के अचानक ज़ोर-ज़ोर से झकझोरने से मेरी नींद टूटी.
मैंने आँख खोल कर देखा कि मैं पैसेंजर ट्रेन के शानदार फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की लोअर बर्थ पर लेटा हूँ लेकिन जब तक मैं इस नवाबी ठाठ का लुत्फ़ उठा पाता, बहन जी ने मेरा हाथ खींच्रते हुए मुझे ट्रेन से निकाल कर परिवार के अन्य सदस्यों के साथ लखनऊ स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा कर दिया.
नजीबाबाद से लखनऊ तक के सफ़र में, ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की शाही गद्दे वाली लोअर बर्थ पर मैं सोया ज़रूर था लेकिन इसका पता तो मुझे तब चला जब सफ़र रूपी फ़िल्म की आख़री रील का आख़री सीन चल रहा था.
भाइयों और बहन जी को जलाते हुए फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की विंडो-सीट पर बैठ कर सफ़र का आनंद उठाने का और वहां से बाहर का नज़ारा देखने का मेरा ख़्वाब तो चकनाचूर हो ही गया था.
प्रैक्टिकली मेरी स्मृति में मेरी पहली रेल-यात्रा बिजनौर से सिर्फ़ नजीबाबाद तक ही सीमित रही थी.
इस तरह से मेरी पहली रेल-यात्रा – भगवतीचरण वर्मा की कविता - ‘चूं-चरर-मरर, चूं-चरर-मरर, जा रही चली भैंसागाड़ी’ के अंदाज़ में संपन्न हुई.
इस यात्रा की करेले-नीम जैसी कड़वी यादें आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती हैं.
मेरी तो भगवान से बस, यही प्रार्थना है कि वो किसी और के सुहाने सफ़र के सपने कभी भी ऐसे चूर-चूर न करें जैसे कि उन्होंने मेरे किए.
बहन जी के अचानक ज़ोर-ज़ोर से झकझोरने से मेरी नींद टूटी.
जवाब देंहटाएंमैंने आँख खोल कर देखा कि मैं पैसेंजर ट्रेन के शानदार फ़र्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की लोअर बर्थ पर लेटा हूँ लेकिन जब तक मैं इस नवाबी ठाठ का लुत्फ़ उठा पाता, बहन जी ने मेरा हाथ खींच्रते हुए मुझे ट्रेन से निकाल कर परिवार के अन्य सदस्यों के साथ लखनऊ स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा कर दिया.
सुंदर अनुभवशील रचना।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद सधु चंद्र जी.
हटाएंऐसी खट्टी-मीठी यादें कभी मेरा पीछा ही नहीं छोड़तीं !
बढ़िया। यादें बनी रहें।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मित्र !
हटाएंअब तो इन्हीं यादों के सहारे कभी हंस लेते हैं, कभी मुस्कुरा लेते हैं.
बच्चों को बहुत बार, करीब हर साल हिंदी गृहकार्य में यह निबंध देती हूँ - रेलवे स्टेशन पर एक घंटा।
जवाब देंहटाएंअंदर की शिक्षिका कुलबुला रही है, मन कर रहा है कि आपको 10 out of 10 दे दूँ ( धृष्टता के लिए क्षमा )
आपका यह अनुभव बच्चों के साथ शेयर करने के लिए ग्रुप में लिंक भेज रही हूँ।
मीना जी, इस उदार आकलन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद !
हटाएंहम बेचारे कला संकाय वाले हमेशा 10 आउट ऑफ़ 10 पाने के लिए तरसते रहते हैं. आज जाकर एक परीक्षक ऐसा मिला है जिसने मेरा एक नंबर भी नहीं काटा है.
जाके पाँव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर परायी! क्या बताऊँ! हमारे मुक़द्दर में तो ऐसी करमजली यात्राओं का एक लम्बा-सा दस्तूर रहा है। छात्र जीवन में रुड़की जाते वक़्त न जाने कितनी बार लखनऊ से लक्सर तक दून इक्स्प्रेस में रात भर की यात्रा 'स्टैंडिंग-पोज़ीशन' में ही की है(रात में सोने वाले आरक्षण की सुविधा-सम्पन्न लोग हमें अपनी सीटों से बाइज़्ज़त उतार देते थे)। तब न आरक्षण की इतनी माक़ूल सुविधा थी, न समय और न पैसे ही! हाँ पहली बार जब दिल्ली से मायानगरी जेब ढीली कर राजधानी-इक्स्प्रेस में (आइआइटी बम्बई अड्मिशन की तिथि न निकल जाने की मजबूरी में)गया तब जा के लगा कि शशि थरूर ने कितना सुंदर वर्गीकरण किया है गोपेश-मोहन और विश्व-मोहन का, "कैटल-क्लास"! बहुत सुंदर संस्मरण!
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मित्र ! तुम तो हम से अगली पीढ़ी के हो. तुम्हारे छात्र-जीवन में तो हर जगह आरक्षण की सुविधा रही होगीे. तुम लोग आरक्षण करवाने में आलस कर जाते होगे या फिर हमारी तरह मुद्रा बचाने के फेर में रहते होगे.
हटाएंशशि थरूर का नाम तो - शशि गुरूर' होना चाहिए था. यह घमंडी पुष्पक विमान में ही उड़ने वालों को अपने बराबर का मानता है.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-12-2020) को "उलूक बेवकूफ नहीं है" (चर्चा अंक- 3907) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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'उलूक बेवकूफ़ नहीं है' (चर्चा अंक - 3907) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंअनमोल यादों के पिटारे से एक अनमोल संस्मरण । आपके बात कहने के अन्दाज में जादू है सर जो पाठक को मंत्रमुग्ध करता
जवाब देंहटाएंहै ।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी.
हटाएंचटपटी यादें मित्रों के साथ याद करना मेरी आदत में शुमार है.
अपनी यादों को शब्दों में बहुत ही सुन्दर तरीके से व्यक्त कियाहै आपने।
जवाब देंहटाएंमेरी पहली मुम्बई की लोकल यात्रा जरूर पढ़िएगा।https://www.jyotidehliwal.com/2015/08/beti-chhut-jati-to.html
प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति !
जवाब देंहटाएंतुम्हारी रोमांचक यात्रा-गाथा पढ़ी. मेरे दिए गए सुझावों पर गौर करना.
यात्रा संस्मरण रोचक लगी प्रभावशाली लेखन।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद शांतनु सान्याल जी.
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