फ़ेसबुक पर अपने एक आलेख में मेरे मित्र प्रोफ़ेसर हितेंद्र पटेल ने हर जगह महिलाओं-लड़कियों को प्राथमिकता दिए जाने पर आपत्ति की है.
मैं भी उनके इस विचार से सहमत हूँ कि हर जगह ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ का नारा बुलंद किये जाने की ज़रुरत नहीं है.
यह सही है कि स्त्री-दमन और स्त्री-शोषण, विश्व-इतिहास का, ख़ासकर भारतीय इतिहास का, सबसे कलुषित अध्याय है लेकिन इसके खिलाफ़ हम पूरी तरह से उल्टी गंगा बहा कर एक स्त्री-प्रधान समाज को स्थापित कर न तो स्त्रियों को समाज में यथोचित अधिकार दिला सकेंगे और न ही उन्हें निर्बाध उन्नति करने का अवसर प्रदान करा पाएंगे.
मध्यकालीन यूरोप में नाइट्स की शौर्य-गाथाओं में उनकी शिवैलरी (नारी-रक्षण की भावना) की अनगिनत कहानियां प्रचलित थीं.
इन्ही नाइट्स की तरह हमारे आज के बॉलीवुड के हीरोज़ भी खलनायकों के चंगुल में फंसी नायिका का उद्धार करने के लिए कहीं से भी अवतरित हो जाते हैं.
बस में या ट्रेन में किसी महिला को खड़ा देख कर किसी पुरुष द्वारा अपनी सीट उसे देना सभ्यता की निशानी मानी जाती है. किसी टिकट विंडो पर भले ही महिलाओं के लिए अलग पंक्ति की व्यवस्था न हो पर उनको आउट ऑफ़ टर्न टिकट तो मिल ही जाता है.
औरत को मोम की गुड़िया समझना या उसे रुई के फाहे में महफ़ूज़ रखने की कोई कोशिश करना मूर्खता है.
बिना किसी के सहारे चुनौतियों का सामना करने की क्षमता पुरुष का एकाधिकार नहीं है.
स्त्रियाँ भी स्वयं-सिद्धा बन कर कठिन से कठिन मुश्किलों का सफलतापूर्वक सामना कर सकती हैं और उन पर जीत हासिल कर सकती हैं.
आजकल नारी-उत्थान के स्व-घोषित मसीहा हर क्षेत्र में स्त्रियों को आरक्षण दिए जाने की सिफ़ारिश करते हैं.
बकौल लालू प्रसाद यादव, नारी-उत्थान की एक अभूतपूर्व मिसाल उन्होंने तब क़ायम की थी जब बिहार के मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी छिन जाने की स्थिति में उन्होंने अपनी लगभग काला अक्षर भैंस बराबर श्रीमती जी, राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया था.
मेरी दृष्टि में नारी-उत्थान के नाम पर इतना फूहड़ और वीभत्स मज़ाक कोई दूसरा नहीं हो सकता था.
बिना किसी की योग्यता जांचे, बिना उसकी सामर्थ्य का समुचित आकलन किये, किसी की थाली में कोई महत्वपूर्ण पद परोस देना तो अन्याय है.
यह अन्याय सिर्फ़ दूसरों के साथ ही नहीं है, बल्कि उसके साथ भी है जिस पर कि ऐसी कृपा बरसाई गयी है.
बहुत से अभिभावक अपनी बेटियों को कोई भी दुष्कर कार्य नहीं सौंपते हैं. अगर बेटियों को कहीं बाहर जाना हो तो उसके साथ घर के किसी पुरुष का जाना ज़रूरी समझा जाता है.
मेरे अल्मोड़ा-प्रवास में मेरी बड़ी बेटी गीतिका ने दिल्ली में रह कर बीएस. सी. और एमएस. सी किया और छोटी बेटी रागिनी ने पन्त नगर से बी. टेक. और फिर दिल्ली से एम. बी. ए. किया.
मेरी दोनों बेटियां अपने दम पर अल्मोड़ा से दिल्ली तक का सफ़र अकेले ही करती रहीं. उनके पापा को या उनकी मम्मी को कभी भी उनका बॉडी गार्ड बनने की ज़रुरत नहीं पड़ी.
दोनों बेटियों को पता था कि उन्हें ख़ुद को किस तरह सुरक्षित रखना है और इसके लिए क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी हैं.
अपने पैरों पर खड़े होने के बाद अपने रहने की व्यवस्था भी हमेशा उन्होंने ख़ुद ही की. यहाँ तक कि उनकी शादियाँ भी हम पति-पत्नी की टांग अड़ाए बिना ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गईं.
पुरुषों का, लड़कों का, चरित्र बड़ा दो-रंगा होता है.
अपने घर के किसी बच्चे को दो मिनट के लिए भी गोदी में न उठाने वाला कोई मर्द अक्सर किसी सूरतक़ुबूल अपरिचित महिला का पचास किलो बोझा उठाने को भी तैयार मिल सकता है.
इस बोझा उठाने वाली बात पर एक सच्चा किस्सा –
1994 में मैं अपने विद्याथियों का एजुकेशनल टूर लेकर अल्मोड़ा से राजस्थान जा रहा था. टूर में विद्यार्थियों के पास पैसे की किल्लत को देख कर मैंने यह घोषणा कर दी कि हम कहीं भी कुली नहीं करेंगे और हर कोई अपना-अपना सामान ख़ुद उठाएगा.
हमारे कुछ उत्साही लड़के लपक कर लड़कियों का सामान उठाने लगते थे जब कि अपने गुरु जी को ख़ुद का सूटकेस और बैग उठाते देख उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी.
मेरे इस हिटलरी फ़रमान –
‘हर कोई अपना सामान ख़ुद उठाएगा और कोई भी किसी दूसरे का सामान क़तई नहीं उठाएगा. मेरा यह हुक्म न मानने वाले को टूर से बाहर कर दिया जाएगा.’
सभी लड़कियों ने तो रास्ते भर आराम से अपना सामान ख़ुद उठाया लेकिन हमारे उत्साही स्वयंसेवक बालकों की शिवैलरी दिल की दिल में ही रह गयी.
मेट्रोज़ में, बसों में, वरिष्ठ नागरिकों के लिए कुछ सीट्स आरक्षित होती हैं. एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं ऐसी किसी सीट पर बैठना अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझता हूँ.
खचाखच भरी मेट्रो या बस में वरिष्ठ नागरिक के लिए आरक्षित सीट पर अगर कोई लड़का बैठा हो या कोई लड़की भी बैठी हो तो उसे हटा कर उस सीट पर बैठने में मैं कभी संकोच नहीं करता.
अगर हम सच्चे अर्थ में नारी-हितैषी हैं तो हमको स्त्रियों को विशेष अधिकार और अतिरिक्त सुविधाएँ देने के स्थान पर उनकी उन्नति के मार्ग में अनादि काल से डाले जा रहे रोड़े हटाने चाहिए और सभी क्षेत्रों में उन्हें पुरुषों के समान अपनी योग्यता सिद्ध करने का अवसर दिलाना चाहिए.
हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि आज भी समाज में उन पोंगापंथियों का और पुरातनपंथियों का बाहुल्य है जिन्हें अपने समाज की पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं के अंध-निर्वाहन में ही सबका कल्याण दिखाई देता है.
किन्तु प्रगतिशीलता के नाम पर इस सामाजिक रोग का निदान स्त्रियों पर अनावश्यक और अप्रत्याश्रित सुविधाएँ लुटा कर नहीं किया जा सकता.
सबको उन्नति का एक समान अवसर प्रदान करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए.
किसी भी व्यवस्था में, चाहे वह धार्मिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, शैक्षिक हो अथवा सामाजिक हो, भेद-भाव और असमानता का लेशमात्र अंश भी नहीं होना चाहिए और न ही किसी को जाति-धर्म के आधार पर, न ही किसी को क्षेत्र के नाम पर, न ही किसी को स्त्री होने के आधार पर,
आरक्षण का, या विशेष सुविधाओं का या फिर कैसी भी रियायतों का तोहफ़ा मिलना चाहिए.
वाह...।
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपका आलेख।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-12-20) को "शब्द" (चर्चा अंक- 3923) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
'शब्द' (चर्चा अंक - 3923) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद कामिनी जी.
जवाब देंहटाएंकिसी भी व्यवस्था में, चाहे वह धार्मिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, शैक्षिक हो अथवा सामाजिक हो, भेद-भाव और असमानता का लेशमात्र अंश भी नहीं होना चाहिए और न ही किसी को जाति-धर्म के आधार पर, न ही किसी को क्षेत्र के नाम पर, न ही किसी को स्त्री होने के आधार पर,
जवाब देंहटाएंआरक्षण का, या विशेष सुविधाओं का या फिर कैसी भी रियायतों का तोहफ़ा मिलना चाहिए।
सम्यक्।
उदार आकलन के लिए धन्यवाद सधुचन्द्र जी.
जवाब देंहटाएंसटीक प्रश्नों को उजागर करती रचना..
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा जी.
हटाएंआपके लेख का आखरी अनुच्छेद ही सारी व्यस्था की कहानी कह देता है। चूँकि समाज में अभी भी भेद भाव है इसलिए आरक्षण दिया जाता रहा है। फिर भी हर जगह लेडीज फर्स्ट को हर जगह नहीं मानना चाहिए। मैं भी अपनी सीट तब तक नहीं देता जब तक कि जरूरी न हो।
जवाब देंहटाएंबाकि आपने जितने उदाहरण दिए चाहे वो छात्रों द्वरा लडकियों का सामान उठाना हो या पुरुषों द्वारा अंजान स्त्रियों का सामान उठाना.. वहाँ पर मेरे अनुभव के हिसाब से शिवेलरी से ज्यादा स्त्री पर इम्प्रैशन जमाकर उनके गुड बुक्स में आने की इच्छा ज्यादा रहती है.....
आपने बिलकुल सही बात कही है विकास नैनवाल 'अंजान' जी. अगर महिला सुन्दर और युवा न हो तो हमारे बहुत से नौजवानों की शिवैलरी गहरी नींद में सोयी रहती है.
हटाएंसमान दर्जा होना चाहिए
जवाब देंहटाएंफर्स्ट सेकंड भेद उत्पन्न करता है
अच्छी प्रस्तुति
वैचारिक समानता के लिए धन्यवाद कविता जी.
हटाएंनारी-उत्थान के मार्ग में जो बाधाएं हैं, उनको अवश्य दूर किया जाना चाहिए किन्तु इसका यह मतलब क़तई नहीं होना चाहिए कि योग्य पुरुषों का वाजिब हक़
प्रभावशाली लेखन - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद शांतनु सान्याल जी.
जवाब देंहटाएंतटस्थ अवलोकन ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अमृता तन्मय !
हटाएंकिसी भी व्यवस्था में, चाहे वह धार्मिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, शैक्षिक हो अथवा सामाजिक हो, भेद-भाव और असमानता का लेशमात्र अंश भी नहीं होना चाहिए और न ही किसी को जाति-धर्म के आधार पर, न ही किसी को क्षेत्र के नाम पर, न ही किसी को स्त्री होने के आधार पर।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सटीक विश्लेषण गोपेश भाई।
इसी विषय से संबंधित मेरा लेख https://www.jyotidehliwal.com/2016/02/kya-mahilao-ko-aarkshan-milna-chahie.html
जरूर पढ़िएगा।
ज्योति, तुम्हारे विचार बहुत प्रगतिशील और व्यावहारिक हैं.
हटाएंतथाकथित स्त्री-उद्धारक स्त्रियों को आरक्षण दिलवा कर उन्हें अपने एहसान तले दबाना चाहते हैं और यह सिद्ध करना चाहते हैं कि स्त्री आरक्षण की बैसाखी के बगैर तरक्की कर ही नहीं सकती.
हमको अपने शब्दकोश से 'अबला' , बेचारी असहाय' जैसे शब्द हटाने होंगे.