मुदर्रिसी के दौरान अल्मोड़ा में एक से एक जीनियस विद्यार्थियों से मेरा पाला पड़ा था.
इन में से कुछ विभूतियाँ तो चाह कर भी भूली नहीं जा सकती हैं.
ऐसी ही एक हस्ती थी एम. ए. के हमारे एक पहलवान विद्यार्थी की.
पहलवान क्लास में मेरे लेक्चर्स के समय थोड़े-थोड़े अंतराल पर कहता रहता था -
'गुरु जी, नोट्स लिखा दीजिए. आपका लेक्चर हमारे पल्ले नहीं पड़ता.'
मेरा जैसा गुस्ताख़ उसकी ऐसे हर फ़रमाइश को अन-सुना करते हुए अपना लेक्चर जारी रखता था.
दो सौ नाली के मालिक, एक बड़े किसान के बेटे, इस पहलवान विद्यार्थी से मुझे सिर्फ़ एक शिक़ायत थी.
वह यह कि वो खेत के बजाय क्लास में नोट-बुक्स में और परीक्षा के दौरान उत्तर-पुस्तिकाओं में गुड़ाई किया करता था.
लेकिन मुझे इस गुड़ाई-एक्सपर्ट विद्यार्थी के भविष्य की कोई चिंता नहीं थी.
मेरी तनख्वाह से ज़्यादा आमदनी तो उसके खेतों में उपजे आलुओं से हो जाती थी.
मैं अक्सर पहलवान को सलाह देता रहता था कि वो पढ़ाई-लिखाई को तिलांजलि देकर अपना पूरा समय खेती को दे.
ऐसा करने से उसका और साथ में हमारे इतिहास विभाग, दोनों का ही, कल्याण हो सकता था.
लेकिन पहलवान की खेती में कोई दिलचस्पी नहीं थी.
पहलवान की दिली तमन्ना थी कि वो इंस्पेक्टर ऑफ़ पुलिस बन कर उत्तराखंड में जुर्म को जड़ से मिटा कर अपना नाम इतिहास में अमर कर दे.
हमारा पहलवान कई बार पुलिसिया परीक्षाओं में गोता लगा चुका था.
अबकी बार आर-पार की यानी कि 'नाउ और नेवर' की लड़ाई थी.
पहलवान ऐसी हर परीक्षा के लिए अगले साल से ओवर-एज होने वाला था.
एक दिन मेरा क्लास शुरू होते ही पहलवान मुस्कुराते हुए मेरे पास आया.
उसने एक ही हाथ से मेरे पैर छुए क्योंकि उसके दूसरे हाथ में मिठाई का डिब्बा था.
पहलवान ने मिठाई का डिब्बा खोला और मुझ से अनुरोध किया कि उस में से एक लड्डू निकाल कर खा लूं.
मैंने इस मिष्ठान-वितरण का सबब पूछा तो पता चला कि पहलवान की भर्ती कांस्टेबल के रूप में उत्तराखंड पुलिस में हो गयी है.
मैंने ख़ुद लड्डू खाते हुए क्लास में लड्डू-ब्रेक की घोषणा कर दी.
लड्डू खाते हुए मैंने और सभी विद्यार्थियों ने पहलवान को उसकी कामयाबी पर मुबारकबाद दी.
क्लास ख़त्म होने पर और विद्यार्थियों की भीड़ छटने पर मैंने पहलवान से पूछा -
'वत्स ! तूने क्या जुगाड़ किया था जो इस बार तुझे खाक़ी वर्दी मिल ही गयी?'
पहलवान ने शर्माते हुए बताया -
'हमारे दरोगा मामा जी ने जुगाड़ लगाया था. चार लाख देकर ही काम हो गया. वैसे आजकल रेट तो दस लाख का चल रहा है.'
मैंने अदृश्य दरोगा मामा जी को प्रणाम करते हुए होने वाले सिपैया से कहा -
'बालक ! तेरी मनोकामना पूरी हुई.
तेरी तोंद निकल आई है. अब तू पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर खेलकूद और कसरत पर ध्यान दे.'
बालक ने जवाब दिया -
'गुरु जी, अभी से पढ़ाई-लिखाई छोड़ दूंगा तो आई. पी. एस. कैसे बनूँगा?
आप आशीर्वाद दीजिए कि अपने अंतिम प्रयास में मैं आई. पी. एस. हो जाऊं.'
'आई. पी. एस.' होने का आशीर्वाद देने की बात सुनते ही मेरे पैर कांपने लगे और मेरी ज़ुबान लड़खड़ाने लगी. मैंने हकलाते हुए बांके सिपैया से पूछा -
'बालक ! तू 'आई. पी. एस.' का फ़ुल फ़ॉर्म जानता है?'
बालक को मेरे सवाल पर आश्चर्य हुआ. फिर उसने जवाब दिया -
'हाँ गुरु जी ! अच्छी तरह जानता हूँ. 'आई. पी. एस.' से मतलब है - इंस्पेक्टर ऑफ़ पुलिस सर्विस'.
इतना सुनना था कि मैंने अपने पर्स में से एक पांच का नोट निकाल कर पहलवान को दिया और फिर हाथ जोड़ते हुए उस से माफ़ी मांगते हुए कहा -
'पहलवान, तेरा लड्डू तो मेरे पेट में चला गया है. वो तो मैं तुझे वापस कर नहीं सकता. उसके बदले में तू ये पांच रूपये रख और मुझे माफ़ कर.
मैं चाह कर भी, अपनी आत्मा का खून कर के भी, तुझको 'आई. पी. एस.' होने का आशीर्वाद नहीं दे पाऊंगा.'
एक नहीं हजारों हैं
जवाब देंहटाएंहमारे ही आईने हैं
अभी भी कतारों में हैं । हा हा ।
मित्र, हम कुम्हार रूपी अध्यापक हमारे जीनियस जैसे ही बर्तन ढाल पाते हैं.
हटाएंअबतक तो आपका आरुणि आई पी एस बन ही गया होगा😀😀
जवाब देंहटाएंमित्र, महर्षि धौम्य के अल्मोड़ा प्रवास में तो आरुणि हेड कांस्टेबल के पद तक ही पहुँच पाया था. आगे के साढ़े नौ साल में उसकी पदोन्नति कहाँ तक हुई है, यह तो राम जी ही जानते होंगे.
हटाएं'धुआं-धुआं सा आसमां क्यूं है' (चर्चा-अंक 4047) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद मीना जी.
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार और मजेदार संस्मरण,हमारे यूपी,बिहार,उत्तराखंड में ऐसे नमूनों की कोई कमी नही है, जो ताजिंदगी आपको रोमांच देते रहते हैं,सुंदर संस्मरण के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा. आजकल सियासती नमूने सारे भारत में और सारे भारत पर छाए हुए हैं. उन दिग्गजों के सामने तो विद्यार्थी नमूने दुधमुहें बच्चे जैसे हैं.
हटाएंइस प्रकरण को पढ़ने के पश्चात अपनी हँसी रोक नहीं पाया मैं।
जवाब देंहटाएंदरअसल हमारा समाज ऐसे ही उदाहरणों से पटा पड़ा है। योग्य होना आवश्यक नहीं है, पर अरमानों के पाँव थमते नहीं। और तो और, कुछ लोग दूसरों की योग्यता का सम्मान तक नहीं करते।
यह एक विसंगति, समाज को दिशा भ्रष्ट कर रही है। मनुष्य का आचरण, किसी के नियंत्रण में नही।
शायद, इस एक विषय को शिक्षा के मूल में जोड़ कर इस विसंगति को कुछ कम अवश्य किया जा सकता है।
नमन आदरणीय ....
मेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी.
जवाब देंहटाएंशिक्षा-क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को मैंने बहुत क़रीब से देखा भी है और उसे भुगता भी है.
आज मेकॉले के ज़माने की शिक्षा-पद्धति की कोई उपयोगिता रह ही नहीं गयी है. शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता ही जा रहा है.
हम अध्यापक जाने-अनजाने गुंडों की नर्सरी तैयार कर रहे हैं.
कृपया शुक्रवार के स्थान पर रविवार पढ़े । धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन संस्मरण आदरणीय।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनुराधा जी.
हटाएंइस तनाव भरे माहौल में मित्रों को थोड़ा हंसाने-गुदगुदाने की कोशिश कर रहा हूँ.
बहुत ही लाजवाब मजेदार संस्मरण.....
जवाब देंहटाएंसच में ऐसे महाधुरंधर पुलिस ऑफिसर से क्या उम्मीद कर सकते हैं।
सुधा जी, जब होनहार विद्यार्थी को उस के गुरु जी ने आई. पी. एस. बनने का आशीर्वाद ही नहीं दिया तो वो बेचारा कांस्टेबल से धुरंधर पुलिस ऑफ़िसर कैसे बन पाएगा?
हटाएंआईपीएस माने कि इंस्पेक्टर ऑफ़ पुलिस सर्विस..वाह ...अद्भुत संस्मरण जैसवाल जी...इसे पढ़कर मुझे #पहलवानबुद्धि की कहावत याद आ गई
जवाब देंहटाएंअलकनंदा जी, अंग्रेज़ों ने हमारे अरमानों का खून किया था. आज हमारे होनहार विद्यार्थी अंग्रेज़ों से बदला लेने के लिए उनकी भाषा का खून कर रहे हैं.
हटाएंमजेदार संस्मरण
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ओंकार जी.
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