मैं और मेरे मित्र प्रोफ़ेसर अनिल जोशी, दोनों ही 8 नवम्बर, 2016 को छत्तीसगढ़ प्रोविंशियल सिविल सर्विसेज़ एक्ज़ाम्स की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के सिलसिले में रायपुर में थे.
पिछले 5 दिनों से हम लोग वहीं जमे थे और 11 नवम्बर को हमको वापस अपने-अपने घर लौटना था.
हम लोगों ने तय किया कि जाने से पहले कुछ शॉपिंग कर ली जाए.
मैंने तो कोई ख़ास शॉपिंग नहीं की इसलिए मेरे पास अपनी ज़रुरत से काफ़ी रूपये बच रहे लेकिन अनिल जोशी ने आधा दर्जन साड़ियाँ खरीद लीं और इस बम्पर ख़रीदारी की वजह से उनकी जेब और उनके डेबिट कार्ड में जमा रकम खाली हो गयी.
उस समय बाज़ार में मेरे पास मेरा कोई डेबिट कार्ड नहीं था पर मैंने अनिल जोशी को अपनी जेब से निकाल कर नक़द 5000/- उपलब्द्ध करा दिए.
शॉपिंग कर के हम लोग होटल पहुँच कर डाइनिंग रूम में पहुंचे.वहां के जाइंट स्क्रीन वाले टीवी पर समाचार चल रहे थे.
अचानक आदरणीय का रुपहले पर्दे पर प्रदार्पण हुआ. उन्होंने अपने नोटबंदी फ़रमान के बारे में क्या कहा और किस तरह से कहा, पहले तो हमारे समझ में ही नहीं आया लेकिन जब समझ में आया तो हम सब गुरुजन ने अपने-अपने सर पकड़ लिए.
अनिल जोशी को 5000/- देने के बाद उस समय मेरे पास 500/- के क़रीब 15-16 नोट बचे थे और 100/- के मात्र चार ही थे.
अच्छा था कि रायपुर से दिल्ली तक की हवाई-यात्रा की टिकट मेरे पास थी.
नोटबंदी का यह क़यामती समाचार सुनते ही स्मार्ट अनिल जोशी डाइनिंग रूम से फ़ौरन उठ कर अपने कमरे में गए और वहां से अपना सूटकेस खंगाल कर 2500/- ले आए.
वो 2500/- उन्होंने मेरे हाथ में थमाए और फिर मुझ से मुस्कुरा कर बोले -
'दोस्त, अब तुम्हारे 2500/- रूपये ही मुझ पर उधार रहे.'
अपनी ज़िंदगी में उधार दिए गए पैसों की ऐसी दुखदायी वापसी का तजुर्बा मैंने तो कभी नहीं किया था.
हमारे डेबिट कार्ड्स अब बेकार हो चुके थे.
अगले तीन दिन हमने कोई शॉपिंग नहीं की और न ही चाय-पानी पर एक धेला खर्च किया.
होटल के पास की एक चश्मे की दुकान पर मैंने रीडिंग ग्लासेज़ बनवाने का आर्डर दिया था. उसके 1500/ मुझे 9 नवम्बर को चश्मे वाले को देने थे. उस भले आदमी ने 500 के तीन पुराने नोट ले कर ही मुझे मेरा चश्मा थमा दिया.
उधर हमारी श्रीमती जी ग्रेटर नॉएडा में बैंकों के सामने तीन दिन लगातार तीन-तीन घंटे खड़े रह कर पुराने 500/- के और 1000/- नोटों के बदले 100-100 की कई गड्डियां जमा कर ली थीं लेकिन इधर रायपुर में मेरे पास खर्च करने के लिए मात्र 400 रूपये थे.
11 नवम्बर को हमको हमारा टी० ए० नगदी में मिलना था.
हम परीक्षकों ने आयोजकों से प्रार्थना की कि वो हमको यह राशि 100/- के नोटों में दे दें लेकिन उन दुष्टों ने हमको 500/- वाले नोट ही पकड़ा दिए.
अच्छा हुआ कि आयोजकों ने हमको एयरपोर्ट तक पहुँचने के लिए जीप उपलब्ध करा दी थी वरना अपने सौ के चार नोटों के सहारे तो मैं होटल से रायपुर एयरपोर्ट भी नहीं पहुँच सकता था.
दिल्ली एयरपोर्ट से ग्रेटर नॉएडा तक की टैक्सी का भुगतान मैंने अपनी श्रीमती जी से रूपये ले कर ही किया था.
बैंकों के आगे लाइन लगा कर धक्कामुक्की की कथा तो हम सबकी एक जैसी ही है लेकिन परदेस में 100-100 के मात्र चार नोटों के साथ 3 दिन गुज़ारने की याद आज भी मुझको कंपा देती है.
क़यामत की रात कैसी होती है, उसमें क्या-क्या होता है, इसके बारे में हज़ारों डरावनी कहानियां हमने सुन रखी हैं लेकिन मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि क़यामत की रात, 8 नवम्बर, 2016 की बिना आधार कार्ड की इस ऊंची सोच वाली रात से ज़्यादा डरावनी नहीं हो सकती.
फिर से जो नोटों की तह लगानी शुरु कर दी उसका क्या? :)
जवाब देंहटाएंनोटों की नई तह के बारे में बाद में बात करेंगे.
हटाएंफ़िलहाल जिसे हमारा वोट चाहिए वो पहले हमारे 500/- के 6 पुराने नोटों के पूरे 3000/- हमको दे दे.
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-11-2021) को चर्चा मंच "छठी मइया-कुटुंब का मंगल करिये" (चर्चा अंक-4244) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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छठी मइया पर्व कीहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'मैया-कुटुंब का मंगल करिए' (चर्चा अंक - 4244) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंवो भी क्या दिन थे... सचमुच घर के बाहर जो रह रहे हों उनके लिए वह दिन भयावह ही होंगे... मैं पीजी में था और ये अच्छा था कि एक तो खाने की टेंशन नहीं थी और किराए के पैसे ऑनलाइन दे सकते थे.. वरना जिन्हे रोज मर्रा की चीजें खरीदनी होती उनके हाल कैसे थे यह देखकर भय ही लगता था...
जवाब देंहटाएंमित्र, इस अभिनव प्रयोग ने आम आदमी की और भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़ दी थी.
हटाएंसही कहा आपने ।
जवाब देंहटाएंहम स्त्रियों के बक्से, अलमारियां तो तभी से खाली हो गए । और दोबारा गुलजार ही नहीं हो रहे 😀😀
जिज्ञासा, आज हम लोग उस भयावह अनुभव को हास-परिहास में लेते हैं पर उन दिनों तो हमारी खटिया खड़ी हो गयी थी. सही मायने में वह खड़ी खटिया आज भी बिछाने के क़ाबिल नहीं बची है.
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