गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

अकबर इलाहाबादी

अकबर इलाहाबादी –
अकबर इलाहाबादी मेरे सबसे प्रिय शायर हैं. अपनी व्यंग्य रचनाओं की प्रेरणा मुझे उनसे ही मिलती है. ये बात और है कि उनकी शायरी के सामने मेरी रचनाएँ किसी दुध-मुहें बच्चे की तोतली कोशिशें लगती हैं. अकबर इलाहाबादी के अशआर ऐसे होते थे कि जिस शख्स को लेकर वो तंज़ (व्यंग्य) कसते थे वो भी उन्हें पढ़कर या सुनकर वाह-वाह कर उठता था और उनका मुरीद बन जाता था.
मेट्रिक पास, अट्ठारह साल का नौजवान अकबर हुसेन रिज़वी (बाद में अकबर इलाहाबादी) अर्ज़ी-नवीस की नौकरी की तलाश में अपनी अर्ज़ी लेकर कलक्टर साहब के पास उनके किसी दोस्त का सिफ़ारिशी ख़त लेकर गया. कलक्टर साहब ने उसकी अर्ज़ी और अपने दोस्त का ख़त लेकर अपने कोट की जेब में रखकर उसे एक हफ़्ते बाद मिलने के लिए कहा. एक हफ़्ते बाद जब अकबर हुसेन ने पहुंचकर कलक्टर साहब को सलाम किया तो वो उसे देखकर बोले –
‘तुम्हारी अर्ज़ी मैंने कोट की जेब में तो रक्खी थी पर वो कहीं गुम हो गयी. ऐसा करो, तुम मुझे दूसरी अर्ज़ी लिखकर दे दो.’
अगले दिन अकबर हुसेन अख़बार के पन्ने की साइज़ की अर्ज़ी लिखकर कलक्टर साहब के पास पहुंचा. कलक्टर साहब ने हैरानी और नाराज़ी के स्वर में पूछा – ‘ये क्या है?’
अकबर हुसेन ने बड़े अदब से जवाब दिया – ‘हुज़ूर, ये अर्ज़ी-नवीस की नौकरी के लिए मेरी अर्ज़ी है. आपकी जेब में यह गुम न हो जाय इसलिए इसको इतने बड़े कागज़ पर लिखकर लाया हूँ.’
कलक्टर साहब अकबर हुसेन के जवाब से इतने खुश हुए कि उन्होंने उसे फ़ौरन अर्ज़ी-नवीस की नौकरी दे दी. बाद में इस नौजवान ने नौकरी करते हुए अपनी तालीम  जारी रक्खी और तरक्की के बाद तरक्की करते हुए वह सेशन जज के ओहदे तक पहुंचा.
इस बार मैं अकबर इलाहाबादी के राजनीतिक व्यंग्य से सम्बंधित अशआर का उल्लेख करूँगा साथ में उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी दूंगा.
1882 में लार्ड रिपन के शासन काल में पहली बार जनता द्वारा चुने हुए भारतीय सदस्यों को नगर-पालिकाओं और जिला-परिषदों के स्तर पर शासन सँभालने की ज़िम्मेदारी दी गयी लेकिन उनके ज़िम्मे में मुख्य काम यही था कि वो सड़कों, गलियों और नालियों की सफ़ाई की देखरेख करें. अकबर इलाहाबादी ने नगर-पालिकाओं और जिला-परिषदों के इन निर्वाचित सदस्यों के विषय में कहा –

‘मेम्बर अली मुराद हैं, या सुख निधान हैं,
लेकिन मुआयने को, यही नाबदान (नाली के ढक्कन) हैं.’
1885 में बड़ी धूम-धाम से इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई. समाज के प्रतिष्ठित बैरिस्टर, वकील, शिक्षक, उद्योगपति, जागीरदार, ज़मींदार, पत्रकार आदि इसमें देशभक्ति और त्याग के नाम पर शामिल हुए पर उनका मुख्य उद्देश्य था कि वो आला अफसरों की निगाह में आ जायं और समाज में उनका रुतबा बढ़ जाय –
‘कौम के गम में डिनर खाते हैं, हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत हैं, मगर, आराम के साथ.’
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा का विकास पश्चिम में ही हुआ था लेकिन अंग्रेजों ने भारत में सरकार की किसी भी नीति की आलोचना करने पर कठोर प्रतिबन्ध लगा रक्खा था. अकबर इलाहाबादी ने ब्रिटिश शासन में भारतीयों को मिली हुई आज़ादी के विषय में कहा है –
‘क्या गनीमत नहीं, ये आज़ादी,
सांस लेते हैं, बात करते हैं.’     
1919 में हुए जलियांवाला बाग़ हत्याकांड का समाचार छापना, उसके विरोध में भाषण देना या जन-सभा का आयोजन करना पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया. अकबर इलाहाबादी का इस सन्दर्भ में प्रसिद्द शेर है-
‘हम आह भी भरते हैं, तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो, चर्चा नहीं होता.’ 

अकबर इलाहाबादी के व्यंग्यपूर्ण अशआर पर आगे और भी लिखा जायगा. फिलहाल इतना ही.         

रविवार, 13 दिसंबर 2015

उपवास

उपवास –
मेरे परम मित्र, मेरे हॉस्टल के साथी, अविनाश माथुर इतने शर्मीले थे कि अगर वो लड़की होते तो यक़ीनन उनका नाम शर्मिला माथुर होता. हमारे मित्र संकोची तो इतने थे कि बैडमिंटन खेलते समय शटलकॉक को रैकेट से मारने तक में संकोच करते थे. लखनऊ में पढ़ते हुए उनकी पर्सनैलिटी में लखनवी तकल्लुफ थोक के भाव और जुड़ गया था. घर वालों को और ख़ास दोस्तों को छोड़कर वो कभी भी किसी से ‘एक्सक्यूज़ मी’ कहे बगैर अपनी बात तक शुरू नहीं करते थे. उनकी ‘पहले आप’ वाली लखनवी अदा उन्हें हर पार्टी में फिसड्डी बनाकर उन्हें सिर्फ सलाद और पापड़ खाकर पेट भरने का नाटक करने के लिए मजबूर कर देती थी. अगर वो और मैं एक साथ किसी पार्टी में जाते थे तो अपनी प्लेट की ही तरह उनकी प्लेट भी पकवानों से सजा कर लाना मेरी ज़िम्मेदारी होती थी.
वैसे अविनाश और मैं चैंपियन चटोरे थे. छात्र जीवन में लखनऊ का कोई भी मशहूर चाट का ठेला हमने  छोड़ा नहीं था. फिल्म देखने के बाद चाट खाना और मेस के भोजन का त्याग हमारा साप्ताहिक कार्यक्रम था. हमारा फेवरिट, लालबाग का शर्मा चाट हाउस वाला तो हमें देखते ही हमारे लिए आलू की टिक्कियाँ और गोलगप्पों की प्लेटें तैयार करवाने लगता था. खैर, फिर हम बड़े हो गए, अपने पैरों पर खड़े हो गए, लेकिन अविनाश का शर्मीलापन, हमारा पेटूपना और हमारा याराना पहले की ही तरह बरकरार रहा.
अविनाश के पापा सिविल सर्जन के पद से रिटायर होने के बाद कुछ वर्षों तक लखनऊ में ही रहे थे. माथुर अंकल, आंटी से मेरी गहरी दोस्ती हो गयी थी. आये-दिन कभी मैं उनके यहाँ कोई स्पेशल पकवान लेकर पहुँच जाता था तो कभी उनके बनाये स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद लेता था. अविनाश की छोटी बहन दीपा जो कि लखनऊ विश्विद्यालय में मेरी छात्रा रही थी, वो भी मुझे भांति-भांति के पकवान खिलाकर अपनी गुरु-दाक्षिणा की किश्तें चुकाया करती थी.
कुछ ही समय पहले दीपा की शादी कानपुर के एक प्रतिष्ठित परिवार में हो गयी. दीपा के पति मुकेश से तो दो-तीन मुलाकातों में ही मेरी दोस्ती भी हो गयी थी. एक बार मुझे और अविनाश को अलग-अलग कामों से एक साथ दिल्ली जाना था. माथुर आंटी ने हमको दीपा के लिए कुछ उपहार दिए जो कि हमको दिल्ली से लौटते हुए उसके पास कानपुर पहुँचाने थे. हम दोनों शाम को दिल्ली से कानपुर पहुंचकर सीधे दीपा की ससुराल चले गए. दीपा और उसकी ससुराल वालों ने हमारी खातिर का भव्य प्रबंध किया था. सुबह से हम लोगों ने कुछ खास खाया भी नहीं था, ऊपर से दीपा और उसकी सासू माँ का आग्रह करके खिलाने का प्यार भरा अंदाज़. मैं तो निसंकोच पकवानों पर टूट पड़ा पर तकल्लुफ़ के बेताज बादशाह जनाब अविनाश माथुर ने मीठे और चटपटे पकवानों से सजी एक दर्जन प्लेटों में से किसी को हाथ भी नहीं लगाया. दीपा की सासू माँ ने इसका कारण पूछा तो हमारे मित्र ने उन्हें बताया कि उनका हर सोमवार शिवजी का उपवास रहता है. यह समाचार दीपा के लिए और मेरे लिए भी एकदम नया था लेकिन अब और क्या किया जा सकता था? शिव-भक्त अविनाशजी की भक्ति के सामने हम सब नत-मस्तक हो गए पर मेरे समझ में यह नहीं आ रहा था कि सुबह 9 बजे ब्रेड पकोड़ा खाने के बाद हमारे मित्र दिन में कौन सा उपवास कर रहे थे.
दीपा ने अपने भैया के हिस्से के पकवान भी मुझे ही खिलाने का निश्चय कर लिया और मैंने अपने दोस्त की भी ज़िम्मेदारी ओढ़कर पकवानों की प्लेटों के साथ पूरा-पूरा इंसाफ़ किया. मुकेश कहीं बाहर गए थे, उनसे बिना मिले ही हम रिक्शा करके लखनऊ की ट्रेन पकड़ने के लिए चल दिए.
रास्ते में मैंने अविनाश से कहा – ‘क्या यार, तुझे आज ही उपवास रखना था. क्या-क्या मिठाइयाँ थीं, चाट तो बस कमाल की थी और फिर खिलाया भी तो कितने प्यार और इसरार से. रसखान ने अगर आज ये पकवान खाए होते तो वो कहते –
‘आठहु सिद्धि, नवौ निधि के सुख, इन पकवान के ऊपर वारों.’
इस पर अविनाश बाबू ने दाद देते हुए कहा – ‘शटअप.’
मैंने हैरान होकर पूछा – ‘दाद देने का ये क्या तरीका हुआ बन्धु?’
बन्धु ने अपना पेट पकड़ कर और अपने दांत पीसते हुए कहा – ‘यहाँ भूख के मारे आंते कुलबुला रही हैं और तू पकवानों की बात करके मुझे जला रहा है?’
मैंने कहा – ‘अब उपवास रक्खा है तो सब्र भी कर बेटा, वरना पाप लगेगा’
मित्र ने अपना सर धुनते हुए आर्तनाद किया – ‘किस गधे ने उपवास रक्खा है?’
मैंने पूछा – ‘अगर इस गधे ने उपवास नहीं रक्खा है तो फिर इसने वहां कुछ खाया क्यूँ नहीं?’
दुखियारे मित्र ने एक आह भरकर मुझ पर ताना मारा – ‘तो क्या छोटी बहन की ससुराल में तेरी तरह बेतकुल्लिफ़ी से पकवानों पर टूट पड़ता?’
मैंने उत्तर दिया – ‘सयानों ने कहा है – जिसने की शरम, उसके फूटे करम.’
मित्र ने व्याकुल होकर मेरा हाथ पकड़ कर कहा – ‘यार कुछ खिलवा दे नहीं तो लखनऊ पहुँचने तक तो मैं भूखा मर जाऊंगा.’
मैंने उन्हें दिलासा देते हुए कहा – ‘कानपुर रेलवे स्टेशन के भोजनालय में तुम्हारे इंजिन में ईधन डलवा देते हैं.’
रेलवे स्टेशन पर भोजनालय में लम्बी कतार लगी हुई थी. निराश होकर हम प्लेटफार्म पर खड़े एक पूड़ी-सब्ज़ी के ठेले पर पहुंचे. महा भूखे भाई अविनाश बाबू ने दनादन पूड़ी-सब्ज़ी पर हाथ मारना शुरू ही किया था कि पीछे से एक मीठी सी आवाज़ आयी – ‘भैया !’
हमने पीछे मुड़कर देखा तो दीपा और मुकेश खड़े थे. मुकेश हमारे जाने के कुछ समय बाद ही अपने घर पहुँच गए थे और हम दोनों से भेंट करने के लिए दीपा को अपने साथ लेकर स्टेशन के लिए चल पड़े थे. दीपा के चेहरे पर हैरानी थी और अपने भैया की हरक़त को देख कर शर्मिंदगी भी, पर ये दिलचस्प  नज़ारा देखकर मुकेश शरारत भरी मुस्कान बिखेर रहे थे. अपने साले साहब के मुंह में पूड़ी और हाथ में सब्ज़ी-पूड़ी का दौना देखकर उन्होंने कहा –
‘भाई साहब, दीपा बता रही थी कि आज आपका उपवास था. आपको अगर तेल की पूड़ियों से ही अपना उपवास तोड़ना था तो हम उन्हें घर पर ही बनवा देते.’
बेचारे भाई साहब मन ही मन धरती फटने और उसमें समाने की प्रार्थना कर रहे थे पर प्रकटतः उन्होंने कहा –
‘ये गोपेश मुझे ज़बरदस्ती खिलाने ले आया है. कह रहा है कि सफ़र के दौरान उपवास न करने की छूट होती है.’
मैंने अपने शिव-भक्त मित्र का उपवास तुड़वाने का पाप तुरंत स्वीकार भी कर लिया पर तब तक रायता फैल चुका था. मुकेश थे कि बस, पेट पकड़ कर हँसे ही चले जा रहे थे और दीपा बेचारी थी कि बस, शर्म से ज़मीन में गड़ी ही चली जा रही थी. खैर, इस दुखद अध्याय का सुखद अंत हुआ. हमको ट्रेन में रवाना करते हुए मुकेश ने अपनी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए एक बड़ा सा पैकेट अविनाश के हाथ में देते हुए कहा –

‘भाई साहब, ट्रेन में पूड़ी-सब्ज़ी वाले का ठेला नहीं मिलेगा. इस पैकेट में थोड़ी कचौड़ियाँ और लड्डू हैं, अगर उपवास तोड़ने की आपको फिर ज़रुरत पड़े तो इन्हीं से तोड़ियेगा.’   

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

प्यारी छोटी बहना

प्यारी छोटी बहना -   
हमारे अल्मोड़ा परिसर रूपी रंगमंच पर एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी कलाकार का पदार्पण हुआ. बुद्धिमत्ता, प्रत्युत्तपन्नमति और वाक्पटुता में उनका कोई सानी नहीं था. उनकी जिह्वा में एक ऐसी आटोमेटिक मशीन फ़िट थी जो पलक झपकते ही ‘श’ को ‘स’ और ‘स’ को ‘श’ में परिवर्तित कर देती थी. मसलन मैं ‘जैसवाल सर’ के स्थान पर ‘जैशवाल शर’ हो जाता था और ‘किशमिश’ हो जाती थी ‘किसमिस’.
उनके विद्यार्थी उनसे पढ़ते हुए हमेशा त्राहि-त्राहि ही करते रहते थे और जब भी उनका क्लास ख़त्म होता था तो तालियाँ बजाकर अपने हर्षोल्लास का प्रदर्शन करते थे. हमारी मोहतरमा फिर - ‘हाथ-पैर तुड़वा दूँगी’, ‘गोली से उड़ा दूँगी’ आदि आशीर्वचनों से उन्हें कृतार्थ करती थीं.  
परीक्षा के दौरान उनके अनुरोध पर अक्सर मेरी इनविजिलेशन ड्यूटी उनके साथ लग जाया करती थी. परीक्षा प्रारम्भ होने के पंद्रह-बीस मिनट बाद, कॉपी, पेपर्स वितरित होने तथा कापियों पर हस्ताक्षर हो जाने के बाद उनका परीक्षा-भवन में ‘शौरी शर, शौरी शर’ कहते हुए आगमन होता था फिर 5 मिनट तक सुस्ताने के बाद वो बड़े प्यार से चाय की फरमाइश कर देती थीं. मेरा मूड अगर अच्छा हुआ तो वो चाय के साथ बिस्किट्स मंगवाने का भी अनुरोध कर डालती थीं पर मैं सैद्धांतिक रूप से उन्हें कोरी चाय पिलाने में ही विश्वास करता था. इनविजिलेशन ड्यूटी के दौरान मैं ज्यादा वाद-संवाद को अप्रूव नहीं करता था पर अपनी सहयोगी को अपने खानदान के किस्से सुनाने से रोक भी नहीं पाता था.
एक प्रतिष्ठित (उनके शब्दों में धाकड़) एवं विशाल संयुक्त परिवार की इस लाड़ो को अपने 18 सगे और चचेरे भाइयों का बेपनाह प्यार मिलता था. मेरे लाख रोकने-टोकने के बावजूद अपने भाइयों के दिलेरी और बहादुरी के किस्से सुना-सुना कर वो परीक्षार्थियों का अक्सर ध्यान बटा देती थीं. एक बार भाई-गाथा के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि उनके सभी 18 भाइयों पर दफ़ा 307 या दफ़ा 302 के मुकद्दमे चल रहे लगी हैं और वो गाहे-बगाहे सरकारी हवेली की शोभा भी बढ़ाते रहते हैं. मैंने उनसे पूछा –
‘माते ! ये दफ़ा 307 और 302 का किस्सा तू मुझे डराकर चाय के साथ बिस्किट्स भी मंगवाने के लिए सुना रही है या वाक़ई तेरे भाई इतने खतरनाक हैं?’
माते ने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा – ‘नहीं शर, मैं आपको डराऊँगी क्यों? मैं तो आपकी बहुत इज्जत करती हूँ, आपको अपना बड़ा भाई मानती हूँ.’
मैंने हाथ जोड़कर उनसे पूछा – ‘कौन सा वाला भाई? दफ़ा 307 वाला या दफ़ा 302 वाला?’
बात तो आयी-गयी हो गयी पर अपनी इस गले पड़ी छोटी बहना की किसी फरमाइश को ठुकराने की मेरी फिर कभी हिम्मत नहीं हुई.
हमारी प्यारी बहना अक्सर बिना बुलाये हमारे विभाग में टी-ब्रेक पर पहुंचकर हमारी मेहमान बन जाती थीं. चाय की चुस्कियों के साथ किस्से-कहानियों का दौर भी चलता रहता था, जिसमें अक्सर मेरा ही टेप ऑन रहा करता था. मेरा सौभाग्य था कि हमारी ज़बरदस्ती की मेहमान, हमारी बहना, मेरी किस्सागोई की बड़ी भारी प्रशंसक थीं. कभी अशोक का, तो कभी अकबर का किस्सा, तो कभी गांधीजी का, अक्सर उनकी फरमाइश पर मेरा किस्सागोई कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता था.
एक बार गांधीजी की डांडी-यात्रा, उस पर गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के गीत ‘तोमि एकला चलो रे’ का विस्तृत ज़िक्र हुआ. भाव-विभोर होकर बहना ने मुझसे पूछा –
‘शर, आप तो तब बहुत छोटे होंगे. फिर भी आपको शब याद है?’
2005 में, यानी तब से 75 साल पहले डांडी-यात्रा के समय मैं बहुत छोटा था, यह सुनकर मेरे आग लग गयी. मैंने आग उगलते हुए कहा –
‘मूर्ख ! क्यों तू हमेशा अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर पड़ी रहती है? 75 साल पहले मैं अगर बच्चा था तो अब क़रीब 80 साल का तो हो ही गया. कुमाऊँ यूनिवर्सिटी क्या मुझे तेरे दफ़ा 307 और दफ़ा 302 वाले भाइयों के डर से अभी तक नौकरी पर रक्खे है?’
बहना ने हाथ जोड़कर ‘शौरी शर, शौरी शर’ कहा फिर मेरी किस्सागोई की तारीफ़ करते हुए बोलीं –
‘आप जैशे किश्शा शुना रहे थे वैसा तो कोई तभी शुना शकता है जब कि वो वहां खुद मौजूद हो.’
मैंने अपना गुस्सा दबाते हुए उनसे सवाल किया –
पिछले हफ़्ते मैंने अकबर का किस्सा सुनाया था, तो क्या मैं अकबर के ज़माने का हो गया?’
बहना ने तुरंत जवाब दिया – ‘शर, मैं इतनी बेवकूफ थोड़ी हूँ. अकबर तो बहुत पहले हुआ था. चलिए गुश्शा थूकिये और चाय पिलाकर मुझे माफ़ कर दीजिये.’
मैंने बहना की गुस्ताखी माफ़ कर दी पर इसके बदले में पहली बार उन्हें सभा में मौजूद सभी लोगों को अपनी जेब से उम्दा किस्म का जलपान कराना पड़ा.

इसके बाद बहना का हमारे विभाग में टी-ब्रेक के दौरान आना काफ़ी कम हो गया और फिर मेरे किस्से के बाद मुझसे कोई सवाल पूछने या उस पर अपनी कोई टिप्पणी देने से पहले वो काल, स्थान, सन्दर्भ आदि का पूरा-पूरा ध्यान रखने लगी थीं.       

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

शाश्वत प्रश्न

कल मेरी छोटी बेटी रागिनी का जन्मदिन था. रागिनी बहुत खुश है, सफल है और खुशहाल है. मेरी कामना है कि वह यूँ ही सदा खुश रहे. बहुत दिन पहले मैं, उसके साथ, जून की तपती दोपहर में, दिल्ली की एक व्यस्त सड़क पर, अपने गंतव्य स्थान तक जाने के लिए किसी सिटी बस की तलाश में था. इसी बस खोजी अभियान के दौरान उसने मुझसे जो प्रश्न पूछा था, उसका जवाब तो मैं उसे ठीक तरह से नहीं दे पाया पर उसका सवाल मैंने ऊपर वाले परम पिता को पास-ऑन कर दिया था. मेरे उस सवाल का जवाब मुझे आज तक नहीं मिला है -       
शाश्वत प्रश्न
पिघले कोलतार की चिपचिप से उकताई,
गर्म हवा के क्रूर थपेड़ों से मुरझाई,
मृग तृष्णा सी लुप्त सिटी बस की तलाश में,
राजमार्ग पर चलते-चलते।
मेरी नन्ही सी, अबोध, चंचल बाला ने,
धूल उड़ाती, धुआं उगलती,
कारों के शाही गद्दों पर,
पसरे कुछ बच्चों को देखा ।
बिना सींग के, बिना परों के,
बच्चे उसके ही जैसे थे ।
स्थिति का यह अंतर उसके समझ न आया ,
कुछ पल थम कर, सांसे भर कर,
उसने अपना प्रश्न उठाया-
पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं ?
कुछ पल उत्तर सूझ न पाया,
पर विवेक ने मार्ग दिखाया ।
उठा लिया उसको गोदी में,
हंसते-हंसते उससे बोला -
होते होंगें,पर तू क्यों चिंता करती है ?
मेरी गुडि़या रानी तू तो,
शिक्षित घोड़े पर सवार है ।
यूँ बहलाने से लगता था मान गई वह,
पापा कितने पानी में हैं, जान गई वह । 
काँधे से लगते ही मेरे,
बिटिया को तो नींद आ गई,
किंतु पसीने से लथपथ मैं,
राजमार्ग पर चलते-चलते।
अपने अंतर्मन में पसरे,
परमपिता से पूछ रहा था-
पैदल चलने वाले हम सब,

पापा ! क्या पापी होते हैं?’

सोमवार, 30 नवंबर 2015

गुरुवे नमः

गुरुवे नमः
जनवरी, 1975 से मैंने लखनऊ विश्विद्यालय के मध्य कालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास विभाग में गुरुदेव की भूमिका निभाना प्रारम्भ किया था. 5 वर्ष वहां पर अध्यापन करने की बहुत खट्टी-मीठी यादें मुझे कभी गुदगुदाती हैं तो कभी रुलाती हैं. हमारा विभाग कला संकाय के मुख्य भवन के कोने में स्थित था जो कि अपनी शानो-शौकत के लिए सारे जहाँ से अच्छा था. हमारे विभाग के व्याख्यान कक्ष ऐसे थे कि कोई कबाड़ खाना भी उनके सामने भव्य लगे. गर्मी के मौसम में बाबा आदम के ज़माने के उनके पंखे अगर ढंग से चल जाते थे तो विद्यार्थीगण व अध्यापक गण बाकायदा जश्न मनाते थे. एक बड़ा सा कमरा हमारा स्टाफ़-रूम था जिसे कि हम वेस्टर्न हिस्ट्री डिपार्टमेंट के अध्यापकों के साथ शेयर करते थे. खैर इतनी असुविधा के दिन 5 साल में ही समाप्त हो गए क्योंकि फिर लखनऊ विश्वविद्यालय को मेरी सेवाओं की आवश्यकता ही नहीं रह गयी.
आसमान से गिरकर मैं मार्च, 1980 में राजकीय स्नातकोत्तर विद्यालय, बागेश्वर के खजूर में अटक गया. उन दिनों हमारा विद्यालय एक पुराने डाक बंगले में था जिसमें कि टीन शेड वाले कुल जमा 8-10 कमरे हुआ करते थे. इनके बीच में वॉली बॉल या कबड्डी खेलने भर का एक विशाल मैदान भी था. स्टाफ़-रूम के नाम पर एक खोखा हमको उपलब्द्ध कराया गया था जहाँ ज़रा भी ज़ोर से अगर हम बात करते थे तो उसकी गूँज क्लास-रूम्स तक पहुँचती थी और फिर मिलते थे प्रिंसिपल साहब के धमकियों भरे लम्बे उपदेश. हम अध्यापकों के लिए आवासीय सुविधा शून्य थी पर आये दिन कॉलेज की नयी बिल्डिंग और टीचर्स’ क्वार्टर्स बनने की बात होती रहती थी. बागेश्वर प्रवास के आठ महीने मैंने एक पंजाबी लाला के मकान के एक हिस्से में शान से गुज़ार दिए.
नवम्बर, 1980 से जून, 2011 तक, अर्थात अवकाश प्राप्ति तक मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग में अपनी सेवाएँ दीं. मेरे देखते-देखते परिसर की छोटी सी इमारत बढ़ती चली गयी लेकिन हम इतिहास विभाग वालों के नसीब में दो-तीन पुराने व्याख्यान कक्ष और जेल की कोठरी जैसा स्टाफ़ रूम ही बदा था.
दो टर्म्स तक हमारे कुलपति रहे स्वर्गीय एम. डी. उपाध्याय को कक्षाओं का मुआयना कर अध्यापकों की शिक्षण-कला देखने का बड़ा शौक़ था. एक बार वो मेरे क्लास में भी मुआयना करने आये तो मैं लेक्चर देना छोड़कर उन्हें टूटी कुर्सी-मेज और खस्ता हाल ब्लैक बोर्ड दिखाने लगा. मुझसे सुधार करने के झूठ-मूठ के वादे करके वो बेचारे अपने दल-बल के साथ भाग खड़े हुए. आगे से इतिहास विभाग में मुआयना करने से पहले वो पूछ लेते थे –
‘उस क्लास-रूम में जैसवाल तो नहीं है?’
पच्चीस साल तक स्टाफ़-रूम शेयर करने के बाद मुझे विभाग में बरामदे के एक हिस्से से बनाया गया अपना खुद का कक्ष मिल गया. सात गुणा आठ फुट के इस विशाल कक्ष में बैठकर मैं फूला नहीं समाता था. हाँ यह बात और है कि मैं नहीं चाहता था कि कोई बाहरी या कोई अपना आकर मेरे विभागीय कक्ष में मुझसे मिले.
कुमाऊँ विश्वविद्यालय में, खासकर उसके अल्मोड़ा परिसर में आवासीय सुविधा की मांग करने वालों में मैं सबसे मुखर था पर पच्चीस साल के अनवरत प्रयास के बाद भी मैं अपने मिशन में नाकाम का नाकाम ही रहा. मेरे वो साथी जिन्हें कि परिसर में आवासीय सुविधा मिल चुकी थी, यह क़तई नहीं चाहते थे कि और टीचर्स’ क्वार्टर्स बनें. ऐसे हमदर्द साथी विश्वविद्यालयों के अलावा और कहाँ मिल सकते हैं?
अपनी नौकरी के पहले आठ साल मैंने अल्मोड़ा परिसर की नीचे स्थित खत्यारी मोहल्ले के सीलन और पिस्सू भरे मकानों में गुज़ारे थे. आवासीय दृष्टि से मैं काला पानी को को इससे बेहतर जगह मानता हूँ. मेरे साथ मेरे दर्जनों साथी अध्यापक भी इन खोली-नुमा मकानों में रहा करते थे और रास्ते में आते-जाते शराबियों के शोर और उनके झगड़ों का आनंद उठाने के लिए मजबूर हुआ करते थे.
सूर, मीरा या तुलसी जैसा कोई भक्त भी भगवान की खोज में इतना क्या रहता होगा जितना कि मैं एक अच्छे मकान की खोज में रहता था. मैंने और मेरे मित्र प्रकाश उपाध्याय ने कर्बला से लेकर कसार देवी तक सैकड़ों मकानों की ख़ाक छान ली पर कोई सफलता हाथ नहीं लगी. खत्यारी में मेरे मकान मालिक ठाकुर साहब अपने दो कमरों के मकानों का बड़ा नक्शा लिया करते थे. एक बार उन्होंने मुझसे कहा –
‘साहब बहादुर, मेरे मकान में तो आपको हवा-पानी, धूप सब मिलती है, ऊपर से पूरा मकान पक्का. किराये में एक सौ का पत्ता बढ़ाना तो बनता है.’
बार-बार नल के हड़ताल पर रहने से महीने में औसतन 10 दिन नौले (प्राकृतिक जल-स्रोत) से पानी भर-भर कर पहले से ही मेरी कमर टूट चुकी थी. मैंने सुलगकर जवाब दिया –
‘भला हो ठाकुर तुम्हारा. पेड़ पर टंगे-टंगे हमारा पूरा खानदान थक चुका था, तुम्हारी बदौलत मकान में रहने को मिल गया, वो भी पक्के वाले में. पर हम तुम्हारा किराया नहीं बढ़ाएंगे, अलबत्ता तुम्हारे घर से ही विदा हो जायेंगे.’
अल्मोड़ा कैंट से लगे दुगालखोला में बिताये गए हमारे 23 साल अपेक्षाकृत काफ़ी आराम से गुज़रे. अवकाश प्राप्ति से 5 साल पहले पाताल लोक जैसे स्थान पर मुझे विश्वविद्यालय की ओर से मकान आवंटित किया गया जिसे मैंने हाथ जोड़कर अस्वीकार कर दिया.
मेरी श्रीमतीजी और दोनों बेटियां इस गरीब गुरूजी की गर्दिश की परमानेंट साथी रही हैं. मेरी बेटियां जब बच्चियां ही थीं, तभी मैंने तय कर लिया था कि जो हादसा उनकी माँ के साथ हुआ है, वो उनके साथ नहीं होने दूंगा, अर्थात, उनकी शादी किसी अध्यापक के साथ नहीं होने दूंगा. भगवान ने मेरी सुन ली. मेरे दोनों दामाद अध्यापक नहीं हैं. मेरे संस्मरण को पढ़कर मेरे कुछ साथी नाराज़ हो सकते हैं पर मेरे साथियों की बेटियों में से भी शायद ही किसी ने अध्यापक का वरण किया होगा.  
गाँव-गाँव में डिग्री कॉलेज और कस्बे-कस्बे में विश्वविद्यालय खोलने की कीमत, रोटी-रोज़ी की तलाश में किसी भी शर्त पर काम करने वाले हम जैसों मजबूरों को चुकानी पड़ती है. गुरुजन की देह भी हाड़-मांस की बनी होती है. उन्हें भी इज्ज़त से रहने का हक़ है पर ये हक़ अगर उन्हें मिलता भी है तो अवकाश प्राप्ति से कुछ ही समय पहले या उसके भी बाद.

उच्च शिक्षा का प्रसार-प्रचार करने वालों से मेरा कर बद्ध निवेदन है कि वो कोई भी नया विश्वविद्यालय अथवा नया विद्यालय स्थापित करने से पहले यह ज़रुर देख लें कि वहां बुनियादी सुविधाएँ हैं या नहीं और अगर उन्हें गुरुजन की भद्रा उतारने का, उनको तरसाने का, उनको तड़पाने का, रुलाने का, खिजाने का, इतना ही शौक़ है तो वो कमसे कम ‘गुरुवे नमः’ का जुमला शास्त्रों, पुराणों तथा पाठ्य-पुस्तकों से हमेशा-हमेशा के लिए निकलवा दें.          

सोमवार, 16 नवंबर 2015

ईमां हमरा का दोस है?

ई मां हमरा का दोस है –
आज से 50 साल पहले पिताजी की पोस्टिंग बाराबंकी में हुई थी. मैंने हाई स्कूल और इन्टर वहीँ से किया है. एक मजिस्ट्रेट के रूप में अपने उसूलों के लिए पिताजी की बड़ी ख्याति थी लेकिन चपरासियों से घर का काम कराने की ब्रिटिश कालीन अफ़सरी परंपरा से उन्हें कोई परहेज़ नहीं था. पिताजी के कोर्ट से जुड़े हुए दोनों चपरासी कचहरी के दायित्वों का निर्वाहन करने के अतिरिक्त हमारे घर में आकर छोटे-मोटे काम भी किया करते थे. पिताजी का एक चपरासी, क़ुतुब अली बहुत स्मार्ट था, वो बातें करने में बहुत उस्ताद था और अपनी बातों में दूसरे चपरासी को ऐसा फांसता था कि वो बेचारा दोनों चपरासियों के ज़िम्मे का काम अकेला करता था और हमारे जनाब क़ुतुब अली स्टूल पर बैठे-बैठे उस पर हुक्म चलाते रहते थे. अपनी लच्छेदार बातों के बल पर वो हम सबका चहेता बन गया था. अपने जोड़ीदार के रूप में क़ुतुब अली को हमेशा किसी ऐसे बौड़म की तलाश रहती थी जो कि उसके इशारों पर नाच सके. क़ुतुब अली के आतंक से उसके जोड़ीदार भयभीत रहते थे इसलिए उनमें से कोई भी उसके साथ ज़्यादा देर टिक नहीं पाता था.
एक बार एक लड़का नुमा बिना दाढ़ी-मूछ वाला शख्स क़ुतुब अली का जोड़ीदार बनकर आया. मेरी माँ को कद-काठी से वो बहुत कमज़ोर लगा. उन्होंने नाज़िर के इस चपरासी-चयन पर अपनी नाराज़गी जताते हुए क़ुतुब अली से कहा –
‘ये सींकिया पहलवान, बित्ते भर का लड़का घर का क्या काम कर पायेगा? नाज़िर से कह कर कोई ठीक-ठाक सा आदमी लाओ.’
सींकिया पहलवान और बित्ते भर के लड़के ने माँ को संबोधित करते हुए अपनी तुतलाती हुई सी ज़ुबान में कहा –
‘माता राम हम बित्ता भर का लड़का नाहीं हैं, अट्ठाईस साल के पूरे पट्ठा हैं. तुम्हरे मुल्ला क़ुतुब अली से चार गुना काम कर सकत हैं. तुम हमसे गोमाता की सेवा कराय सकत हो. हम उन्निस बिसवां के बाजपेयी बाम्हन हैं, हमसे तुम पूजा-पाठ भी कराय सकत हो.’
क़ुतुब अली ने चुटकी लेते हुए हामी भरी –
‘माताजी! ये पंडित सही कह रहा है, ये घर का सब काम-काज जानता है. इसकी इत्तरी माता घर का सारा काम इसी से तो कराती है.’
माँ ने हैरानी से पूछा –
‘ये इत्तरी माता कौन है? या तो स्त्री बोलो या फिर माता बोलो.’
इसका जवाब क़ुतुब अली के बजाय पंडितजी ने दिया –
‘ई मुल्लाजी की  बात पर ध्यान मत देओ माता राम. हम अपनी मेहरारू की बहुत इज्जत करते हैं याही खातिर लोग उनका हमरी इत्तरी माता कहत हैं.’
क़ुतुब अली ने हँसते हुए कहा –
‘हाँ, रोज उनके चरन दबावत हो, खाना पकावत हो, कपरा-लत्ता धोवत हो और गाहे-बगाहे लात भी खावत हो.’
माँ को इत्तरी माता के इस प्रसंग में दाल में कुछ काला लगा पर उस वक़्त बात आई-गयी हो गयी.
पंडित हमारी गाय की बहुत सेवा करता था पर उसका दूध दुहते समय अच्छा-ख़ासा कच्चा दूध, सीधे -सीधे गाय के थनों से ही गटक जाता था. घर में चूल्हे-चौके के काम में वो ज़रुरत से ज्यादा दिलचस्पी लेता था. शाम को हमारी माँ यानी अपनी माता राम के हाथ से चकला-बेलन छीन के वो कभी पराठे बनाने बैठ जाता तो कभी कोई भरवां सब्ज़ी बनाने लगता. माता राम से पुरस्कार में अपनी ही बनाई डिश को प्रसाद के रूप में पाकर पंडित धन्य-धन्य हो जाता था. पंडित ने हमारा शाम का खाना बनाने की ज़िम्मेदारी ज़बरदस्ती खुद ही ओढ़ ली थी और उसकी एवज़ में वो हमारे यहाँ भरपेट भोजन किया करता था.
क़ुतुब अली ने हमको बताया कि पंडित की इत्तरी माता उसे खाना नहीं देती है और उसके पिताजी यानी बड़े पंडितजी उसकी तनख्वाह, उसे बक्शीश में मिले पैसे वगैरा भी उससे छीन लेते हैं. इसी लिए भूखा पंडित खाने के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है और काम के बदले हमेशा पेट भरने की जुगाड़ में रहता है. मज़े की बात यह थी कि हमारी माँ को आसमान से टपकी भोजन के बदले खाना बनाने की यह व्यवस्था रास आ रही थी.
एक बार पंडित बड़ा खुश होकर हमारे यहाँ लड्डू लाया. माँ ने कारण पूछा तो पंडित चहचहा कर बोला-
‘माता राम हमारे यहाँ बालरूप भगवान पधारे हैं.’
क़ुतुब अली ने पंडित को टोकते हुए कहा –
‘माता राम ऐसे नहीं समझेंगी. ये बताओ कि तुम्हारे घर भैया ने जनम लिया है.’
ये पूर्ण अहिंसक बात सुनकर आग-बबूला होकर पंडित लम्बे-चौड़े क़ुतुब अली पर टूट पड़ा. हम लोगों ने जैसे-तैसे दोनों को अलग किया. पंडित ने क़ुतुब अली की बांह में जोर से काट खाया था पर हमारे समझ में यह नहीं आ रहा था कि अच्छी –खासी चोट खाने के बाद भी क़ुतुब अली बिना रुके हंसे क्यों चला जा रहा था.
उस दिन के बाद से पंडित बिलकुल बुझा-बुझा सा रहने लगा. क़ुतुब अली ने भी इत्तरी माता को लेकर या बाल रूप भगवान के जनम को लेकर उससे फिर कोई मज़ाक़ नहीं किया. एक दिन पंडित आया तो उसका सूजा मुंह देखकर माँ हैरान रह गयीं. बहुत टटोलने पर भी पंडित ने अपनी बदहाली का राज़ नहीं खोला पर इस घटना के अगले ही दिन वो हमारी गाय की कोठरी में खुद को फांसी लगाने की नाकाम कोशिश करते हुए पकड़ा गया. पिताजी के दो तमाचे खाकर ही पंडित ने अपनी पूरी दास्तान उन्हें सुना डाली.
पंडित नपुंसक था. उसके विधुर बाप ने उसकी शादी सिर्फ इसलिए कराई थी कि वो उसकी पत्नी को अपनी अंकशायनी बनाकर रख सके. बेचारा पंडित जब भी इस व्यवस्था का विरोध करता था तो उसकी पत्नी और उसका बाप दोनों उसकी पिटाई करते थे. उसके घर में पधारे बाल रूप भगवान दर-असल उसके बेटे नहीं बल्कि भाई थे और इसी लिए क़ुतुब अली का ताना सुनकर वह उसके खून का प्यासा हो गया था.
पंडित ने पिताजी के पैर पकड़कर रोते हुए कहा –
साहेब, अगर हम नामरद हैं तो ईमां हमरा का कसूर है? काहे हम रोज आपन बाप और आपन मेहरारू के जूता खांय? काहे उनकी गाली खांय? काहे लोग रोज हमरा मखौल उड़ायं? आप हमका फांसी लगाए से काहे रोके? हम अबके आपके कोठे पे नाहीं, आपन घर में फांसी लगाय लेब.’     
पिताजी ने पुचकार कर बड़ी मुश्किल से पंडित को शांत किया और फिर अगले दिन उन्होंने बड़े पंडितजी यानी पंडित के पिताजी को घर बुलाकर उनकी वो आवभगत की कि वो अपने बेटे को मारना, उसके पैसे छीनना या उसे परेशान करना हमेशा के लिए भूल गए. पंडित की इत्तरी माता बाल-गोपाल सहित मायके चली गयीं जहाँ से वो कुछ दिनों बाद ही अपने बच्चे के साथ किसी नए मित्र के साथ भाग गयीं.
पंडित ने बड़े पंडितजी के सुधरने की खुशी में और अपनी इत्तरी माता व बाल रूप भगवान के अंतर्ध्यान होने पर हमको जमकर लड्डू खिलाये. हमारे बाराबंकी प्रवास के अंत तक पंडित पिताजी की सेवा में रहा. पिताजी के हस्तक्षेप से पंडित के दिन तो फिर गए लेकिन ऐसे हजारों-लाखों और पंडित अभी भी रोज़ाना अपमान, शोषण और प्रतारणा का  कड़वा घूँट पीने के लिए मजबूर हैं.
हमको पर-पीड़ा में इतना आनंद क्यूँ आता है? किसी के घाव कुरेदने में हमको इतनी संतुष्टि क्यूँ मिलती है? किसी के अभाव का या उसकी विकलांगता का, उसके अधूरेपन का, कैसे हम मज़ाक़ उड़ा लेते हैं? इन हालात के मारों के दिल से ये आवाज़ ज़रूर उठती होगी –

‘ईमां हमरा का दोस है?’                 

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

पिताजी का फिल्म-प्रेम

पिताजी का फिल्म-प्रेम –
मेरे पिताजी को फिल्मों से उतना ही प्रेम था जितना कि कबीर दास को कागज़, कलम और दवात से. मेरी माँ को फिल्म देखने का और फ़िल्मी चर्चा करने का बहुत शौक़ था और मेरे लिए तो फिल्में परमानन्द प्राप्ति का सबसे अचूक नुस्खा थीं.
अपने छात्र-जीवन में पिताजी ने इक्का-दुक्का क्लासिक अंग्रेजी फिल्में ज़रूर देखी थीं पर एक बार सिनेमा हॉल में उनका पर्स किसी ने उड़ा लिया, तबसे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि फिल्में या तो अपनी जेब कटवाने वाले बेवकूफ देखते हैं या फिर उनका शिकार करने वाले जेबकतरे.
हमारे बचपन में हमारे लिए फिल्में देखना किसी त्यौहार से कम नहीं होता था. माँ और हम बच्चों के लाख खुशामद करने पर भी पिताजी हमको फिल्म दिखाने के लिए पसीजते नहीं थे और उस पर से मेरे पढ़ाकू बड़े भाई साहब भी पिताजी के स्वर में अपना स्वर मिलाकर हमारी मांगों के ठुकराए जाने का माहौल तैयार कर देते थे. खुशकिस्मती से हमें साल में दो-तीन फिल्में देखने को मिल जाती थीं, कभी रिज़ल्ट अच्छा आने पर, कभी पिताजी के लाड़ले, हमारे छोटे मामा के अनुरोध पर तो कभी किसी फिल्म की ज़्यादा ही तारीफ़ सुनने पर. बचपन में लखनऊ में बिताये गए तीन सालों में हमको वहां के 17 सिनेमाओं में घर से एक किलोमीटर दूर पर स्थित कैपिटल सिनेमा में इतवार की सुबह महीने में एकाद बार जाने का मौका मिलता था पर फिल्में देखने के लिए नहीं बल्कि वहां पर लगने वाली बोरिंग किन्तु शिक्षाप्रद डाक्यूमेंट्री फिल्म्स देखने के लिए. डाक्यूमेंट्री फिल्म्स के साथ अगर किसी फिल्म का ट्रेलर दिखाई दे जाता था तो हम अपना जीवन धन्य मानते थे.
फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ की हम सबने बहुत तारीफ़ सुनी थी पर हमारे न्यायधीश पिताजी का फैसला था – ‘इस फिल्म के नाम से ही पता चलता है कि यह ठगों पर बनाई गयी है.
‘मदर इंडिया ‘ हमको इसलिए नहीं दिखाई गयी क्योंकि इसकी कहानी कैथरीन मेयो की भारत विरोधी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ पर आधारित रही होगी. मेरे बड़े भाई साहब ने कहानी की हकीक़त जानते हुए भी चुप लगाना ज़रूरी समझा था.
हमारे घर में रेडियो आया तो विविध भारती और रेडियो सीलोन हमारे लिए अमृत वर्षा करने वाले बादल बन गए पर पिताजी के लिए रेडियो का मतलब न्यूज़, आराधना और क्रिकेट कमेन्ट्री सुनना हुआ करता था. बुद्धवार की शाम आठ बजे हम भक्तगण बिनाका गीतमाला सुनने के लिए अपनी-अपनी सांस रोककर बैठ जाते थे और आमतौर पर शाम 9 बजे वाली अंग्रेजी न्यूज़ सुनने वाले हमारे पिताजी हमारे रंग में भंग डालने के लिए रेडियो पर 8 से 9 के बीच वाले हिंदी समाचार सुनने लगते थे.
बचपन बीता, हम बड़े हो गए और खुद अपने पैरों पर खड़े भी हो गए. मैंने हॉस्टल-प्रवास के दौरान अपना पूरा पॉकेटमनी फिल्में देखने में खर्च किया था और अब जबकि अपनी खुद की कमाई आनी शुरू हो गयी तो फिर पुरानी अधूरी हसरतों को पूरा करने से मुझे कौन रोक सकता था. एक आदर्श पुत्र की भांति मैंने अपनी माँ की फ़िल्म दिखाने की फ़रमाइशों को पूरा करना अपना फ़र्ज़ समझा. अब मुझमें इतनी हिम्मत आ गयी थी कि पिताजी को भी मजबूर कर दूं कि वो माँ को ले जाकर फिल्म दिखाएँ. ‘फ़िल्म देखने से बच्चे बिगड़ जायेंगे’ वाली पिताजी की दलील अब बेमानी हो गयी थी क्यूंकि उनकी अंतिम संतान यानी कि मैं भी अब सेटल हो चुका था. लेकिन पिताजी को ऐसी-वैसी फिल्म देखने और माँ को ले जाकर उसे दिखाने के लिए तैयार नहीं किया जा सकता था. मैंने उन्हें ‘मुगले आज़म’ देखने के लिए तैयार किया. फिल्म तो उन्हें पसंद आयी पर शहज़ादे सलीम को उसकी बदतमीजियों के लिए वो मुगले आज़म की तरह खुद भी थप्पड़ लगाना चाहते थे. शहज़ादे सलीम के सन्दर्भ में माँ से कहा गया पिताजी का यह वाक्य मुझे आज भी याद है –
‘अब पता चला. तुम्हारे छोटे साहबज़ादे ने बदतमीज़ी से जवाब देना किस से सीखा है.’
‘गूंज उठी शहनाई’ फिल्म में बिस्मिल्ला खान ने शहनाई बजाई थी, उनका नाम सुनकर पिताजी फिल्म देखने को राज़ी हो गए. हम सिनेमा हॉल पहुंचे तो वहां फिल्म बदल चुकी थी और ‘आ गले लग जा’ लग गयी थी. मैंने पिताजी को फिल्म तब्दील हो जाने की सूचना देना उचित नहीं समझा. फिल्म देखी गयी और पिताजी जब-तब मुझे और माँ को गुस्से से घूरते रहे. फिल्म ख़त्म होने के बाद उन्होंने माँ को अपना फैसला सुनाया –
‘तुम्हारा बेटा धोखेबाज़ है. फिल्म की कहानी बेहूदा थी पर बच्चे और शत्रुघ्न सिन्हा का रोल अच्छा था.’
1985 में बहुत दिनों बाद हमारे घर में फिर से कार आई थी. मेरी धर्मपत्नी ने पिताजी से ट्रीट के रूप में प्रतिभा सिनेमा में फिल्म दिखाने की फरमाइश कर दी तो वो इंकार नहीं कर सके. पिताजी ने मुझसे पूछा – ‘प्रतिभा में कौन सी फिल्म लगी है?’
मैंने जवाब दिया –‘दि वाइफ.’
पिताजी ने हैरानी से फिर पूछा – ‘तुम्हारी माँ को इंग्लिश फिल्म पसंद आयेगी?’
मैंने पिताजी को जवाब दिया – ‘आजकल हिंदी फिल्मों के टाइटल अंग्रेज़ी में भी रक्खे जाते हैं. ये अच्छी फिल्म है, आप सब को पसंद आयेगी.’ 
सिनेमा हॉल में ‘तवाइफ़’ टाइटल और ‘दि वाइफ’ को मुजरा करते देखकर पिताजी आगबबूला हो गए पर फिर फिल्म की कहानी उन्हें पसंद आ गयी और उन्होंने हम लोगों को माफ़ कर दिया.
बिमल रॉय और ऋषिकेश मुकर्जी की फिल्में पिताजी को पसंद आती थीं और कुछ हद तक बी. आर. चोपड़ा की फिल्में भी, पर उनकी प्रसिद्द फ़िल्म ‘क़ानून’ के अदालत वाले सीन उन्हें बेहद नागवार गुज़रे थे पिताजी का कहना था कि अगर उनके कोर्ट में वकील ऐसी बदतमीज़ी और ड्रामेबाज़ी करते तो वो उनके कान पकड़वाकर उन्हें कोर्ट से बाहर निकलवा देते.
फिल्मों को लेकर मेरी धोखेबाज़ी पर पिताजी बहुत नाराज़ होते थे पर फिर पता नहीं क्यूँ हमसे छुप-छुप कर हँसते भी थे और फिर से मुझसे धोखा खाने के लिए तैयार भी हो जाते थे. आज पिताजी को हमसे बिछुड़े एक अर्सा हो गया है पर आज भी, इस उम्र में भी उन्हें कोई प्यारा सा धोखा देने का और गुस्से से उनकी घूरती हुई ऑंखें देखने का मन करता है.

‘आई मिस यू पिताजी.’              

सोमवार, 9 नवंबर 2015

उत्तराखंड की लोरी

आज उत्तराखंड की स्थापना को 15 साल हो जायेंगे. समस्त उत्तराखंडवासी, विशेषकर कुमाऊँवासी खुद को छला गया, पिटा गया, लुटा गया, ठगा गया और सौतेला गया (अभी-अभी गढ़ा गया शब्द) अनुभव करते हैं. इन 15 सालों में हमको कितनी ज़िम्मेदार सरकारें मिलीं, जनता के कल्याण हेतु कितने समर्पित और प्रतिबद्ध जन-प्रतिनिधि और अधिकारीगण मिले, हमारी कितनी प्रगति हुई, कितना विकास हुआ, उसका लेखा-जोखा मैंने उत्तराखंड (पहले उत्तराँचल) की स्थापना से पहले ही कर डाला था. उत्तराखंड या उत्तराँचल की स्थापना से किन-किन की जेबें भरनी थीं, किन-किन को ऐश करने थे और किन-किन को पूर्ववत बदहाल ही रहना था और मदिरालयों को आबाद ही रहना था, यह सबको पता था लेकिन जब उसकी स्थापना हेतु आन्दोलन चल रहा था तो सभी आन्दोलनकारी दिवा-स्वप्न देखने में ही मगन थे. पर मेरे जैसे टेढ़ी बुद्धि के आलोचक इन मन के लड्डुओं में यथार्थ का नमक डालने का काम कर रहे थे. एक भविष्यवक्ता बनकर इस कविता की रचना मैंने जनवरी. 1999 में की थी. मार्च, 1999 में मैंने नैनीताल में उत्तराखंड पर आयोजित एक सेमिनार में इसका पाठ भी किया था जिसमें कि प्रोफ़ेसर शेखर पाठक और श्री आर. एस. टोलिया भी उपस्थित थे. अब पाठकगण इतने सालों बाद अपना फैसला सुनाएँ कि मुझे मार दिया जाय या सटीक भविष्यवाणी करने पर इनाम देकर छोड़ दिया जाय.                
उत्तराखण्ड की लोरी
पुत्र का प्रश्न -
‘मां! जब पर्वत प्रान्त बनेगा,  सुख सुविधा मिल जाएंगी?
दुःख-दारिद्र मिटेंगे सारे,  व्यथा दूर हो जाएंगी?
रोटी, कपड़ा, कुटिया क्या,  सब लोगों को मिल पाएंगी?
फिर से वन में कुसुम खिलेंगे,  क्या नदियां मुस्काएंगी?

माँ का उत्तर -
‘अरे भेड़ के पुत्र,  भेड़िये से क्यों आशा करता है?
दिवा स्वप्न में मग्न भले रह,  पर सच से क्यों डरता है?
सीधा रस्ता चलने वाला,  तिल-तिल कर ही मरता है।
कोई नृप हो, तुझ सा तो,  आजीवन पानी भरता है।।

अभी भेड़िया बहुत दूर है,  फिर समीप आ जाएगा।
नहीं एक-दो,  फिर तो वह,  सारा कुनबा खा जाएगा।।
चाहे जिसको रक्षक चुनले,  वह भक्षक बन जाएगा।
तेरे श्रमकण और लहू से,  अपनी प्यास बुझाएगा।।

बेगानी शादी में ख़ुश है,  किन्तु नहीं गुड़ पाएगा।
तेरा तो सौभाग्य पुत्र भी,  तुझे देख मुड़ जाएगा।
प्रान्त बनेगा, नेता, अफ़सर,  का मेला, जुड़ जाएगा,
सरकारी अनुदान समूचा,  भत्तों में उड़ जाएगा ।।

राजनीति की उठापटक से,  हर पर्वत हिल जाएगा।
देव भूमि का सत्य-धर्म सब,  मिट्टी में मिल जाएगा।
वन तो यूंही जला करेंगे,  कुसुम कहां खिल पाएगा?
हम सी लावारिस लाशों का,  कफ़न नहीं सिल पाएगा।।

रात हो गई, मेहनतकश भी अपने घर जाते होंगे।
जल से चुपड़ी, सूखी रोटी, सुख से वो खाते होंगे।
चिन्ता मत कर, मुक्ति कभी तो,  हम जैसे पाते होंगे।

सो जा बेटा, मधुशाला से, बापू भी आते होंगे।।‘