मंगलवार, 31 अगस्त 2021

धन्य-धन्य असूर्य-पश्या भारतीय नारी

मजाज़ लखनवी की मशहूर नज़्म – ‘नौजवान खातून से’ का आख़िरी शेर है –
‘तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन,
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था.’
नारी जाति की लाज को ढकने वाले आंचल को इन्क़लाबी झंडा बनाने से हमको क्या हासिल होने वाला है?
हमारी कोशिश होनी चाहिए कि दुनिया भर की खवातीन को गुमराह करने वाली इस नज़्म को बैन कर दिया जाए.
पुराने ज़माने में आदरणीय शम्मी कपूर ने फ़िल्म राजकुमार' में साधना जी से कहा था -
'इस रंग बदलती दुनिया में इन्सान की नीयत ठीक नहीं,
निकला न करो तुम सजधज कर, ईमान की नीयत ठीक नहीं.'
सादगी और लाज की महत्ता को दर्शाने वाले इस गीत में आगे चल कर नायक अपनी नायिका को सचेत करता है कि उस चंचला को स्वच्छंद विचरण करते देख कर तो भगवान की नीयत भी डोल सकती है.
कई दशक बाद श्री अजय देवगन ने फ़िल्म 'मेजर साहब' में सोनाली बेंद्रे जी को सावधान करते हुए कहा था -
'अकेली न बाज़ार जाया करो,
नज़र लग जाएगी.'
कान्हा जी की रासलीला की परंपरा को पुनर्जीवित करने वाले और यौन-शोषण के लिए विश्वविख्यात श्री आसाराम बापू ने निर्भया काण्ड के बाद लड़कियों के देर रात तक घूमने पर जब सवाल उठाए थे तब कोई हंगामा नहीं हुआ था, किसी को उनकी टिप्पणी पर आपत्ति नहीं हुई थी पर कुछ साल पहले हमारे सुसंस्कृत, शालीन और संस्कारी, तत्कालीन केन्द्रीय संस्कृति मंत्री श्री महेश शर्मा ने विदेशी पर्यटक महिलाओं को कुछ ऐसी ही सलाह दी तो लोगबागों ने हंगामा खड़ा कर दिया था.
श्री महेश शर्मा ने भी तो अजय देवगन जी की ही बात को दोहराया था और यह भी कहा था --
'सावधानी हटी और दुर्घटना घटी'
पेशे से डॉक्टर महेश शर्मा जी ने विदेशी बालाओं को अगर यह सलाह दी कि वो भारत में स्कर्ट पहन कर न घूमें तो इसमें क्या बुराई थी?
अगर वो ऊपर-नीचे पूरे कपड़े पहनतीं तो डेंगू और चिकुनगुनिया जैसे रोगों से भी तो बची रहतीं.
नासमझ लोगों ने इस रोग-निवारक नेक सलाह का फ़साना ही बना डाला.
अब देखिए राष्ट्रभक्तों की हाफ़ पैंट को भी तो फ़ुलपैंट में बदला गया है.
शर्माजी ने विदेशी सुंदरियों को अगर यह सलाह दी थी कि -
'वो भारतीय पुरुषों से हाथ न मिलाएं क्यूंकि हमारे यहाँ इसका कुछ और अर्थ निकाला जाता है.'
अब इस बुज़ुर्गाना सलाह पर तो कोई सरफिरा ही आपत्ति कर सकता है.
हमारे यहाँ देवियों के चरण छुए जाते हैं.
बहन मायावती जी के सब चरण छूते हैं, कोई उनसे हाथ नहीं मिला सकता.
इस कोरोना-संकट के युग में जब किन्हीं भी दो प्राणियों में आपस में दो गज़ की दूरी बनाए रखना ज़रूरी हो गया है, हम डॉक्टर महेश शर्मा की सीख का मर्म समझ सकते हैं.
और फिर हाथ मिलाने का मतलब होता है कि जिस से आपने हाथ मिलाया है, आप उसकी पार्टी में शामिल हो गए.
अगर हमारे भूतपूर्व मंत्रीजी विदेशी पर्यटकों को भारतीय राजनीति के पचड़े में पड़ने से रोकना चाहते थे तो इसमें बुरा क्या थी?
हरयाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहरलाल खट्टर ने लड़कियों के जींस पहनने पर आपत्ति की थी.
अब भले ही फ़िल्म ‘दंगल’ में पहलवान महावीर सिंह यह कहते रहें –
‘हमारी छोरियां छोरों से कम हैं के?’
लेकिन हमको इसका आशय यही निकालना चाहिए कि अगर समूचे भारत में नहीं, तो कम से कम हरयाणा में लड़कियां, लड़कों जैसे कम कपड़े न पहनें और सदा-सदा के लिए किसी भी प्रकार की पाश्चात्य वेशभूषा का त्याग कर दें.
हरयाणा जैसे ख़ुशहाल प्रदेश पर लोगबाग कन्या-भ्रूण हत्या के तमाम मिथ्या आरोप लगाते रहते हैं.
भगवान जी वहां लड़कों की तुलना में लड़कियां कम पैदा करते हैं लेकिन हरयाणा की तरक्क़ी से जलने वाले इस का इल्ज़ाम भी नारी-पूजन में सतत लीन हरयाणावासियों पर ही मढ़ देते हैं.
आज हरयाणा की छोरियां खेल-कूद में दुनिया भर में नाम कमा रही हैं.
अगर ये छोरियां खट्टर जी की बात मानें और शॉर्ट्स, जींस, टी-शर्ट्स आदि अपने छोटे भाइयों को दे कर उनकी जगह कुर्ता-सलवार पहन कर खेलें तो वो एक तरफ़ भारतीय संस्कृति की ब्रांड एम्बेस्सेडर बनेंगी और दूसरी तरफ़ खेल के दौरान - घुटने, टखने आदि खुले रहने के कारण लगने वाली गम्भीर चोटों से भी सुरक्षित रहेंगी.
उत्तराखंड के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री तीरथ सिंह रावत को लड़कियों के फटी जींस पहनने पर सख्त ऐतराज़ है. रावत साहब की बात में बहुत दम है.
सियासत में नंगई बर्दाश्त की जा सकती है, मंत्रियों-नेताओं की ऐयाशियों के लिए थाईलैंड यात्राएं सहन की जा सकती हैं लेकिन भारतीय नारी को तो सात तालों में रह कर ही भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान हेतु प्रयत्नशील रहना चाहिए.
अभी हाल ही में मैसुरु में बलात्कार की एक घटना हुई है.
कर्नाटक सरकार के गृह मंत्री श्री अर्गा ज्ञानेंद्र इस आपराधिक घटना के लिए मुख्य रूप से उस लड़की को ज़िम्मेदार मानते हैं जो कि शाम ढलने के बाद भी एक निर्जन स्थान पर अपने दोस्त के साथ सैर-सपाटे पर गयी थी.
यह तो बलात्कारियों को खुली दावत देने जैसी नादानी थी.
फिर जो हुआ उस पर इतनी हाय, हाय क्यों?
कायदे से तो उस लड़की को शाम ढलने से पहले ही ख़ुद को घर के तहखाने में बंद कर लेना चाहिए था.
मैं आसाराम बापू, डॉक्टर महेश शर्मा, मनोहरलाल खट्टर, तीरथ सिंह रावत और अर्गा ज्ञानेंद्र के विचारों का पूर्ण समर्थन करता हूँ.
उनके वक्तव्य के फलस्वरूप भले ही विदेशी बालाएं भारत में आना बंद कर दें, भले ही हमारी भारतीय स्त्रियों पर और कन्याओं की गतिविधियों पर अंकुश लग जाने के कारण उन के शरीर में विटामिन 'ए' और विटामिन 'डी' की कमी हो जाए (यह कमी तो विटामिन की टेबलेट्स खा कर दूर की जा सकती है) पर यह तो सोचिए इस से देश को, समाज को, कितना लाभ होगा?
1. हमारी बहू-बेटियों की इज्ज़त बढ़ जाएगी.
2. स्त्रियों को असूर्य-पश्या मानने वाली भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान होगा.
3. हमारे देश में बलात्कार और अपहरण की घटनाओं में बहुत कमी आएगी.
4.. हमारे किशोर, हमारे युवा, लड़कियों पर कुदृष्टि डालने के बजाय अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे सकेंगे.
5. सब से बड़ी बात यह होगी कि नारी-स्वातंत्र्य के घोर विरोधी हमारे पड़ौसी तालिबानों को हम इस मास्टर स्ट्रोक से अपना दोस्त बनाने में कामयाब होंगे.

रविवार, 29 अगस्त 2021

चंद हाइकू

हाइकू की रचना करने में मेरी गति नहीं है फिर भी औरों की देखा-देखी मैंने इस क्षेत्र में कुछ गुस्ताखिया की हैं.
अब ये अच्छी हैं या बुरी हैं, यह तो आप ही तय कीजिए -
दुनिया फ़ानी
फिर भी मोह माया
जाग अज्ञानी
राम भरत
गद्दी पर विवाद
कोर्ट पहुंचे
संसद सत्र
हंगामा था बरपा
थोड़ी सी ही पी
मुफ़्त राशन
चुनाव से पहले
फिर वसूली
लम्बा भाषण
सुन के कान पके
जनता सोई

मंगलवार, 17 अगस्त 2021

मगरमच्छी आंसू बहाने की औपचारिकता

तीन साल पहले मैंने श्री अटल बिहारी वाजपेयी की मृत्यु पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था -
'अटल जी नहीं रहे. भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे. आज के एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले ज़माने में वो नेताओं की जमात में एक ऐसे नेता थे जिन्हें अपने अनुयायियों का ही नहीं, अपितु अपने विरोधियों का भी प्यार और सम्मान मिला था.
टीवी के हर न्यूज़ चैनल पर, हर समाचार पत्र में, यह मुख्य खबर है कि अपने प्रिय नेता से बिछड़ने के कारण आज सारा देश शोकाकुल है.
लेकिन अटल जी के निधन से मैं दुखी नहीं हूँ. 93 वर्ष से भी अधिक की परिपक्व आयु में और लम्बी असाध्य बीमारी के बाद उनका निधन कोई हादसा नहीं है. हमको तो इस बात का संतोष होना चाहिए कि उनको अपने कष्टों से मुक्ति मिली.
वो ओजस्वी वक्ता, वो हाज़िर जवाब विनोदी व्यक्ति, वो कवि-ह्रदय राजनीतिज्ञ जिसके हम सब प्रशंसक थे, वो तो हमसे लगभग एक दशक पहले ही बिछड़ गया था. 2009 के बाद से तो अटल जी अपने बंगले में ही रहने के लिए मजबूर हो गए थे. उनके सार्वजनिक जीवन पर पूर्ण विराम लग गया था.
लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम के सहारे सिर्फ़ साँसें लेना वाला एक बेबस इन्सान, अगर अपने कष्टों से मुक्ति पा गया तो हमको आंसू बहाने की क्या ज़रुरत है?
हम अटल जी को अगर सच्ची श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो उनकी तरह स्वच्छ राजनीति का निर्वाहन करने वालों को अपना नेता चुनें. प्रति-पक्षी की आलोचना करते समय उनकी तरह शालीनता का व्यवहार करें. अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी गंगा-जमुनी विरासत पर गर्व करें और दुश्मन को भी गले लगाने की उदारता दिखाएं.'
साहित्य के देदीप्यमान नक्षत्र नीरज और तामिल राजनीति के भीष्म पितामह करुणानिधि के निधन पर भी शोक संवेदना के बनावटी आंसू बहाने वाले हज़ारों की संख्या में दिखाई पड़ रहे थे.
अभी हाल ही में दिलीपकुमार के निधन पर भी ऐसे ही मगरमच्छी आंसू बहाए गए थे.
अभिनय सम्राट दिलीपकुमार तो एक अर्सा हुआ हम से ही क्या, ख़ुद से बिछड़ गए थे.
जब व्हीलचेयर पर बैठे दिलीपकुमार को सायरा बानो एक बच्चे की तरह खिलाती थीं, उनकी तरफ़ से लोगों से बातें करती थीं, तो अपने महा-नायक की बेबसी पर हमारी आँखें भर आया करती थीं.
मृत्यु तो एक ध्रुव सत्य है ! इसे हम शालीनता के साथ स्वीकार क्यों नहीं कर सकते?
हमारे देश में आंसू बहाने का इतना नाटक क्यों होता है?
कितनों ने लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम के सहारे घुट-घुट कर जीने का नाटक करते हुए किसी मरीज़ को देखा है?
मैंने अपनी बड़ी बहन को अपने जीवन के अंतिम तीन सालों में हर दिन ज़िन्दगी और मौत के बीच झूलते देखा था.
सप्ताह में तीन बार डायलसिस के लिए जाना और उसके कारण उत्पन्न अनेक कॉम्प्लीकेशंस का मुक़ाबला करना, उनके लिए ही नहीं, समस्त परिवार के लिए अत्यंत कष्टदायी था.
अपने जीवन के अंतिम तीन दिन उन्होंने वेंटीलेटर के सहारे गुज़ारे थे.
जब वो 72 वर्ष से भी कम आयु में चल बसीं तो मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उन्होंने मेरी बहन को उनके असह्य कष्टों से मुक्ति दिला दी.
हमको इस शोक प्रकट करने की बनावटी औचारिकताओं से बचना चाहिए.
पेशेवर शोक प्रकट करने वाले मर्सिया पहले से तैयार रखते हैं, उसमें सिर्फ़ कोई पुराना नाम हटा कर दिवंगत आत्मा का नाम डालते ही एक नया, ताज़ा और गरमा-गर्म मर्सिया तैयार हो जाता है.
यदि दिवंगत विभूति के प्रति हमारे ह्रदय में आदर और प्रेम की भावना है तो हमको उसके द्वारा छोड़े गए अधूरे कामों को पूरा करना चाहिए और उसका अनुकरण करके उसकी विचारधारा को, उसके जीवन-दर्शन को आगे बढ़ाना चाहिए.
बिना बात के आंसू बहाने के लिए मगरमच्छ और किराए की रुदालियाँ काफ़ी हैं, हम सबको उनका जैसा नाटक कर, उनकी रोज़ी-रोटी का ज़रिया छीनने की क्या ज़रुरत है?
आइए, हम सब दिवंगत आत्माओं को एक बार फिर से याद करते हुए राष्ट्र-निर्माण में उनके योगदान को याद करें और उनके सिखाए हुए मार्ग पर चल कर भारत की सर्वतोमुखी उन्नति में यथासंभव ख़ुद भी जुट जाएं.
ॐ शांतिः, शांतिः, शांतिः !

रविवार, 8 अगस्त 2021

वसीयत

आज ही के दिन 79 साल पहले बॉम्बे जिमखाना मैदान (आज का आज़ाद मैदान) में एक आमसभा में महात्मा गाँधी तथा देश के अनेक शीर्षस्थ नेताओं के समक्ष अगले दिन अर्थात 9 अगस्त से 'भारत छोड़ो आन्दोलन' प्रारंभ किए जाने की घोषणा की गयी थी. 8 अगस्त की रात्रि को ही प्रमुख नेताओं के बंदी बना लिए जाने के कारण आन्दोलन का नेतृत्व मुख्यतः नौजवानों के हाथों में आ गया था. इसी पृष्ठभूमि पर मैंने अपनी कहानी 'वसीयत' की रचना की है.
वसीयत -
सितम्बर, 1942 की एक शाम का वाक़या था.
शेख कुर्बान अली ने अपनी हवेली में कोतवाल हरकिशन लाल की बड़ी आवभगत की और उनको विदा करते वक़्त उनकी जेब में चुपके से एक थैली भी सरका दी. शेख साहब की हवेली से वैसे भी कोई सरकारी मुलाज़िम कभी खाली हाथ नहीं जाता था पर आज कुछ ख़ास ही बात थी.
कोतवाल साहब की रुखसती के बाद से शेख साहब को उदासी और फ़िक्र ने घेर लिया था. कोतवाल साहब ने उन्हें ऐसी ख़ुफ़िया खबर सुनाई थी कि उनके होश फ़ाख्ता हो गए थे.
आला अंग्रेज़ अफ़सरों के साथ रोज़ाना उठने-बैठने वाले शेख साहब का सरकार में बड़ा दबदबा था.
अंग्रेज़ हुकूमत उनकी वफ़ादारी और उनकी बर्तानिया सरकार को की गयी खिदमत से इतनी खुश थी कि इस साल उन्हें ‘नाईटहुड’ यानी कि ‘सर’ का ख़िताब देने की सोच रही थी.
ये खबर उन्हें खुद यूनाइटेड प्रोविन्सेज़ के गवर्नर मॉरिस जी. हेलेट साहब ने सुनाई थी.
इधर शेख साहब की बरसों की मुराद पूरी होने ही वाली थी और उधर उनके साहबज़ादे की कारस्तानी उनके अरमान मिटटी में मिलाने पर आमादा थी. कोतवाल साहब खबर लाए थे कि शेख साहब के साहबज़ादे ज़फर अली बागी होकर लखनऊ में ‘क्विट इंडिया मूवमेंट’ की अगवाई करेंगे और सरकार उनको और उनके तमाम गुमराह नौजवान साथियों की इस बागी हरक़त को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी.
शेख साहब को अंग्रेज़ हुकूमत की वफ़ादारी करने की सीख अपने वालिद, दादा और परदादा से मिली थी. अपनी जान को ख़तरे में डालकर 1857 के ग़दर में उनके पुरखों ने अंग्रेज़ों के बीबी, बच्चों को अपने यहाँ पनाह दी थी.
बगावत को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने उनके पुरखों पर इनामात और जागीर की झड़ी लगा दी थी.
शेख साहब इस मेहरबानी के लिए हमेशा अंग्रेजों के शुक्रगुज़ार रहते थे और वो अंग्रेजों की ख़िदमत करने का कोई भी मौक़ा अपने हाथ से जाने नहीं देते थे. उन्होंने फ़र्स्ट वर्ड वॉर और फिर सेकंड वर्ड वॉर में भी वॉर-फ़ण्ड में लाखों रुपयों का चंदा दिया था और अपने जागीर के तमाम नौजवानों को फ़ौज में भर्ती भी करवाया था.
अपने बेटे ज़फर अली की इस गुस्ताख़ हरक़त ने उनका कलेजा चीर कर रख दिया था –
‘भला अंग्रेज़ हुकूमत उस शख्स को ‘सर’ का ख़िताब कैसे दे सकती थी जिसका कि ख़ुद का बेटा उस सरफिरे गांधी का चेला हो?’
‘ऐसे बागी के हिस्से में तो आएंगी पुलिस की लाठियां, गोलियां या जेल और उसके बाप के हिस्से में आएंगी ज़िल्लत (अपमान) और जग-हंसाई.’
क्या-क्या अरमान लेकर उन्होंने अपने खानदान के पहले ग्रेजुएट इस लड़के को लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम. ए. इंग्लिश में दाखिला दिलवाया था?
इस ज़हीन लड़के को आई. सी. एस. अफ़सर बनने से कोई रोक नहीं सकता था पर अब खुद उसकी अपनी बेवकूफ़ी उसकी किस्मत पर ग्रहण बन कर छा गयी थी.
साहबज़ादे ने अपने तमाम विलायती सूट अपने नौकरों में बाँट दिए थे और खुद खद्दर के मोटे, खुरदरे कपड़े पहनना शुरू कर दिया था.
इतना ही नहीं, स्वदेशी के चक्कर में उन्होंने खुद चरखे पर सूत कातना भी सीख लिया था.
चलो, शेख साहब साहबज़ादे की ऐसी बेजा हरक़तें भी बर्दाश्त कर लेते पर उनकी बागी शायरी तो वो क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. साहबज़ादे की गज़लों में, उनकी नज़्मों में, कभी ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने की बात होती थी तो कभी स्वदेशी और आज़ादी की बात होती थी.
पता नहीं उनके जैसे वफ़ादार के घर में इस दूसरे रामप्रसाद बिस्मिल ने कैसे जनम ले लिया था?
शेख साहब ने नौकर भेज कर ज़फर अली को अपने कमरे में तलब किया.
ज़फर अली हाज़िर हुआ तो शेख साहब ने उस से पूछा –
‘क्यों जनाब ! सुना है कि कल आप लखनऊ यूनिवर्सिटी से अपने हाथों में तिरंगा लेकर असेंबली हाउस तक जाने वाले हैं?’
ज़फर अली ने जवाब दिया –
‘जी अब्बा हुज़ूर, आपने सही सुना है. कल के जुलूस में मैं ही तिरंगा लेकर सबसे आगे रहूँगा.’
शेख साहब ने फिर सवाल किया –
‘सुनते हैं अंग्रेज़ हुकूमत की आने वाली मौत पर आपने एक मर्सिया (मृत्यु पर कहा जाने वाला शोक गीत) भी लिखा है?’
ज़फर अली ने जोश के साथ कहा –
‘मैं इस मर्सिये को गाते हुए ही जुलूस में निकलूंगा और मेरे साथ मेरे तमाम साथी भी इसको गाएंगे.’
शेख साहब ने गुस्से से कहा –
‘तुम्हें अपना बेटा कहने में मुझको शर्म आती है. अपनी इन बेहूदा हरक़तों के बाद तुम क्या आई. सी. एस. में सेलेक्ट हो पाओगे? क्या तुम्हारी बगावत के बाद तुम्हारे वालिद को कोई सरकार ‘सर’ का ख़िताब देगी?’
ज़फर अली ने जवाब दिया –
‘अब्बा हुज़ूर ! आई. सी. एस. बनकर अपने ज़मीर को बेचने वालों में मेरा शुमार कभी मत कीजिएगा. और रही आपको ‘सर’ का ख़िताब देने की बात तो आप गुलामी के इस ताज को पहनकर कुछ हासिल तो क्या करेंगे, अलबत्ता लाखों हिन्दुस्तानियों की नफ़रत के हक़दार ज़रूर बन जाएंगे.’
शेख साहब गुस्से से तमतमा कर बोले –
‘तुम्हारा लीडर गाँधी बैरिस्टरी छोड़कर सत्याग्रही बन गया और अब तुम अपनी तालीम छोड़कर स्वराजी बन गए हो. गाँधी तो बूढ़ा हो गया है पर क्या तुम जवानी में ही सठिया गए हो?’
ज़फर अली जोश के साथ बोला –
‘अब्बा हुज़ूर ! आपने महात्मा जी के साथ मेरा नाम जोड़कर मेरा रुतबा बढ़ा दिया.
दुआ कीजिए कि हमारा कल का जुलूस ब्रिटिश हुकूमत के ताबूत में आखरी कील ठोकने में कामयाब हो.’
शेख साहब ने ज़फर अली को समझाते हुए कहा –
‘साहबजादे ! हिंदुस्तान में बर्तानिया हुकूमत का तख्ता पलटने की हर कोशिश नाकाम रही है और आगे भी रहेगी. इस वक़्त दूसरी आलमी जंग (द्वितीय विश्व-युद्ध) चल रही है. हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही के खिलाफ़ जंग में हमको अंग्रेजों का साथ देना चाहिए. जैसे ही जंग ख़त्म होगी, तो हम हिन्दुस्तानियों को हमारी सरकार तमाम सहूलियत (सुविधाएँ) और हुकूक (अधिकार) खुद ही दे देगी.’
ज़फर अली ने मुस्कुराकर पूछा –
‘क्या वैसी ही सहूलियतें और हुकूक जैसे कि पहली आलमी जंग के बाद हमको जलियाँ वाला बाग़ में दिए गए थे या फिर हाल ही में क्रिप्स साहब (मार्च, 1942 का खोखले सुधारों का ‘क्रिप्स प्रस्ताव' जिसको कि सभी भारतीय सियासती पार्टियों ने खारिज कर दिया था) दे रहे थे?’
शेख साहब के पास ज़फर अली के इस सवाल का तो कोई जवाब नहीं था पर फिर भी वो अपनी पुरानी ज़िद पर ही अड़े रहे. उन्होंने उसे अपना फ़ैसला सुनाया –
‘तुम अगर कल के जुलूस की लीडरी करोगे तो मेरी जायदाद, मेरी जागीर, सबसे बेदख़ल कर दिए जाओगे.’
ज़फर अली ने इस फ़ैसले के लिए अपने अब्बा हुज़ूर का शुक्रिया अदा किया और फिर उनसे रुखसती की इजाज़त मांग ली.
अगली सुबह शेख साहब ने अपने बेटे को फिर से समझाने की कोशिश की. उन्होंने उसे लालच दिया कि वो आला अंग्रेज़ अफ़सरों (बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों) से उसकी सिफ़ारिश कर उसे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनवा देंगे पर बेटा था कि अपनी स्वराजी ज़िद पर ही अड़ा रहा. शेख साहब ने एक बार फिर उसे जायदाद से बेदख़ल करने की धमकी दी तो वो बोला –
‘अब्बा हुज़ूर ! आप मेरी मानें तो अपनी सारी जागीर मुझे नहीं, बल्कि महात्मा जी को दान में दे दें. और हाँ, आप मुझे अपनी वसीयत में कुछ दें या न दें पर मैं अपनी ज़िन्दगी भर की कमाई यानी अपनी पूरी इन्क़लाबी शायरी आपके नाम कर के ही इस दुनिया से रुखसती करूंगा.’
शेख साहब इस बात को सुनकर गुस्से से आगबबूला होना चाहते थे पर पता नहीं क्यों उनकी आँखें भर आईं और अचानक ही अपने गुस्ताख बेटे पर उन्हें प्यार उमड़ पड़ा.
‘खुदा तुम्हें हर बला से महफूज़ (भगवान तुम्हें हर मुसीबत से सुरक्षित रक्खे) रक्खे’,
यह कह कर उन्होंने अपने बेटे को गले लगा कर उसे जुलूस के लिए रुखसत किया.
ज़फर अली ने अपने अब्बा से विदा ली. अपनी हवेली ने निकलते हुए वो बिस्मिल अज़ीमाबादी की लिखी और शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की पसंदीदा नज़्म गुनगुना रहा था –
‘सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है,
देखना है, ज़ोर कितना, बाज़ुए क़ातिल में है.’
लखनऊ यूनिवर्सिटी का टेनिस ग्राउंड आन्दोलनकारी छात्रों से भरा हुआ था. दसियों तिरंगे आसमान में लहरा रहे थे पर ज़फ़र अली के हाथ का तिरंगा उन में सबसे ऊंचा था. जुलूस असेम्बली हाउस की तरफ़ बढ़ा. ज़फर अली अपना ही एक क़लाम गा रहा था –
‘ज़ुल्म की हर इंतिहा इक हौसला बन जाएगी,
और नाकामी मुझे, मंजिल तलक पहुंचाएगी,
क्या हुआ जो हुक्मरां, छलनी करें सीना मेरा,
ये शहादत कौम को, जीना सिखाती जाएगी.’
(हर बार अत्याचार की अधिकता हमारे साहस का कारण बनेगी और असफलता हमको हमारे लक्ष्य तक पहुंचाएगी. क्या हुआ यदि शासकगण गोलियों से मेरा सीना छलनी कर दें? मेरा बलिदान देशवासियों को सच्चे अर्थों में जीना सिखाता जाएगा.)
‘भारत छोड़ो’, ‘क्विट इंडिया’ और ‘करो या मरो’ के नारों से पूरा लखनऊ गूँज रहा था. और मुस्तैद पुलिस चुप होकर जुलूस को असेंबली हाउस तक बढ़ने दे रही थी पर जैसे ही जुलूस अपनी मंजिल के करीब पहुंचा, पुलिस ने उसको रोकने कोशिश में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया. पर आज़ादी के दीवाने कहाँ रुकने वाले थे? लाठियों की बौछार सहते हुए आन्दोलनकारी बढ़ते रहे. अंधाधुंध लाठियां खाते हुए भी जब आन्दोलनकारी रुके नहीं तो वार्निंग के तौर पर पुलिस का हवाई फायर भी हुआ पर उसका भी कोई असर नहीं हुआ. पुलिस की लाठियों की चोट से ज़ख़्मी ज़फर अली हाथ में तिरंगा लेकर असेम्बली हाउस की तरफ़ बढ़ता रहा, बढ़ता रहा. फिर अचानक ही – ‘फ़ायर’ की गर्जना हुई और पुलिस की पहली गोली ज़फर अली के सीने के पार निकल गयी.
ज़फर अली ज़मीन पर गिर पड़ा पर पाक तिरंगे को उसने फिर भी अपने हाथ से गिरने नहीं दिया.
उस दिन तो पुलिस की फ़ायरिंग के बाद जुलूस तितर-बितर हो गया. अगले दिन फिर लखनऊ यूनिवर्सिटी से एक और जुलूस निकला लेकिन इस जुलूस की मंज़िल असेंबली हाउस नहीं, बल्कि शहरे-खामोशां (कब्रिस्तान) थी.
यह जुलूस कल वाले जुलूस से बिलकुल अलग था, इसके आगे भी ज़फर अली था और उसका तिरंगा भी. पर इस बार ज़फ़र अली तिरंगा अपने हाथ में थामे नहीं था बल्कि वो उसमें खुद लिपटा हुआ था और उसके जनाज़े में उसको कन्धा देने वाले शेख कुर्बान अली जुलूस की अगवाई करते हुए शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और अपने बेटे की पसंदीदा नज़्म गा रहे थे -
‘सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है,
देखना है, ज़ोर कितना, बाज़ुए क़ातिल में है.’
शेख कुर्बान अली का सर आज फ़ख्र से ऊंचा हो गया था. उनके बेटे ने अपनी वसीयत में अपना बेशकीमती इन्क़लाबी क़लाम देकर उन्हें दुनिया का सबसे अमीर इन्सान बना दिया था और अपनी शहादत से उसने उन्हें ‘सर’ से कहीं ऊंचा ख़िताब दिलवा दिया था.
अब वो सिर्फ़ और सिर्फ़ शम्मा-ए- आज़ादी पर मर-मिटने वाले परवाने शहीद ज़फर अली के वालिद थे.

शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

नया सुदामा चरित

ऐसे बिहाल बिबाइन सों, पग कंटक-जाल लगे पुनि जोए,
हाय महादुख पायौ सखा ! तुम आये इतै न कितै दिन खोए.
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकें करुनानिधि रोए,
पानी परात सों हाथ छुयौ नहिं, नैनन के जल सों पग धोए.
{सुदामाचरित : नरोत्तमदास}
कलयुगी करुणानिधि -
भूख-अभाव फटो छप्पर, कब लौं अभिसाप प्रभू कोऊ ढोए,
रोज गुलामी कुबेरन की करि, इज्जत-आबरू दोनहु खोए.
देख सुदामा की दीन दसा, करूनानिधि चादर तानि के सोए,

पादुका-हीन सखा पग जानि, तुरंतहिं मारग कंटक बोए.