शनिवार, 30 जुलाई 2016

ब्राह्मण-विरोधी प्रेमचंद

ब्राह्मण विरोधी प्रेमचंद
लोभी, मूर्ख और ढोंगी मोटेराम शास्त्री तथा धूर्त,व्यावहारिक, एवं अवसरवादी चिंतामणि, ये दो ब्राह्मण, प्रेमचंद की कहानी के पात्र हैं.
'
सवा सेर गेहूं' कहानी का शाइलौक एक ब्राह्मण ही है.
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गोदान' में ब्राह्मण-खल पात्रों की भरमार है. स्वार्थी, कामुक पंडित मातादीन सिलिया चमारन का हर प्रकार से शोषण और अपमान करता है. उसके परिवार वाले पंडित मातादीन के गले में जबरन गाय की हड्डी डालकर उसका धर्म भ्रष्ट कर देते हैं. किन्तु ब्राह्मण देवता की अमानवीयता का सबसे भयानक चित्रण 'सदगति' कहानी में मिलता है.
'
कर्मभूमि' उपन्यास में पंडितों द्वारा दलितों के मंदिर प्रवेश और फिर दलितों द्वारा बलात मंदिर-प्रवेश के प्रसंग को भी ब्राह्मण-विरोधी कहा जाता है.
प्रेमचंद पर बार-बार ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है. मुझे उनकी कहानी 'मन्त्र' याद आ रही है जिसमें कि छुआछूत मानने वाले एक ब्राह्मण देवता जब गंभीर रूप से बीमार पड़ते हैं तो उनके अपने उन्हें छोड़ जाते हैं किन्तु दलित समुदाय उनकी सेवा कर उन को स्वस्थ कर देता है. ब्राह्मण देवता का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वो फिर आजीवन दलितोद्धार के लिए समर्पित हो जाते हैं. शायद प्रेमचंद ब्राह्मण देवताओं के ऐसे ही ह्रदय परिवर्तन की आस लगाए बैठे थे.
खरी-खरी कहने वाले चाहे कबीर हों चाहे प्रेमचंद, उन्हें आलोचकों और निंदकों की कभी कमी नहीं रही.
प्रेमचंद ने 'ठाकुर का कुआँ' और 'घासवाली' कहानी में ठाकुरों की हेकड़ी और दमनकारी प्रवृत्ति को उजागर किया है पर किसी ने उन्हें कभी क्षत्रिय विरोधी नहीं कहा,
एक बड़ा रोचक प्रसंग याद आ गया. आकाशवाणी अल्मोड़ा के लिए मैंने श्री भगवती चरण वर्मा की अमर व्यंग्य-रचना 'प्रायिश्चित' का नाट्य-रूपांतरण किया था पर दुर्भाग्य से उसका प्रसारण नहीं हो सका. एक ब्राह्मण देवता प्रोफ़ेसर साहब को मेरी कहानियों में अभिरुचि थी. मैंने उन्हें 'प्रायिश्चित' का 'नाट्य-रूपांतरण दिखाया तो उन्होंने प्रेमचंद से लेकर भगवतीचरण वर्मा तक सभी ब्राह्मण विरोधी लेखकों को कोसना शुरू कर दिया और उनके ब्राह्मण-विरोधी होने का कारण उनका ब्राह्मण न होना बताया.
प्रोफ़ेसर साहब को नमन करते हुए मैंने उच्चकुलीन ब्राह्मण निराला की एक पंक्ति सुना दी -
'
ये कान्यकुब्ज, कुल, कुलांगार, खाकर पत्तल में छेद करें--'
क्रुद्ध प्रोफ़ेसर साहब ने फिर कई महीनों तक मेरा मुंह भी नहीं देखा.
अपने समाज, अपनी जाति पर अगर कोई प्रहार करे तो हमको दुर्वासा का रूप धारण नहीं करना चाहिए बल्कि अपने समाज की बुराइयों को स्वीकार करने का साहस दिखाना चाहिए और उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए.
सिराज-उद-दौला का नगर सेठ, कुख्यात अमीचंद भारतेंदु हरिश्चंद का पुरखा था. इस देशद्रोही की भर्त्सना करने में भारतेंदु सबसे आगे रहते थे.
मित्रों, कल प्रेमचंद जयंती है. उन्हें ब्राह्मण-विरोधी कहने वालों से मेरा केवल इतना अनुरोध है उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों पर स्वयं विचार करें और देखें कि वो सही कहते थे या गलत कहते थे.
प्रेमचंद ब्राह्मण विरोधी नहीं थे. वो सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक विषमता तथा अन्याय के विरोधी थे, समता और मानवीयता के पक्षधर थे.

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

आम आदमी

झूठे विकास, शैतानी-बाज़ारवाद तथा सर्वत्र व्याप्त प्रदूषण से घुटते, मिटते, सिसकते और छटपटाते हुए आम आदमी की दुर्दशा पर मेरे उदगार –
विकास
यह गरीब को मिटा रहा है, किन्तु अमीरी बढ़ा रहा है.
ठगा, लुटा, बेबस सा, मंज़र, देख रहा है, आम आदमी.
बाज़ार
नैतिकता को बेच दिया है, मौलिकता नीलाम हो गई,
इज्ज़त बिकती माँ-बहनों की, फिर भी चुप क्यूँ आम आदमी?
बुझी आग
दीन-हीन सा, औ निरीह सा, किंचित कातर, किंचित कायर,

ज़ुल्म-सितम, घुट-घुट कर जीता, बुझी आग, क्यूँ आम आदमी?      
प्रदूषण
धर्म प्रदूषित, कला प्रदूषित, राजनीति आकंठ प्रदूषित,
मेहनतकश का भाग प्रदूषित, नित-नित मरकर, फिर जीने को,
शापित क्यूँ है, आम आदमी?
पर अब आम आदमी को अपनी नियति से और हुक्मरानों की नीयत से कोई शिकायत नहीं रह गई है –
वो परेशान बहुत हैं, मेरी बदहाली पर,
खून पीने को मगर, और कहाँ पर, जाएं?     

बुधवार, 27 जुलाई 2016

फ़ैसला

फ़ैसला –
वकीलों के बीच, मेरे पिताजी अपने अति गंभीर व्यवहार और नो-नॉनसेंस एटीट्यूड के लिए काफ़ी प्रसिद्द थे बल्कि सच कहूँ तो काफ़ी बदनाम थे. उनके कोर्ट में अगर कोई वक़ील काला कोट पहनकर न आए या अधिवक्ताओं वाला सफ़ेद बैंड लगाकर न आए तो वो उसे कोर्ट से बाहर का रास्ता दिखा देते थे. कोर्ट में हास-परिहास या मुद्दे से हटकर कोई भी बात उन्हें क़तई गवारा नहीं थी. नौजवान वक़ील साहिबान तो उनसे बहुत डरा करते थे. कोर्ट में बहस के दौरान वो कभी उनकी क़ानूनी अज्ञानता पर उन्हें टोका करते थे तो कभी उनकी गलत-सलत अंग्रेज़ी पर.
बढ़ती हुई बेरोज़गारी के ज़माने में कचहरियों में काले कोट-धारियों की फ़ौज जमा होने लगी थी पर उनकी संख्या में बेशुमार वृद्धि की तुलना में वहां काम में वृद्धि की तो कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था. शुरू-शुरू में नए-नए बने वकील साहब चमचमाती साइकिल पर नया कोट और टिनोपाल लगी सफ़ेद पैंट में सर्र-सर्र लहराते हुए किसी फ़िल्म के हीरो लगा करते थे पर कुछ दिनों बाद ही धूल भरी साइकिल पर उड़े हुए रंग के काले कोट, मटमैली हो रही सफ़ेद पैंट में,दिन बाद वो स्लो मोशन में चलते हुए किसी पारिवारिक फ़िल्म में बाबूजी का रोल निभाने वाले नाना पलसीकर या नज़ीर हुसेन जैसा कोई चरित्र अभिनेता लगने लगते थे.
पिताजी खाली बैठे इन वकीलों की बढ़ती तादाद को लेकर बहुत परेशान रहते थे. अक्सर,इशारों-इशारों में वो इन नौजवान बेरोजगारों को कोई दूसरा पेशा इख़्तियार करने की सलाह देने लगे थे.. कब इन नौजवानों पर अपना गुस्सा या रौब झाड़ने से ज़्यादा उन्हें उनकी फ़िक्र होने लगी, कब इन कठोर, उसूलों के पक्के, मजिस्ट्रेट साहब पर एक रहमदिल और फिक्रमंद बाप हावी हो गया,,हमको पता ही नहीं चला पर उन नौजवान वकीलों को पता चल गया. उन्हें मालूम हो गया कि साहब कंपटीशन की तैयारी करने वालों की हर तरह से मदद करने को तैयार रहते हैं और उन्हें ऐसे लोगों को कंपटीशन से सम्बंधित होम वर्क देने में और उसको जांचकर उसमें आवश्यक सुधार करने में बड़ा आनंद आता है. वकीलों को हमारे घर पर आने की इजाज़त तो नहीं थी पर लंच-ब्रेक में पिताजी को ये नौजवान अपनी समस्यायों के समाधान के लिए घेरे रहते थे.
पिताजी जब मोर्निंग वॉक के लिए जाते थे तब भी पी. सी. एस. जे. या कोर्ट इंस्पेक्टर की परीक्षा की तैयारी कर रहे दो-चार बेरोजगार नौजवान उनके साथ हो लेते थे. टहलने के दौरान लगातार गुरु-शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर होते रहते थे.
पिताजी का यह बदला हुआ रूप देख कर हमको बड़ा मज़ा आता था. कभी पिताजी का कोई शागिर्द किसी परीक्षा में सफल हो जाता था तो वो अपनी डायबटीज़ की परवाह किए बगैर मिठाई ज़रूर खाते थे. पर ऐसे मौक़े बहुत कम आते थे. अक्सर उनके फ़ाकों और उनकी परेशानियों की दास्तानें ही पिताजी को दुखी करती रहती थीं.
पिताजी की मोर्निंग वॉक के उनके एक छात्र,पिताजी की मोर्निंग वॉक के उनके एक छात्र और कंपटीशन की तैयारी में लगे एक वक़ील साहब बहुत फटे हाल में थे. टूटे पेडल वाली उनकी खटारा साइकिल में आए दिन पंचर भी होते रहते थे. वकील साहब अपनी साइकिल पर बैठते कम थे, साइकिल पंचर हो जाने या उसका पेडल निकल जाने पर वो उसे घसीटते ज़्यादा थे. एक दिन पिताजी के कोर्ट के हाते में उन्हीं नौजवान वकील साहब और किसी बड़े वक़ील के मुंशी में ज़ोर-ज़ोर से बहस हो रही थी. पिताजी ने उन दोनों को बुलाकर उन्हें शोर मचाने के लिए फटकारा फिर उनसे उनकी बहस का कारण पूछा. लगभग रोते हुए  नौजवान वकील साहब ने पिताजी से कहा –
‘साहब, मुंशीजी केस में पेशी की तारीख़ बढ़वाना चाहते हैं. बड़े वकील साहब तो आए नहीं हैं, तारीख़ बढ़ाने की अर्जी में मुंशीजी को मेरे दस्तख़त चाहिए. पर ये मुझे इसके लिए बस -- ‘
‘मुंशीजी ने उस नौजवान की बात पूरी नहीं होने दी और फिर उन्होंने हाथ जोड़कर पिताजी से कहा –
‘हुज़ूर, ये वकील साहब दिन भर तो बैठे मक्खी मारते रहते हैं. पर मैं ज़रा से दस्तखत करने के इन्हें दस रूपये दे रहा हूँ तो ये मुझसे तीस रूपये मांग रहे हैं.’
आम तौर पर ऐसी बात सुनकर वकील साहब और मुंशीजी दोनों को ही पिताजी तुरंत कोर्ट निकाला दे देते पर पता नहीं कैसे उसूलों और अनुशासन के पक्के मजिस्ट्रेट साहब पर एक फिक्रमंद बाप हावी हो गया.    
यह घटना आज से क़रीब पैंतालिस साल पहले की थी फिर भी किसी वकील के लिए मात्र 10 रूपये का मेहनताना तब भी बहुत कम था.
पिताजी ने मुंशीजी को लताड़ लगाई फिर उन्हें प्यार से समझाते हुए कहा –
‘हो सकता है कल यह लड़का मजिस्ट्रेट या जज बन जाए. आज भी यह एडवोकेट तो है ही, ''वक़ालत के पेशे की थोड़ी तो इज्ज़त करो. इसी के सहारे तुम्हारी भी रोज़ी-रोटी चलती है. चुपचाप इसको तीस रुपए दे दो और तारीख बढ़वाने की अर्जी जमा करवा दो.’
मुंशीजी ने साहब को सलाम ठोकते हुए वक़ील साहब को तारीख बढ़वाने की अर्जी पर दस्तखत करने के तीस रूपये थमा दिए.
अंत भला तो सब भला. अदालत बर्ख्वास्त होने पर पिताजी जब कोर्ट से बाहर निकल रहे थे तो जेब में तीस रूपये सम्हालते हुए लेकिन अपनी खुशी का बेलगाम इज़हार करते हुए वकील साहब ने उनसे कहा –
‘साहब,,आज बहुत दिनों बाद हडिया भर रसमलाई खरीदकर घर ले जाऊँगा.’
साहब ने रसमलाई की खरीद पर रोक लगाते हुए अपना फ़ैसला सुना दिया –

‘तुम कोई रसमलाई वगैरा नहीं खरीदोगे. यहाँ से सीधे साइकिल की दुकान पर जाओगे और इन रुपयों से अपनी साइकिल का टूटा पेडल और पिछले पहिए का टायर-ट्यूब बदलवाओगे.’                                      

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

मुफ़लिसी पर रोने वालों के जवाब में -

मुफ़लिसी पर रोने वालों के जवाब में -
चायपान तक सीमित नशा, 
शाकाहार,
दो कमरों का किराए का महल,
कभी शानदार बस की तो कभी आरामदेह सेकंड स्लीपर में ट्रेन की, और लखनऊ में अपने घर जाकर, पुराने स्कूटर की सवारी,
अधिकतर कुली और मेट की ज़िम्मेदारी खुद सम्हाल लेने की अक्लमंदी,
सेल में खरीदे हुए डिस्काउंट वाले सामान को फ्रेश सामान के सामने तरजीह.
रेस्तरां से ज़्यादा चाट के ठेलों से प्यार,
शादी में सिले सूटों को अगले 25 साल तक आल्टर करा के और ड्राईक्लीन करा के ठाठ से इस्तेमाल करना,
श्रीमतीजी और बच्चों को सादगी की प्रतिमूर्ति बनाये रखने का आग्रह,
अल्मोड़ा में रहते हुए घर के सभी सदस्यों को प्रदूषण-मुक्त 11 नंबर की बस मुहैया करना,
इन बातों को देखकर कोई भी मानेगा कि हम तो जी, राजाओं की तरह ऐश से रहे. 
फिर भी हमको कभी किसी बात की कमी नहीं रही. 
हाँ, एक किस्सा याद आ गया - 
सिर्फ़ कच्छा पहने, चने फांकते हुए एक साहब कह रहे थे -
'
अपुन के तो बस दो ही शौक़ हैं - अच्छा खाना और अच्छा पहनना.'

शनिवार, 23 जुलाई 2016

सुरा-शक्ति

सुरा-शक्ति –
नवम्बर, 1981 में हम 6 मित्रों ने अल्मोड़ा से ट्रैकिंग करते हुए मुक्तेश्वर जाने और वहां से लौटने का प्रोग्राम बनाया. इस दल में हम 5 लगभग हम-उम्र के गुरूजी थे और हमसे कुछ बड़ी उम्र के विजिलेंस डिपार्टमेंट के एक अधिकारी सिंह साहब थे. हमारे दल में एक मैं और एक और गुरूजी चाय पीने में विश्वास करते थे किन्तु बाक़ी मित्र सुरा-पान के लिए समुद्र-मंथन करने तक का जतन करने के लिए तैयार रहते थे. खैर अच्छी बात यह थी कि उन दिनों नैनीताल और एकाद अन्य पर्यटन स्थलों को छोड़कर सर्वत्र शराबबंदी लागू थी इसलिए सबको रास्ते में थकान मिटाने  के लिए मजबूरन चाय-पान पर ही गुज़ारा करना पड़ रहा था. सुरा-पान के लिए तड़पते मित्रों का खून जलाने के लिए मैं महात्मा गाँधी बनकर रास्ते भर उन्हें ‘मद्य-निषेध’ पर लम्बा प्रवचन भी देता जा रहा था.
खैर, जैसे तैसे, 22 किलोमीटर का दुर्गम रास्ता पार करके हम मुक्तेश्वर के पी. डब्लू. डी. के डाक बंगले पहुंचे. सिंह साहब ने पहले से ही वहां हमारे लिए एक कमरा बुक करा रक्खा था, हमको उम्मीद थी कि हमको ठहरने के लिए दो और कमरे मिल जाएंगे. जाड़ों में 7500 फीट ऊंचे मुक्तेश्वर में अधिकारीगण ज़रा कम ही पधारते हैं, पर उस दिन तो वहां मेला जैसा लगा हुआ था. कोई वरिष्ठ आई. ए. एस. अधिकारी अपने दल-बल के साथ वहां आया हुआ था. सिंह साहब ने जब डाक-बंगले के केयर-टेकर हुकुम सिंह से हमारे लिए और कमरे खोलने के लिए कहा तो उसने साफ़ इंकार कर दिया. सिंह साहब के अफ़सरी रौब का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ और न ही हमारे द्वारा मोटी बक्शीश के लालच का.
खैर, तय किया गया कि पहले चाय पी जाय और फिर साथ में लाई पूड़ी-सब्ज़ी गर्म करवा कर खाई जायं. पर यहाँ भी मुश्किल आन पड़ी थी. बड़े साहब और उनके दल-बल की सेवा में डाक-बंगले का पूरा स्टाफ़ ऐसे जुटा हुआ था कि न तो कोई हमारे लिए चाय बनाने को तैयार था और न ही हमारा खाना गरम करने को. चाय की तलब ने मुझे परेशान कर रक्खा था पर मित्र थे कि थकान की दुहाई देकर आधा किलोमीटर नीचे बाज़ार चलकर चाय पीने को तैयार ही नहीं थे.
इस ग़मगीन माहौल में मुस्कुराते हुए सिंह साहब ने अपना बैग खोला और उसमें से एक चमचमाती हुई बोतल निकाली. मेरे एक और होनहार मित्र ने मेरी तरफ खी-खी करते हुए अपने बैग में से एक छोटी बोतल निकाल ली. मेरा ‘मद्य-निषेध’ विषयक प्रवचन फिर शुरू होने ही वाला था कि सिंह साहब ने अपने हाथ से मेरा मुंह बंद कर दिया और फिर मुझसे गुज़ारिश की कि मैं कुछ देर चुपचाप बैठकर नज़ारा देखूं.
सिंह साहब ने हुकुम सिंह को आवाज़ देकर बुलाया तो वो सूजा सा मुंह लेकर हमारे सामने खड़ा हो गया. पर टेबल पर दो बोतलें देखकर उसकी बुझी आँखों में चमक और चेहरे पर मुस्कराहट आ गई. वो दौड़ कर 6 गिलास ले आया. सिंह साहब ने उसे बताया कि उनके दो साथी शराब नहीं पीते हैं तो वो दो गिलास वापस ले जाने लगा पर उन्होंने उससे सिर्फ एक गिलास वापस ले जाने को कहा. अब हुकुम सिंह ने हाथ जोड़कर सिंह साहब से पूछा –
‘साहब, ये पांचवां गिलास किसके लिए?’
साहब ने प्यार से जवाब दिया –
‘तुम्हारे लिए. क्यों क्या तुम पीते नहीं हो?’
सिंह साहब का लगभग चरण-वंदन करते हुए गदगद हुकुम सिंह ने कहा –
‘हुजूर, जिस दिन पीने को नहीं मिलती, मुझे रात भर नींद नहीं आती. पर अगर इतनी मेहरबानी कर रहे हैं तो ये छठा गिलास भी यहीं रहने दीजिए. मेरा एक दोस्त भी मेरे साथ है. अगर आपकी किरपा हो जाय तो --’
सिंह साहब ने दो गिलास में माल डालकर हुकुम सिंह की ख्वाहिश पूरी कर दी.
कुछ देर बाद झूमते हुए हुकुम सिंह हम गांधीवादियों के लिए चाय तैयार करके ले आए. हमारा खाना भी चटपट गरम कर दिया गया और साथ में मटर-पनीर की सब्ज़ी भी हमको उपहार में दी गई.
सिंह साहब मुस्कुराकर मेरी तरफ देख रहे थे पर मैं बेचारा तो बगलें झाँक रहा था.
खाने-पीने के बाद जब हमारे सोने की बारी आई तो सिंह साहब ने हुकुम सिंह को फिर तलब करके पूछा –
‘हुकुम सिंह, हम 6 लोग तो एक डबल बेड पर सो नहीं पाएंगे. फ़र्श पर ही दरी वगैरा बिछाकर सो जाएंगे. तुम्हारे पास एक्स्ट्रा कम्बल तो होंगे?’
हुकुम सिंह ने दहाड़कर कहा –
‘आप राजा लोग फ़र्श पर सोयेंगे? हम क्या मर गए हैं? अभी आपके लिए दो कमरे और खोलता हूँ.’
सिंह साहब ने पूछा –
‘और तुम्हारे बड़े साहब? तुम तो कह रहे थे कि उनकी टीम के लिए बाक़ी सारे कमरे बुक हैं.’
हुकुम सिंह ने बड़े साहब को एक मोटी सी गाली दी और हम लोगों के लिए कुल तीन कमरों का इंतज़ाम कर दिया.
रात चैन से कटनी चाहिए थी पर मेरी किस्मत ऐसी कहाँ थी? कमरे में मेरे साथ सिंह साहब जो थे. घंटों तक उनकी ‘ही-ही, खी-खी’ सुननी पड़ी और अपना खून जलाना पड़ा.

मुक्तेश्वर से अल्मोड़ा लौटने पर सब कुछ बदल चुका था. मौन-व्रत धारी जैसवाल साहब नज़रें नीची किये हुए चले जा रहे थे और सिंह साहब सुरा-शक्ति पर लम्बा प्रवचन दिए जा रहे थे, दिए जा रहे थे.    

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

नयी व्याख्या

नयी व्याख्या –
‘गो हाथ में जुम्बिश नहीं, आँखों में तो दम है,
रहने दो अभी, सागरो-मीना, मेरे आगे.’
यह सब जानते हैं कि शायरे-आज़म मिर्ज़ा ग़ालिब बड़े आशिक़-मिजाज़ थे. जवानी के दिनों में एक डोमनी से उनके इश्क़ के किस्से बड़े मशहूर हैं. अपने बुढ़ापे में भी उनकी यह आशिक़-मिजाज़ी गई नहीं और मीना नाम की एक खूबसूरत लड़की से उन्हें इश्क़  हो गया और मीना भी उनके इश्क़ में दीवानी हो गई.
मिर्ज़ा ग़ालिब को अपना शागिर्द सागर भी बहुत अज़ीज़ था.
मुफ़लिसी, बुढ़ापे और बीमारी में मीना और सागर के अलावा, सभी ने मिर्ज़ा ग़ालिब का साथ छोड़ दिया, उनके हाथ पैर तक ने चलने से जवाब दे दिया, बस उनकी आँखों की रौशनी बदस्तूर क़ायम रही.
इस शेर में मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी हालत का बयान करते हुए कहते हैं कि वो इतने कमज़ोर हो गए हैं कि उनके हाथ अब कांपते तक नहीं हैं, बस आँखें ही हैं जो पहले की ही तरह देख सकती हैं.

मिर्ज़ा ग़ालिब अल्लाताला से बस यही दुआ करते हैं कि इतनी मुसीबत में भी उनका साथ न छोड़ने वाले – सागर और मीना हमेशा उनकी नज़रों के सामने रहें.                          

शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

बेटे का फ़र्ज़

बेटे का फ़र्ज़  –
लगभग साठ-बासठ साल पहले की बात है. उन दिनों मेरे पिताजी उत्तर प्रदेश के बिजनोर जिले में पोस्टेड थे. उनके साथ ही वहां कार्यरत थे, हमारे नायक, डिप्टी कलक्टर मौलाना फ़तेह अली बेग साहब. बेग साहब सबको बताया करते थे कि उनके पुरखे ईरान से आए थे और वो बेगम नूरजहाँ के खानदान से थे.
बादशाह जहाँगीर की चहेती बेगम नूरजहाँ ने हिंदुस्तान को बहुत कुछ दिया है, मसलन गुलाब के इत्र की ईजाद उन्होंने ने ही की थी, फ़ैशन डिजाइनिंग में तो आज भी उनका कोई सानी नहीं है और अपने वालिद एत्मात-उद-दौला तथा अपने शौहर बादशाह जहाँगीर के खूबसूरत मकबरे भी उन्होंने ही बनवाए थे. लेकिन इतिहास में उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने रिश्वत को ‘नज़राना’ के रूप में प्रतिष्ठित कर उसे प्रशासन और समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलाया था.
हमारे बेग साहब अपनी पुरखिन बेगम नूरजहाँ के नक्शे-क़दम पर चलकर हर एक गरज़मंद से ‘नजराना’ लेना अपना हक़ ही बल्कि अपना फ़र्ज़ समझते थे. बेग साहब ने अपना कैरियर कानूनगो से शुरू किया था. बड़े-बड़े हाकिमों की जूतियाँ उठाते हुए उन्होंने निर्बाध रूप से प्रमोशन हासिल किए और रिटायर होने से कुछ साल पहले वो डिप्टी कलक्टर के ओहदे पर पहुँच गए थे. बेग साहब ने अपने आला हाकिमों के तमाम घपलों को सफलतापूर्वक इति-सिद्धम् तक पहुँचाया था और इस बहती गंगा में निरंतर अपने भी हाथ धो-धो कर उन्होंने अपने लिए भी संपत्ति का एक पहाड़ जमा कर लिया था.
बेग साहब की संपत्ति के पहाड़ में सबसे ज्यादा कीमती थे हीरे, जवाहरात और सोने के बेशुमार गहने, इसके अलावा सौ-सौ से लेकर दस-दस के नोटों की पता नहीं कितनी गड्डियां उसमें थीं. बैंक के लाकर में गहने रखने का तब शायद ज्यादा चलन नहीं था या फिर बेग साहब को लाकर पर छापा पड़ने का डर रहता था, इसलिए वो अपनी धर्म की कमाई को अपने पलंग के नीचे, ज़ंजीरों और अलीगढ़ी तालों से बंधी एक बेहद मज़बूत तिजोरी में रखते थे और उस तिजोरी की चाबी को हमेशा घर में ही रहने वाली उनकी अस्सी साल की अम्मी अपने गले में सोने की एक मोटी सी हंसली में लटकाए रहती थीं.       
ज्यों-ज्यों बेग साहब के रिटायरमेंट के दिन नज़दीक आ रहे थे, उनके नज़राने का रेट बढ़ता जा रहा था लेकिन परेशानी की बात यह थी कि अब इस लूट में उन्होंने मिल-बाँट कर खाने की लोक-सम्मत व्यवस्था को ताक पर रखकर सारा माल खुद ही हड़पने की खतरनाक नीति अपना ली थी. कर्त्तव्य-परायण, कर्मठ अधीनस्थ कर्मचारियों और मुस्तैद पुलिस वालों को यह नई व्यवस्था बिलकुल भी रास नहीं आ रही थी. उन्होंने बेग साहब से विनम्र निवेदन किया कि वो इस सरकारी लूट में उनको भी हिस्सा देते रहें पर बेग साहब नहीं पसीजे, उलटे उन्होंने अपने अधीनस्थ कर्मचारियों, दीवानजियों, दरोगाओं और यहाँ तक कि कोतवाल साहब को भी अपनी-अपनी औक़ात में रहने की सीख भी दे डाली.
कोतवाल साहब को बेग साहब की डांट-फटकार क़तई हज़म नहीं हुई. उन्होंने शहर के सबसे नामी सेंधमार चोर को तलब किया और फिर उससे उन्होंने बेग साहब की तिजोरी से माल उड़ाने की रणनीति पर सविस्तार चर्चा की.
और फिर अनहोनी हो गई. एक रात बेग साहब के यहाँ किसी ने उनकी अम्मी के शयन कक्ष की दीवाल में सेंध मारकर एक बड़ा सा प्रवेश द्वार बना दिया था. वो भी तब जब कि उनका पूरा कुनबा घर में ही मौजूद था. बेग साहब के पूरे घर में एक अजीब सी नशीली गंध आ रही थी. उस रात घर में जो भी मौजूद था वो सूरज चढ़ने तक भी सो रहा था. बेग साहब की अम्मी के गले में तिजोरी की चाबी पहले की तरह ही पड़ी हुई थी, तिजोरी अभी भी तालों और ज़ंजीरों से जकड़ी हुई थी पर जब तिजोरी को चाबी लगा कर खोला गया तो वह पूरी तरह खाली थी.
पूरे बिजनौर में कोहराम मच गया. कोतवाल साहब अपने दल-बल के साथ मुस्तैदी से तफ्तीश में जुट गए. सबसे ख़ास बात यह थी कि चोरों ने तिजोरी के माल के अलावा घर में रक्खे कीमती से कीमती सामान को हाथ भी नहीं लगाया था. बेग साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं, उनकी बेगम साहिबा छाती पीट-पीट कर और उनकी अम्मी सर पटक-पटक कर रो रही थीं. कोतवाल साहब खुद अपनी निगरानी में चोरी हुए ज़ेवरात और नोटों के बंडलों की फेहरिस्त बनवा रहे थे. बेग साहब चोरी हुए सामान की फेहरिस्त तैयार करते वक़्त बोल कम रहे थे और अपनी बेगम साहिबा व अपनी अम्मी को चोरी हुए सामानों के बारे में बोलने से रोक ज़्यादा रहे थे. खैर चोरी हुए सामान की फेहरिस्त तैयार हुई. चालीस तोले के क़रीब सोने के ज़ेवर, दो-चार हीरे-मोती के हार, झुमके और दस हज़ार के क़रीब की नक़दी, बस इतने की ही चोरी लिखवाने  की उनकी हिम्मत हो पाई थी. बेग साहब की अम्मी चोरी हुए सामान की फेहरिस्त में चिल्ला-चिल्ला कर पता नहीं क्या-क्या जुडवाना चाह रही थीं पर बेग साहब के इशारे पर उनकी बेगम ने अम्मीजान का मुंह अपने हाथ से दबाकर उन्हें चुप होने के लिए मजबूर कर दिया.            
कोतवाल साहब ने एक कुटिल मुस्कान के साथ बेग साहब से कहा –
‘हुज़ूर आप जैसी शाही शख्सियत के यहाँ इतनी अदना सी चोरी क्या मायने रखती है. पर आप इत्मीनान रखिए दो दिन में ही चोरी किया हुआ सारा माल बरामद करके आपके सामने न रख दिया तो आप मुझे कोतवाल से हेड कांस्टेबल बनवा दीजिएगा.’
वाक़ई कोतवाल साहब ने दो दिन के अन्दर ही चोर पकड़ लिया और उससे सारा माल भी बरामद कर लिया. कोतवाली में बरामद किया हुआ सारा सामान मेजों पर सजा-सजा कर डिस्प्ले किया गया था. बेग साहब को अपने सामान की शिनाख्त करने के लिए बुलाया गया. कांपते हुए बेग साहब मेज़ों पर सजे लाखों के उस सामान को देख रहे थे जो सारा का सारा उन्हीं का था लेकिन उन्होंने चोरी हुए सामान की जो फेहरिस्त दी थी वो तो सिर्फ तीस-चालीस हज़ार के सामान की और दस हज़ार नक़दी की थी.
फेहरिस्त में लिखाया गया सारा सामान कानूनी कार्रवाही के बाद बेग साहब को सौंप दिया गया. कोतवाल साहब ने सबको बताया कि इस वारदात की रात को ही एक स्थानीय सेठ के यहाँ भी सेंध लगाकर इसी चोर के गैंग ने एक बहुत बड़ी चोरी की थी और डिप्टी साहब के चोरी हुए माल के अलावा जो भी सामान नुमाइश में लगा है, वह उसी सेठ का है. यह बात दूसरी थी कि पूरे बिजनौर में वह सेठ चोरों का लाया हुआ सोना गला कर बेचने वाला एक टुटपुंजिया सुनार  और पुलिस के दलाल के नाम से मशहूर था.  
बेग साहब को उनका माल सौंप दिया गया और नुमाइश में रक्खा हुआ बाक़ी सामान कागज़ी तौर पर उस सेठ को दे दिया गया.
फेहरिस्त के हिसाब से चोरी हुए सारे सामान को वापस पाकर भी बेग साहब के चेहरे पर मातम ही छाया हुआ था. वो मायूस और ग़मगीन होकर अपने घर लौट ही रहे थे कि कोतवाल साहब ने उनका रास्ता रोक कर कहा –
‘हुज़ूर आपकी एक ऐसी नायाब चीज़ मिली है जिसे आप चोरी हुए सामान की फेहरिस्त में शामिल करना भूल गए थे. इसके लिए तो मैं आप से इनाम लेकर रहूँगा.’
बेग साहब को हीरों का अपना बेशकीमती हार याद आ गया. उसे फिर से हासिल करने की उम्मीद में उन्होंने आज़िज़ी के साथ कोतवाल साहब का हाथ पकड़ते हुए कहा –
‘कोतवाल साहब, मैं आप को मालामाल कर दूंगा. बस मेरी वो कीमती चीज़ मुझे दिलवा दीजिए.’
कोतवाल साहब ने आवाज़ देकर एक सिपाही से उस नायाब चीज़ को लाने को कहा. कपड़े से ढकी एक बड़ी सी चीज़ को बेग साहब के सामने रक्खा गया इस बड़ी सी चीज़ देखकर बेग साहब को अपना हीरों का हार वापस मिलने की उम्मीद तो नहीं रही पर अब उन्हें यकीन हो गया कि यह उनकी रत्न-जटित सोने की सुराही होगी. उन्होंने बड़ी बेसब्री से उस चीज़ पर से कपड़ा हटाया तो देखा कि अल्यूमिनियम का एक दचका सा, बड़ा पुराना सा टोंटीदार अकबरी लोटा है.
कोतवाल साहब ने मुस्कुराते हुए कहा –

‘हुज़ूर आपकी अम्मीजान ने बताया था कि वो जिस लोटे से वज़ू करके नमाज़ पढ़ती थीं वो चोर ले गए थे. बड़ी मेहनत-मशक्कत के बाद उस कमबख्त चोर से यह लोटा बरामद हुआ है. आपकी अम्मीजान इस लोटे को वापस पाकर बहुत खुश होंगी. उन्हें मेरा सलाम कहिएगा और बताइएगा कि उनके कोतवाल बेटे ने बेटा होने का अपना फ़र्ज़ निभा दिया है.’