शुक्रवार, 29 मार्च 2019

गुरु-शिष्य संवाद




सवाल-जवाब -
गुरु जी - बच्चों ! 'सी. बी. आई.' का फ़ुल फॉर्म क्या होता है?
एक मेधावी छात्र - गुरु जी ! पौने पांच साल पहले तक इसका फ़ुल फॉर्म -
'कांग्रेस ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन' था
लेकिन फिर बदल कर -
'सेंट्रल बीजेपी इन्वेस्टीगेशन' हो गया है.
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चलो, आगे बढ़ते हैं -
गुरु जी - बिस्मार्क ने कहा था -
राजनीति में किसी भी बात पर तब तक विश्वास मत करो जब तक कि
उसका आधिकारिक रूप से खंडन न किया जाए.
एक छात्र - तो क्या सरकार के नुमाइंदे जिन-जिन आरोपों का खंडन कर रहे हैं --?
गुरु जी (छात्र को बीच में ही रोकते हुए) -
इस कथन को रहने दो. अब गांधीजी का एक कथन सुनो ---
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स्कूल इंस्पेक्शन -
स्कूल इंस्पेक्टर (विद्यार्थियों से) - बच्चों, बताओ! विधायक और सांसद में कौन बड़ा होता है?
एक विद्यार्थी - सर, विधायक से सांसद बड़ा होता है.
स्कूल इंस्पेक्टर - शाबाश ! बेटा, इसको विस्तार से समझाओ.
विद्यार्थी - सर, सांसद, विधायक को पांच जूते मार सकता है जब कि विधायक उसे सिर्फ़ थप्पड़ लगा सकता है और वो भी केवल दो !
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गुरु जी का विद्यार्थियों से एक पेचीदा प्रश्न -
'कोई एक 15 लाख, हर खाते में डालने का वादा करे,
कोई दूसरा 6000/- हर महीने खाते में डालने का वादा करे,
कोई तीसरा हरेक को एक बंगला देने का वादा करे
और
कोई चौथा उन बंगलों में एक-एक मर्सिडीज़ खड़ी करने का वादा करे ,
तो बताओ -
इनमें से किसका ख़याली पुलाव ज़्यादा स्वादिष्ट होगा?'
एक विद्यार्थी -
'गुरु जी, आपके इस सवाल का जवाब तो 23 मई को सारा देश देगा.'

रविवार, 17 मार्च 2019

क़ौमी फ़साना


सारे जहाँ में चर्चा, होता यही, हमारा.

अब बुलबुलें न दिखतीं, सहरा, वतन हमारा.

रो-रो सिसक रही हैं, इसकी हज़ारों नदियाँ,

परबत भी खौफ़ से अब, है काँपता हमारा. 

मज़हब-धरम सिखाता, आपस में, बैर रखना,

घर उनके,  हम जलाएं, वो फूंके घर,  हमारा.

हर शाख पर कुल्हाड़ा या फिर चलाया, आरा,

नादानियों से ख़ुद की, उजड़ा चमन, हमारा.

क्या बात है, जहालत, मिटती नहीं हमारी,

सदियों पिछड़ गया है, हिन्दोस्तां, हमारा.  

किस्मत ने साथ छोड़ा, रूठा ख़ुदा, हमारा,

अब फिर जनम न लें हम, इसमें कभी, दुबारा.

सारे जहाँ में चर्चा ---

मंगलवार, 12 मार्च 2019

अस्माकं विद्यालय

अस्माकं विद्यालय -
आज से 60 साल पहले पिताजी का लखनऊ से इटावा ट्रांसफ़र हुआ था. तब मेरी उम्र आठ साल की थी. लखनऊ जैसे बड़े शहर से इटावा जैसे कस्बाई जिले में जाना किसी को भी रास नहीं आ रहा था पर किया ही क्या जा सकता था !
लखनऊ में मैं, 'बॉयज़ एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज' में क्लास फ़र्स्ट से क्लास थर्ड तक पढ़ा था. हमारा यह कॉलेज, अच्छा-खासा था. हमारे टीचर्स अच्छे थे, क्लास रूम्स अच्छे थे और उनमें पड़ी लम्बी-लम्बी बेंचें, उनके सामने के डेस्क भी बहुत अच्छे थे.
हमारे लखनऊ के कॉलेज में इंग्लिश, क्लास फ़ोर्थ से पढ़ाई जाती थी इसलिए अपने राम लखनऊ प्रवास में इंग्लिश में सर्वथा पैदल ही थे.
इटावा में मुझे क्लास फ़ोर्थ में नाम लिखाना था. मेरे लिए स्कूल तलाशे गए तो पता चला कि वहां प्राइमरी क्लासेज़ के लिए कोई ढंग का कोई स्कूल ही नहीं है. लड़कियों का एक इंग्लिश स्कूल था जिसमें कुछ लड़के भी पढ़ते थे लेकिन उन में मेरी तरह का इंग्लिश में महा-पैदल कोई नहीं था. हफ़्ते भर की बेकार की क़सरत के बाद मुझे पुरबिया टोले के राजकीय आदर्श विद्यालय (मॉडल स्कूल) में ले जाया गया.
पांच-छह कमरों का छोटा सा स्कूल, छोटा सा कंपाउंड, आधे देहाती से मास्साब लोग और पोस्ट मास्टर साहब के लड़के, सुनील सचदेव के अलावा बाकी महा-देहाती विद्यार्थीगण ! मेरी तो तब जान ही निकल गयी जब यह पता चला कि मुझे दरी-टाट पर बैठना पड़ेगा. क्लास-रूम की एक मात्र कुर्सी मास्साब के लिए सुरक्षित थी.
मेरी टी. सी., मेरा क्लास थर्ड का रिज़ल्ट और फ़ीस के पैसे लेकर पिताजी का स्मार्ट चपरासी बच्चीलाल मेरे साथ राजकीय आदर्श विद्यालय गया था. पांच मिनट में ही मेरा एडमिशन हो गया और फ़ीस के नक़द 10 आने देकर बच्चीलाल, मुझ रुआंसे बालक को कक्षा चार के कक्ष में एक फटहे से टाट पर बिठाकर चल दिया. वैसे हमारे स्कूल में मासिक शुल्क - मात्र तीन पैसे था. पहली फ़ीस के 10 आने में से 8 आने तो कौशन मनी था.
मुझे ज़मीन पर बिछे टाट या दरी पर बैठने की आदत ही नहीं थी. मेरे सहपाठी मेरी दिक्क़त को देख कर ‘खी-खी’ किये जा रहे थे.
हमारे क्लास टीचर तिवारी मास्साब ने बीड़ी नंबर 207 का एक गहरा कश लगाते हुए मुझसे पूछा –
‘हाँ तो बेटा गोपेस मोहन ! तुम लखनऊ से आए हो. लखनऊ के बारे में सबको बताओ.
मैंने भरे गले से सिर्फ़ इतना कहा –
‘मेरा नाम गोपेश मोहन है, गोपेस मोहन नहीं!’
मास्साब ने जवाब दिया –
‘हाँ, हाँ, गोपेस मोहन’ ही तो कह रहा हूँ.’
इसके बाद मैंने फिर कभी तिवारी मास्साब को या अपने किसी सहपाठी को सुधारने की कोशिश नहीं की और स्कूल में सुनील सचदेव के अलावा मेरा नाम जिसने भी पुकारा तो – ‘गोपेस मोहन’ ही पुकारा.
हमारे राजकीय विद्यालय में प्राइमरी क्लास तक सभी विद्यार्थी, लिखने के लिए स्याही-कलम का प्रयोग करते थे जब कि मैं लखनऊ में लिखने के लिए सिर्फ़ पेंसिल का प्रयोग करता था. मेरा जैसा असावधान और बेतरतीब लड़का, कलम से लिखते वक़्त अपने शरीर पर, अपने कपड़ों पर, अपने बस्ते पर और अपने आसन-रूपी टाट पर ख़ूब स्याही गिरा लेता था. घर लौटने पर मुझे ख़ुद को खुरच-खुरच साफ़ करना पड़ता था और मेरे कपड़ों को साफ़ करने में धोबी को डबल मेहनत करनी पड़ती थी.
मेरे सहपाठी मुलायम सिंह यादव जैसी कनौजिया-मिश्रित ब्रज भाषा बोलते थे. एक नज़ीर पेश है –
‘जब हम कच्छा तीन पढ़त हते तो सर्मा मास्साब गणित पढ़ात्ते. 7 का पहाड़ा ना याद होये तो डंडन ते मार-मार के हमाई सगरी देह सुजाय देत्ते.’
मैं शहरी माहौल में पला हुआ, दुरुस्त क़ाफ़ और शीन वाला, बच्चन और नीरज की कविताओं का दीवाना, इन मेधावी छात्रों के बीच में ख़ुद को अभिशप्त समझने लगा था. मैं चाहता था कि मुझे लखनऊ के किसी अच्छे स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया जाए पर मेरा अंग्रेज़ी का अज्ञान तो इटावा के ही एक मात्र इंग्लिश स्कूल में भी मेरे एडमिशन में बाधक बन गया था. मजबूरन –
‘पचम पच्चे पच्चिस, छक्के तीस, सते पैंतिस, अट्ठे चालिस, नमे पैंतालिस , धम्मा पचास’ का गीत गाने में मुझे भी निष्णात होना पड़ा.
मुझे बैडमिंटन और क्रिकेट खेलना पसंद था पर हमारे स्कूल में खेलों के नाम पर ज़्यादातर कबड्डी, गिट्टी-फोड़ और गेंद-तड़ी ही खेली जाती थीं.
हमारा स्कूल, नार्मल स्कूल से अटैच्ड था. नार्मल स्कूल के प्रिंसिपल मेरी हाज़िर-जवाबी और मेरे बात करने के तरीक़े को देखकर मुझसे बहुत खुश रहते थे. बातों-बातों में प्रिंसिपल साहब को क्रिकेट में मेरी अभिरुचि के बारे में पता चला. प्रिंसिपल साहब भी मेरी तरह क्रिकेट के दीवाने थे. अपने दोस्तों के सामने मुझे बुलाकर वो भारतीय क्रिकेट खिलाडियों पर ‘जनगण मन अधिनायक जय हे’ की धुन पर मेरे बड़े भाई साहब की कविता –
‘विजय हज़ारे, वीनू मनकद, विजय मांजरेकर,
नाना जोशी, नरेंद्र तम्हाने, पौली उम्रीगर,
घोर्पदे, देसाई, गुप्ते, मनहर हार्डीकर,
गायकवाड़, बोर्डे, सुरती, नारी कांट्रेक्टर.’
सुना करते थे और मुझे दालमोठ, मिठाई भी खिलाया करते थे. प्रिंसिपल साहब की नज़रों में मेरी क़दर देखकर, हमारे स्कूल के हेड मास्टर साहब, स्कूल में होने वाले हर इंस्पेक्शन में, हर फंक्शन में, मुझे आगे कर देते थे. धीरे-धीरे मेरे सहपाठियों पर भी मेरा रौब ग़ालिब होने लगा.
कक्षा पांच में हमको टाट की जगह बैठने के लिए लकड़ी के पटरे मिल गए और उनके सामने नीची-नीची मुंशी डेस्क भी मिल गईं. और तो और, लडकियों के स्थानीय इंग्लिश स्कूल में लड़कों का प्रवेश वर्जित हो जाने के कारण चार लड़के उस स्कूल से निकल कर हमारे स्कूल में आ गए. अब मेरी कंपनी अच्छी-ख़ासी हो गयी. फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ का ये नग्मा मेरी खुशकिस्मती का बखूबी बयान कर सकता था-
‘दुःख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे, रंग जीवन में नया लायो रे'

आज अपनी नादानियों पर हंसी आती है. हमारे राजकीय आदर्श विद्यालय में कई विषयों में, पढ़ाई बहुत अच्छी होती थी. हमारे गणित, सामाजिक विज्ञान, हिंदी और ड्राइंग के मास्साब तो कमाल के थे. नार्मल स्कूल के विद्यार्थी भी हमको पढ़ाने आते थे और उन में से भी कई बहुत अच्छा पढ़ाते थे.
अर्ध-ग्रामीण स्कूलों में नितांत शहरी बच्चों की बड़ी क़द्र होती है. दो साल तक मैं अपने राजकीय आदर्श विद्यालय का सुपर हीरो रहा लेकिन क्लास फिफ्थ में अच्छी कम्पनी मिल जाने के बाद भी मेरा मन स्कूल में नहीं लगा.
मेरे दो बड़े भाई, गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, इटावा में पढ़ते थे. उनके साथ मैं कई बार उनके कॉलेज गया था. हाय ! क्या शानदार कॉलेज था ! कितनी बड़ी फ़ील्ड थी ! कितना बड़ा हॉल था ! एक गोल कमरे वाला – ‘सम्पूर्णानन्द शैक्षिक संग्रहालय’ भी था. सबसे ख़ूबसूरत बात यह थी कि सभी छात्रों के बैठने के लिए कुर्सियां थीं. और तो और, वहां छात्रों को लिखने के लिए फाउंटेन पेन का उपयोग करने की अनुमति थी.
राजकीय आदर्श विद्यालय में पढ़ते वक़्त मेरा सिर्फ़ एक सपना होता था कि मैं क्लास सिक्स्थ में गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में एडमिशन पा जाऊं. एंट्रेंस टेस्ट के लिए मैंने बाक़ायदा तैयारी की, कैपिटल और स्मॉल लेटर्स के चील-बिलौए बनाने भी सीख लिए और फिर कक्षा पांच उत्तीर्ण करके मैं गवर्नमेंट इंटर कॉलेज के एंट्रेंस टेस्ट में क्वालीफ़ाई भी कर गया. अलविदा - राजकीय आदर्श विद्यालय !
इस ‘अलविदा – राजकीय आदर्श विद्यालय’ के साथ पुराने सुपर हीरो गोपेश मोहन धरती पर उतर आए थे क्योंकि गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, इटावा के सिक्स्थ क्लास में अधिकतर लड़के उन्हीं तरह शहरी पृष्ठभूमि के थे और कुछ उनमें अंग्रेज़ीदां भी थे. वहां अपने सहपाठियों पर या अपने गुरुजन पर उनका रौब ग़ालिब होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था. अब ‘अंधों में काना राजा’ वाली सिचुएशन नहीं थी. अब काने गोपेश मोहन का मुक़ाबला करने के लिए सिर्फ़ काने ही नहीं, बल्कि दो-दो आँखों वाले भी थे. लेकिन उनके लिए नया माहौल निहायत ही ख़ुशगवार था जो कि पिछले दो साल से लगातार देखे जा रहे, उनके ‘हैप्पी एंडिंग’ वाले सपने जैसा था.