बुधवार, 30 अगस्त 2017

अंधभक्ति और अन्धविश्वास

अंधभक्ति और अन्धविश्वास –
गुरमीत राम-रहीम को दो साध्वियों के बलात्कार के आरोप में 10+10=20 वर्ष का कारावास मिला है. आज इस समाचार की ही सर्वत्र चर्चा है. सब जगह बाबा की भर्त्सना हो रही है. तमाम टीवी न्यूज़ चेनल्स उसके काले कारनामों की सिलसिलेवार पोल खोल रहे हैं. हो सकता है कि इस ढोंगी बाबा को भविष्य में दो लोगों का क़त्ल करवाने की सज़ा भी मिल जाए. पर सवाल उठता है कि हमारे समाज में क्या एक ही गुरमीत राम-रहीम है? क्या हमारे बीच एक ही आसाराम बापू है? फिर सवाल यह उठता है कि ये गुरमीत राम-रहीम, ये आसाराम बापू कैसे लाखों-करोड़ों श्रद्धालुओं का दिल जीतने में कामयाब हो जाते हैं? कैसे बड़ी-बड़ी हस्तियाँ इनके चरण पखार कर खुद को धन्य मानती हैं? कैसे कोई भी राजनीतिक दल, कोई भी नेता इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता?
आप इनके प्रवचन सुनिए. कोई हाईस्कूल पास बच्चा इनसे अच्छी बातें कर सकता है. आप निर्मल बाबा को सुनिए जो आपके मोजों का रंग बदलवा कर आपकी बिगड़ी किस्मत संवार सकता है.
हम नाचती मटकती, भड़कीली पोशाकों में सजी और चालू फ़िल्मी गानों पर अश्लील मुद्राओं के साथ थिरकती राधा माँ को अपनी आराध्या बनाने में गर्व का अनुभव करते हैं.
घर का मुखिया अगर किसी ढोंगी बाबा अथवा प्रपंची साध्वी की शरण में जाता है तो उसका पूरा परिवार इच्छा से या अनिच्छा से उसी की तरह गुमराह हो जाता है. हज़ारों भक्त बाबा जी के आश्रम में, उनके गुरुकुल में अपने अबोध बेटे-बेटियों को आँख मूंदकर भेज देते हैं. फिर उनको होश आता है पर कब? आम तौर पर तब जब कि उनके बेटे की बाबाजी के गुरुकुल में रहस्यमय ढंग से मृत्यु हो जाती है या उनकी साध्वी बनी बेटी का बाबा जी के आश्रम में बलात्कार हो जाता है. अपराधी बाबाजियों के साथ क्या ऐसे अंधभक्त माता-पिता को उल्टा लटका कर कोड़े मारना ज़रुरी नहीं है?
तंत्र-मन्त्र में हमारा अटूट विश्वास हमारा बेड़ा गर्क करने में सदैव सफल रहा है और चमत्कार में हमारी आस्था हमको डुबाने में सदा सहायक रही है. जब ढोंगी बाबा और साध्वियां अपनी तांत्रिक शक्तियों का दावा करते हैं तो उनका कोई भक्त कभी उनसे उसका प्रमाण नहीं मांगता. सिद्धि प्राप्त करने के लिए भक्तगण अपनी संतानों को भी दांव पर लगाने के लिए तैयार रहते हैं. ये बाबा और ये साध्वियां अपने क्रियाकलापों पर रहस्य का एक ऐसा आवरण आच्छादित किए रहते/रहती हैं कि भक्त उनकी थाह कभी पा ही नहीं सकता और फिर मन्त्र-मुग्ध हो वह अपने आराध्य/आराध्या के इशारे पर कैसा भी नृत्य और कैसा भी कुकृत्य करने के लिए तैयार हो जाता है.
बाबाओं और महंतों के अखाड़े, दरवेशों की खानकाहें प्रायः अनाचार के गढ़ होते हैं और यह धार्मिक विकृति आज से नहीं बल्कि सदियों से समाज में अंधकार फैलाती आ रही है.
आज अगर स्वामी विवेकानंद होते तो उनके अनुयायियों की संख्या निश्चित रूप से गुरमीत राम-रहीम के अनुयायियों से कम होती.
1974 में जे. पी. की सम्पूर्ण क्रान्ति के आवाहन के समय जय गुरुदेव लखनऊ विश्वविद्यालय में भाषण देने आए थे. जय गुरुदेव ने देश की सभी समस्यायों का निवारण करने के लिए साधुओं की सरकार बनाने की पेशकश की थी. मूर्खतापूर्ण बातों से हम सबको बोर करने वाले इन बाबाजी के आज भी लगभग एक करोड़ अनुयायी हैं और मथुरा के निकट ताजमहल को टक्कर देने वाला इनका भव्य मंदिर है.
दलित, खासकर अशिक्षित वर्ग को अब कबीर जैसा सच्ची राह दिखाने वाला सतगुरु नहीं चाहिए और न ही आज उन्हें जोतिबा फुले जैसा सुधारक चाहिए और न डॉक्टर अम्बेडकर जैसा बुद्धिजीवी मसीहा चाहिए. उन्हें बाबा राम-रहीम या जय गुरुदेव, रामपाल जैसे अपनी ही जैसी पिछड़ी मानसिकता के भटकाने वाले और झूठे सब्ज़-बाग़ दिखाने वाले पथ-प्रदर्शक अधिक आकर्षित करते हैं.
वैसे हम तथाकथित बुद्धिजीवी भी अन्धविश्वास में कम पढ़े-लिखों से पीछे नहीं होते. कितने बुद्धिजीवियों के घरों में आराध्य-देव के चित्र अथवा मूर्ति पर भभूत आने के किस्से आप सबने सुने होंगे.
आप सबने उन केन्द्रीय मंत्री जी का किस्सा तो सुना ही होगा जिन्होंने एक बाबाजी के सपने के आधार पर गड़े खज़ाने को निकालने के लिए सरकार के करोड़ों रूपये खुदाई में खर्च करवा दिए थे.
पुराने ज़माने में धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के, चंद्रा स्वामी के और अब बाबा रामदेव के सरकारी प्रभाव से तो हम सब अवगत हैं ही.
अन्धविश्वास पर प्रहार करने की हिम्मत जो करता है, प्रायः उसका हशर डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर सा होता है. पर आज हमको समाज में व्याप्त अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए सैकड़ों डॉक्टर दाभोलकरों की आवश्यकता है.
हम कब सुधरेंगे? कब हम दर्शन और विज्ञान की पुस्तकों को तिलिस्म और तंत्र-मन्त्र की पुस्तकों से अधिक महत्ता देंगे? कब हम टीवी चेनल्स पर भूत-प्रेत की कहानियां देखना बंद करेंगे? कब हम इन बाबाओं की, इन साध्वियों की और इन दरवेशों की अरबों-खरबों की कमाई करने वाली दुकानों का बहिष्कार करेंगे? कब हम इनके भू-माफिया रूप की पोल खोलेंगे? कब हम इनके अनाचार के अड्डों को तहस-नहस करेंगे?
आस्था भटकाने के लिए नहीं होती. धर्म हमको कुमार्ग की ओर अग्रसर नहीं करता और सतगुरु हमको अन्धविश्वासी नहीं बनाता, हमारी इंसानियत को ख़त्म कर हमको अपनी अनुगामी भेड़ नहीं बनाता. पर हम भटके हुओं को समझाए कौन?
खैर जब तक हम भटकते रहते हैं तब तक हमको दर्जनों बाबा राम-रहीम के अवतरण के लिए तैयार रहना होगा.

मंगलवार, 8 अगस्त 2017

वसीयत

आज ही के दिन 75 साल पहले बॉम्बे जिमखाना मैदान (आज का आज़ाद मैदान) में एक आमसभा में महात्मा गाँधी तथा देश के अनेक शीर्षस्थ नेताओं के समक्ष अगले दिन अर्थात 9 अगस्त से 'भारत छोड़ो आन्दोलन' प्रारंभ किए जाने की घोषणा की गयी थी. 8 अगस्त की रात्रि को ही प्रमुख नेताओं के बंदी बना लिए जाने के कारण आन्दोलन का नेतृत्व मुख्यतः नौजवानों के हाथों में आ गया था. इसी पृष्ठभूमि पर मैंने अपनी कहानी 'वसीयत' की रचना की है.
वसीयत
सितम्बर, 1942 की एक शाम का वाक़या (घटना) था. शेख कुर्बान अली ने अपनी हवेली में कोतवाल हरकिशन लाल की बड़ी आवभगत की और उनको विदा करते वक़्त उनकी जेब में चुपके से एक थैली भी सरका दी. शेख साहब की हवेली से वैसे भी कोई सरकारी मुलाज़िम (कर्मचारी) कभी खाली हाथ नहीं जाता था पर आज कुछ ख़ास ही बात थी. कोतवाल साहब की रुखसती (विदाई) के बाद से शेख साहब को उदासी और फ़िक्र ने घेर लिया था. कोतवाल साहब ने उन्हें ऐसी ख़ुफ़िया (गुप्त) खबर सुनाई थी कि उनके होश फ़ाख्ता हो गए थे.
आला अंग्रेज़ अफ़सरों (बड़े-बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों) के साथ रोज़ाना उठने-बैठने वाले शेख साहब का सरकार में बड़ा दबदबा था. अंग्रेज़ हुकूमत उनकी वफ़ादारी और उनकी बर्तानिया सरकार को की गयी खिदमत से इतनी खुश थी कि इस साल उन्हें ‘नाईटहुड’ यानी कि ‘सर’ का ख़िताब देने की सोच रही थी. ये खबर उन्हें खुद यूनाइटेड प्रोविन्सेज़ के गवर्नर मॉरिस जी. हेलेट साहब ने सुनाई थी.
इधर शेख साहब की बरसों की मुराद पूरी होने ही वाली थी और उधर उनके साहबज़ादे की कारस्तानी उनके अरमान मिटटी में मिलाने पर आमादा थी. कोतवाल साहब खबर लाए थे कि शेख साहब के साहबज़ादे ज़फर अली बागी होकर लखनऊ में ‘क्विट इंडिया मूवमेंट’ की अगवाई करेंगे और सरकार उनको और उनके तमाम गुमराह (पथ-भ्रष्ट) साथियों की इस बागी हरक़त को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी.
शेख साहब को अंग्रेज़ हुकूमत की वफ़ादारी करने की सीख अपने वालिद, दादा और परदादा से मिली थी. अपनी जान को ख़तरे में डालकर 1857 के ग़दर (विद्रोह) में उनके पुरखों ने अंग्रेज़ों के बीबी, बच्चों को अपने यहाँ पनाह (शरण) दी थी. बगावत को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने उनके पुरखों पर इनामात और जागीर की झड़ी लगा दी थी. शेख साहब इस मेहरबानी के लिए हमेशा अंग्रेजों के शुक्रगुज़ार (कृतज्ञ) रहते थे और वो अंग्रेजों की ख़िदमत (सेवा) करने का कोई भी मौक़ा अपने हाथ से जाने नहीं देते थे. उन्होंने फ़र्स्ट वर्ड वॉर और फिर सेकंड वर्ड वॉर में भी वॉर-फ़ण्ड में लाखों रुपयों का चंदा दिया था और अपने जागीर के तमाम नौजवानों को फ़ौज में भर्ती भी करवाया था.
अपने बेटे ज़फर अली की इस गुस्ताख़ हरक़त ने उनका कलेजा चीर कर रख दिया था –
‘भला अंग्रेज़ हुकूमत उस शख्स को ‘सर’ का ख़िताब कैसे दे सकती थी जिसका कि ख़ुद का बेटा उस सरफिरे गांधी का चेला हो?’
‘ऐसे बागी के हिस्से में तो आएंगी पुलिस की लाठियां, गोलियां या जेल और उसके बाप के हिस्से में आएंगी ज़िल्लत (अपमान) और जग-हंसाई.’
क्या-क्या अरमान लेकर उन्होंने अपने खानदान के पहले ग्रेजुएट इस लड़के को लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम. ए. इंग्लिश में दाखिला दिलवाया था? इस ज़हीन (मेधावी) लड़के को आई. सी. एस. अफ़सर (इंडियन सिविल सर्विस का अधिकारी) बनने से कोई रोक नहीं सकता था पर अब खुद उसकी अपनी बेवकूफ़ी उसकी किस्मत पर ग्रहण बनकर छा गयी थी. साहबज़ादे ने अपने तमाम विलायती सूट अपने नौकरों में बाँट दिए थे और खुद खद्दर के मोटे, खुरदरे कपड़े पहनना शुरू कर दिया था. इतना ही नहीं, स्वदेशी के चक्कर में उन्होंने खुद चरखे पर सूत कातना भी सीख लिया था. चलो शेख साहब साहबज़ादे की ऐसी बेजा (अनुचित) हरक़तें भी बर्दाश्त कर लेते पर उनकी बागी शायरी (विद्रोही कविता) तो वो क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. साहबज़ादे की गज़लों में, उनकी नज़्मों में कभी ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने की बात होती थी तो कभी स्वदेशी और आज़ादी की बात होती थी. पता नहीं उनके जैसे वफ़ादार के घर में इस दूसरे रामप्रसाद बिस्मिल ने कैसे जनम ले लिया था?
शेख साहब ने नौकर भेजकर ज़फर अली को अपने कमरे में तलब किया. ज़फर अली हाज़िर हुआ तो शेख साहब ने उस से पूछा –
‘क्यों जनाब ! सुना है कि कल आप लखनऊ यूनिवर्सिटी से अपने हाथों में तिरंगा लेकर असेंबली हाउस तक जाने वाले हैं?’
ज़फर अली ने जवाब दिया –
‘जी अब्बा हुज़ूर, आपने सही सुना है. कल के जुलूस में मैं ही तिरंगा लेकर सबसे आगे रहूँगा.’
शेख साहब ने फिर सवाल किया –
‘सुनते हैं अंग्रेज़ हुकूमत की आने वाली मौत पर आपने एक मर्सिया (मृत्यु पर कहा जाने वाला शोक गीत) भी लिखा है?’
ज़फर अली ने जोश के साथ कहा –
‘मैं इस मर्सिये को गाते हुए ही जुलूस में निकलूंगा और मेरे साथ मेरे तमाम साथी भी इसको गाएंगे.’
शेख साहब ने गुस्से से कहा –
‘तुम्हें अपना बेटा कहने में मुझको शर्म आती है. अपनी इन बेहूदा हरक़तों के बाद तुम क्या आई. सी. एस. में सेलेक्ट हो पाओगे? क्या तुम्हारी बगावत के बाद तुम्हारे वालिद को कोई सरकार ‘सर’ का ख़िताब देगी?’
ज़फर अली ने जवाब दिया –
‘अब्बा हुज़ूर ! आई. सी. एस. बनकर अपने ज़मीर को बेचने वालों में मेरा शुमार कभी मत कीजिएगा. और रही आपको ‘सर’ का ख़िताब देने की बात तो आप गुलामी के इस ताज को पहनकर कुछ हासिल तो क्या करेंगे, अलबत्ता लाखों हिन्दुस्तानियों की नफ़रत के हक़दार ज़रूर बन जाएंगे.’
शेख साहब गुस्से से तमतमा कर बोले –
‘तुम्हारा लीडर गाँधी बैरिस्टरी छोड़कर सत्याग्रही बन गया और अब तुम अपनी तालीम छोड़कर स्वराजी बन गए हो. गाँधी तो बूढ़ा हो गया है पर क्या तुम जवानी में ही सठिया गए हो?’
ज़फर अली चहचहा कर बोला –
‘अब्बा हुज़ूर ! आपने महात्मा जी के साथ मेरा नाम जोड़कर मेरा रुतबा बढ़ा दिया. दुआ कीजिए कि हमारा कल का जुलूस ब्रिटिश हुकूमत के ताबूत में आखरी कील ठोकने में कामयाब हो.’
शेख साहब ने ज़फर अली को समझाते हुए कहा –
‘साहबजादे ! हिंदुस्तान में बर्तानिया हुकूमत (ब्रिटिश शासन) का तख्ता पलटने की हर कोशिश नाकाम रही है और आगे भी रहेगी. इस वक़्त दूसरी आलमी जंग (द्वितीय विश्व-युद्ध) चल रही है. हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही के खिलाफ़ जंग में हमको अंग्रेजों का साथ देना चाहिए. जैसे ही जंग ख़त्म होगी, तो हम हिन्दुस्तानियों को हमारी सरकार तमाम सहूलियत (सुविधाएँ) और हुकूक (अधिकार) खुद ही दे देगी.’
ज़फर अली ने मुस्कुराकर पूछा –
‘क्या वैसी ही सहूलियतें और हुकूक जैसे कि पहली आलमी जंग के बाद हमको जलियाँ वाला बाग़ में दिए गए थे या फिर हाल ही में क्रिप्स साहब (मार्च, 1942 का खोखले सुधारों का ‘क्रिप्स प्रस्ताव’ जिसको कि सभी भारतीय राजनीतिक दलों ने खारिज कर दिया था) दे रहे थे?’
शेख साहब के पास ज़फर अली के इस सवाल का तो कोई जवाब नहीं था पर फिर भी वो अपनी पुरानी ज़िद पर ही अड़े रहे. उन्होंने उसे अपना फ़ैसला सुनाया –
‘तुम अगर कल के जुलूस की लीडरी करोगे तो मेरी जायदाद, मेरी जागीर, सबसे बेदख़ल कर दिए जाओगे.’
ज़फर अली ने इस फ़ैसले के लिए अपने अब्बा हुज़ूर का शुक्रिया अदा किया और फिर उनसे रुखसती की इजाज़त मांग ली.
अगली सुबह शेख साहब ने अपने बेटे को फिर से समझाने की कोशिश की. उन्होंने उसे लालच दिया कि वो आला अंग्रेज़ अफ़सरों (बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों) से उसकी सिफ़ारिश कर उसे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनवा देंगे पर बेटा था कि अपनी स्वराजी ज़िद पर ही अड़ा रहा. शेख साहब ने एक बार फिर उसे जायदाद से बेदख़ल करने की धमकी दी तो वो बोला –
‘अब्बा हुज़ूर ! आप मेरी मानें तो अपनी सारी जागीर मुझे नहीं, बल्कि महात्मा जी को दान में दे दें. और हाँ, आप मुझे अपनी वसीयत में कुछ दें या न दें पर मैं अपनी ज़िन्दगी भर की कमाई यानी अपनी पूरी इन्क़लाबी शायरी आपके नाम कर के ही इस दुनिया से रुखसती करूंगा.’
शेख साहब इस बात को सुनकर गुस्से से आगबबूला होना चाहते थे पर पता नहीं क्यों उनकी आँखें भर आईं और अचानक ही अपने गुस्ताख बेटे पर उन्हें प्यार उमड़ पड़ा.
‘खुदा तुम्हें हर बला से महफूज़ (भगवान तुम्हें हर मुसीबत से सुरक्षित रक्खे) रक्खे’,
यह कहकर उन्होंने अपने बेटे को गले लगाकर उसे जुलूस के लिए रुखसत किया.
ज़फर अली ने अपने अब्बा से विदा ली. अपनी हवेली ने निकलते हुए वो शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की पसंदीदा नज़्म गुनगुना रहा था –
‘सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है, देखना है, ज़ोर कितना, बाज़ुए क़ातिल में है.’
लखनऊ यूनिवर्सिटी का टेनिस ग्राउंड आन्दोलनकारी छात्रों से भरा हुआ था. दसियों तिरंगे आसमान में लहरा रहे थे पर ज़फ़र अली के हाथ का तिरंगा उन में सबसे ऊंचा था. जुलूस असेम्बली हाउस की तरफ़ बढ़ा. ज़फर अली अपना ही एक क़लाम गा रहा था –
‘ज़ुल्म की हर इंतिहा इक हौसला बन जाएगी, और नाकामी मुझे, मंजिल तलक पहुंचाएगी,
क्या हुआ जो हुक्मरां, छलनी करें सीना मेरा, ये शहादत कौम को, जीना सिखाती जाएगी.’
(हर बार अत्याचार की अधिकता हमारे साहस का कारण बनेगी और असफलता हमको हमारे लक्ष्य तक पहुंचाएगी. क्या हुआ यदि शासकगण गोलियों से मेरा सीना छलनी कर दें? मेरा बलिदान देशवासियों को सच्चे अर्थों में जीना सिखाता जाएगा.)
‘भारत छोड़ो’, ‘क्विट इंडिया’ और ‘करो या मरो’ के नारों से पूरा लखनऊ गूँज रहा था. और मुस्तैद पुलिस चुप होकर जुलूस को असेंबली हाउस तक बढ़ने दे रही थी पर जैसे ही जुलूस अपनी मंजिल के करीब पहुंचा, पुलिस ने उसको रोकने कोशिश में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया. पर आज़ादी के दीवाने कहाँ रुकने वाले थे? लाठियों की बौछार सहते हुए आन्दोलनकारी बढ़ते रहे. अंधाधुंध लाठियां खाते हुए भी जब आन्दोलनकारी रुके नहीं तो वार्निंग के तौर पर पुलिस का हवाई फायर भी हुआ पर उसका भी कोई असर नहीं हुआ. पुलिस की लाठियों की चोट से ज़ख़्मी ज़फर अली हाथ में तिरंगा लेकर असेम्बली हाउस की तरफ़ बढ़ता रहा, बढ़ता रहा. फिर अचानक ही – ‘फ़ायर’ की गर्जना हुई और पुलिस की पहली गोली ज़फर अली के सीने के पार निकल गयी.
ज़फर अली ज़मीन पर गिर पड़ा पर पाक (पवित्र) तिरंगे को उसने फिर भी अपने हाथ से गिरने नहीं दिया.
उस दिन तो पुलिस की फ़ायरिंग के बाद जुलूस तितर-बितर हो गया. पर अगले दिन फिर लखनऊ यूनिवर्सिटी से असेंबली हाउस के लिए एक और जुलूस निकला. इस जुलूस की मंज़िल असेंबली हाउस नहीं, बल्कि कर्बला (कब्रगाह) थी. यह जुलूस कल वाले जुलूस से बिलकुल अलग था, इसके आगे भी ज़फर अली था और उसका तिरंगा भी. पर इस बार ज़फर अली तिरंगा अपने हाथ में थामे नहीं था बल्कि वो उसमें उसमें खुद लिपटा हुआ था और उसके जनाज़े में उसको कन्धा देने वाले शेख कुर्बान अली जुलूस की अगवाई करते हुए शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और अपने बेटे की पसंदीदा नज़्म गा रहे थे -
‘सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है, देखना है, ज़ोर कितना, बाज़ुए क़ातिल में है.’
शेख कुर्बान अली का सर आज फ़ख्र से ऊंचा हो गया था. उनके बेटे ने अपनी वसीयत में अपना बेशकीमती इन्क़लाबी क़लाम देकर उन्हें दुनिया का सबसे अमीर इन्सान बना दिया था और अपनी शहादत से उसने उन्हें ‘सर’ से कहीं ऊंचा ख़िताब दिलवा दिया था. अब वो शम्मा-ए- आज़ादी पर मर-मिटने वाले परवाने (स्वतंत्रता रुपी ज्योति पर मर-मिटने वाले शलभ), शहीद ज़फर अली के वालिद थे.