सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

एंड डाटर्स

एंड डाटर्स -
मेरी छोटी बेटी रागिनी ने आमिर खान का 'गुरदीप सिंह एंड डाटर्स' वाला वीडियो पोस्ट किया है और साथ में एक रोचक प्रसंग का उल्लेख भी किया है.
मेरा एक शोध छात्र था. इंग्लिश में उसका हाथ ज़बर्दस्त तरीक़े से तंग था पर वह इस म्लेच्छ भाषा का अभिनव प्रयोग अवश्य करता था. उसने मुझे नव-वर्ष की शुभकामनाओं वाला एक कार्ड भेजा. उसमें लिखा था -
'मिस्टर एंड मिसेज़ जैसवाल सर एंड संस'
मैंने भोलेपन से पूछा -
'बालक, तुझे पता है कि हमारी तो बस दो बेटियां हैं फिर तूने ये 'एंड संस' क्यों लिखा है?'
बालक ने जवाब दिया -
'गुरु जी आपने दुकानों पर देखा होगा - 'रामप्रसाद एंड संस' ,या 'काशीनाथ एंड संस'. बस मैंने भी वैसा ही लिख दिया है.'
हमारे घर में इस प्रसंग को चुटकुले के रूप में सुनाया जाता है.
पर रागिनी ने इस वीडियो को भेजकर यह आशा जताई है कि अब दुकानों या कार्ड्स पर 'एंड डाटर्स' अंकित करने में किसी को परेशानी नहीं होगी.
मेरी बेटियां, गीतिका और रागिनी दोनों मेरी सिर्फ़ सलाहकार ही नहीं हैं बल्कि मेरे सारे तकनीकी कामों में मेरी गुरु हैं. मेरे ब्लॉग को सम्हालना, मेरी पोस्ट पर फोटो डालना, इन्टरनेट पर उपलब्ध कोई जानकारी खोजना, हर प्रकार की ऑन लाइन बुकिंग आदि सारे दुष्कर कार्य मेरी बेटियां ही सम्हालती हैं. हमारी यूरोप यात्रा में भी वो दोनों हमारी एब्सेंटी गाइड की सफल भूमिका निभाती रहीं.
एक मज़ेदार बात बताऊँ -
नुझे मेट्रो के एस्कलेटर्स पर चढ़ना भी मेरी दोनों बेटियों ने सिखाया है.
आज मेरा वह अंग्रेज़ीदां शोध-छात्र अंतर्ध्यान हो गया है पर अब अगर वह कभी मुझे नव-वर्ष की बधाई का कार्ड देगा तो मैं उस से यह लिखने को कहूँगा -
'गीतिका, रागिनी एंड देयर पेरेंट्स.' .

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

फ़िराक गोरखपुरी से क्षमायाचना के साथ

चारण, भाट, मुसाहिब, चाटुकार, दरबारी आदि आज वीर गाथा काल और रीति काल से हज़ारों गुने हैं किन्तु हमारे काल को साहित्य का आधुनिक काल क्यों कहा जाता है?
फ़िराक गोरखपुरी ने कहा है -
गरज़ कि काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त,
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में.
देश के सभी होनहार चारणों, भाटों, मुसाहिबों और दरबारियों को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के लिए मैंने फ़िराक के इस शेर का नवीनीकरण किया है-
गरज़ कि काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त,
वो तलुए चाट के गुज़रे, कि दुम हिलाने में.

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

गुरुजी की व्यस्तता



गुरुजी की व्यस्तता –
अल्मोड़ा में पढ़ाते हुए भी मेरा दिल हमेशा लखनऊ में ही रहा करता था. माँ-पिताजी के साथ रहने का कोई मौक़ा मैं अपने हाथ से जाने नहीं देता था. भला हो इन विश्वविद्यालयों का जहाँ और कोई सुविधा हो न हो पर छुट्टियाँ बे-भाव मिला करती हैं. 1993 में पिताजी के स्वर्गवास से पहले हमारी सारी छुट्टियाँ लखनऊ में ही बीता करती थीं. लखनऊ के घर के सारे बड़े कामों की ज़िम्मेदारी मैंने ओढ़ रक्खी थी.
मेरा एक भक्त किस्म का छात्र था. वह हेड कांस्टेबल था और पुलिस लाइन में नियुक्त था, साथ ही साथ इतिहास में व्यक्तिगत छात्र के रूप में वह एम. ए. भी कर रहा था. अक्सर अपनी शंकाओं के समाधान के लिए वह मेरे पास आ जाया करता था पर बार-बार मेरे लखनऊ जाने से उसके अध्ययन में बाधा पड़ जाती थी. एक दिन उसने मुझसे पूछा –
‘गुरु जी ! आपकी छुट्टियों का कोई हिसाब है?’
मैंने उसे जवाब देने के बजाय एक सवाल दाग दिया?
‘ये बता, तेरी ऊपरी आमदनी का कोई हिसाब है?’
उसने शरमाते हुए जवाब दिया – ‘मेरी ऊपरी आमदनी का हिसाब तो सिर्फ़ भगवान जी के पास होगा गुरु जी. ! ’
अब मैंने अपना सीना फुलाकर उसके सवाल का जवाब दिया – ‘मेरी जायज़, हड़ताली और फ़्रेंच, इन सभी छुट्टियों का हिसाब भी भगवान जी ही रखते हैं.’
खैर, यह तो अल्मोड़ा का किस्सा हुआ, अब लखनऊ के प्रवास की बात पर लौटता हूँ.
1989-90 की बात थी. शरदावकाश और इलेक्शन की छुट्टियाँ मिलाकर लगभग 70 दिन की हमारी छुट्टियाँ थीं. आदतन हम सपरिवार लखनऊ पहुँच गए. हमारी माँ को घर के काम से पूरी और हमारी श्रीमती जी को आधी छुट्टी चाहिए थी इसलिए घर का काम करने के लिए एक नौकर का इंतजाम किया गया. वो कोई बीस-बाईस साल का लड़का होगा, नाम था भोला.
भोला और मैं दोनों ही घर के काम में जुट गए. घर में तीन साल से पुताई नहीं हुई थी इसलिए तुरंत पुताई वाले आ गए. पुताई से पहले घर की मरम्मत भी होनी थी. मिस्त्रियों, पेंटरों द्वारा बताया गया सारा सामान आ गया फिर भी रोज़ाना वो मुझे किसी न किसी सामान के लिए बाज़ार दौड़ाते ही रहते थे. वैसे बाज़ार के चक्कर लगाने में परेशानी किसे थी? सब्ज़ी-फल लाने के लिए अलग से चक्कर भी तो नहीं लगाने पड़ते थे.
एक दिन माँ ने भोला से पूछा – ‘क्यों रे भोला, तेरी शादी हो गयी है क्या?’
भोला ने जवाब दिया – ‘का बात करत हो माता राम ! हमरे दुई ठो बच्चा हैं. बिटिया चार साल की है और बिटवा साल भरे का. ’
माता राम बोलीं –
‘तू खुद अभी बच्चा है और तेरे दो बच्चे हो गए? पहले तू अपने पैरों पर खड़ा हो जाता, फिर शादी करता, बच्चे पैदा करता.’
भोला नाम का ही भोला था पर था बड़ा सयाना. उसने माता राम के इस सवाल पर एक करारा जवाब दाग दिया –
‘माता राम ! ई बात आपको भैयाजी को भी समझाय का चही. हम तो फिरऊ कुछ कमाय लेत हैं पर भैया जी तो घर में ही पड़े-पड़े पुताई-सफाई कराय देत हैं, सौदा-सुल्फा लाय देत हैं, कुछ कमाते-धमाते हैं नाहीं, फिरऊ उनकी सादी भी आप कराय दियो हो और उनकी दुई-दुई बिटियाँ भी हुई गईं हैं.’
भोलेनाथ का जवाब सुनकर माता राम तो चीमटा लेकर उसके पीछे दौड़ पडीं पर मैं और पिताजी हंसने लगे.
पिताजी ने अपनी हंसी रोक कर मुझसे कहा –
‘कुछ तो शर्म करो बरखुरदार ! आगे से जब लम्बी छुट्टियाँ हुआ करें तो कुछ दिन लखनऊ के बाहर भी बिता लिया करो.’           

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

शुभाशीर्वाद

शुभाशीर्वाद -
अपने व्यंग्य-वाण के लिए प्रसिद्द, स्वर्गीय प्रतापनारायण मिश्र के आशीर्वचन याद आ गए और एक किस्सा भी -
एक पंडितजी रास्ते में जा रहे थे, उनके पीछे-पीछे शरारती लड़कों की एक टोली चल रही थी जिसमें से कोई न कोई उनके सर पर पीछे से चपत लगाता जा रहा था या उनकी चुटिया खींच रहा था. बेचारे पंडित जी फिर भी चुपचाप चले जा रहे थे. फिर अचानक वो लड़के उनके सामने आकर बोले -
'पंडित जी, पंडित जी, देओ असीस.'
पंडित जी ने तुरंत आशीर्वाद दिया -
'खुसी रहो जजमान, हिये की दोनों फूटें,
घुटनों के बल गिरो, दांत बत्तीसों टूटें.'
हमको पीछे से चपतियाने वाले, हमारी पीठ में छुरा घोंपने वाले और फिर हमारे सामने आकर हमसे वोट मांगने वाले सभी प्रत्याशियों को हमारा ऐसा ही आशीर्वाद.

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

मतदान के बाद



मतदान के बाद -
जो बीत गई सो बात गई
अगले चुनाव तक बात गयी
जिनकी आँखों का तारा था
जिनको तू बेहद प्यारा था
जिनका तू एक सहारा था
सब तुझे छोड़ कर चले गए
तुझे बीच भंवर में छोड़ गए
तू डूबे या फिर तर जाए
तू स्वर्ग पाय या नर्क जाय
कुछ फ़र्क नहीं पड़ता उनको
अब फिक्र देश की है उनको
तू निष्ठुरता के गीत सुना
तू हरजाई कह शोर मचा
वो कहाँ पलटने वाले हैं
अगले चुनाव तक हे मूरख
वो नहीं लौटने वाले हैं
जो बीत गई सो बात गई
अगले चुनाव तक बात गयी

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

तंज़ के बादशाह अकबर इलाहाबादी

तंज़ के बादशाह अकबर इलाहाबादी  –
अकबर इलाहाबादी हमारे जैसे लाखों-करोड़ों लोगों के सबसे प्रिय शायर हैं. उनकी व्यंग्य रचनाओं ने न जाने कितने कवि और लेखकों को तंज़ की दुनिया में उतरने की प्रेरणा दी होगी. अकबर इलाहाबादी के अशआर ऐसे होते थे कि जिस शख्स को लेकर वो तंज़ (व्यंग्य) कसते थे वो भी उन्हें पढ़कर या सुनकर वाह-वाह कर उठता था और उनका मुरीद बन जाता था.
मेट्रिक पास, अट्ठारह साल का नौजवान अकबर हुसेन रिज़वी (बाद में अकबर इलाहाबादी) अर्ज़ी-नवीस की नौकरी की तलाश में अपनी अर्ज़ी लेकर कलक्टर साहब के पास उनके किसी दोस्त का सिफ़ारिशी ख़त लेकर गया. कलक्टर साहब ने उसकी अर्ज़ी और अपने दोस्त का ख़त लेकर अपने कोट की जेब में रखकर उसे एक हफ़्ते बाद मिलने के लिए कहा. एक हफ़्ते बाद जब अकबर हुसेन ने पहुंचकर कलक्टर साहब को सलाम किया तो वो उसे देखकर बोले –
‘तुम्हारी अर्ज़ी मैंने कोट की जेब में तो रक्खी थी पर वो कहीं गुम हो गयी. ऐसा करो, तुम मुझे दूसरी अर्ज़ी लिखकर दे दो.’
अगले दिन अकबर हुसेन अख़बार के पन्ने की साइज़ की अर्ज़ी लिखकर कलक्टर साहब के पास पहुंचा. कलक्टर साहब ने हैरानी और नाराज़ी के स्वर में पूछा – ‘ये क्या है?’
अकबर हुसेन ने बड़े अदब से जवाब दिया – ‘हुज़ूर, ये अर्ज़ी-नवीस की नौकरी के लिए मेरी अर्ज़ी है. आपकी जेब में यह गुम न हो जाय इसलिए इसको इतने बड़े कागज़ पर लिखकर लाया हूँ.’
कलक्टर साहब अकबर हुसेन के जवाब से इतने खुश हुए कि उन्होंने उसे फ़ौरन अर्ज़ी-नवीस की नौकरी दे दी. बाद में इस नौजवान ने नौकरी करते हुए अपनी तालीम जारी रक्खी और तरक्की के बाद तरक्की करते हुए वह सेशन जज के ओहदे तक पहुंचा.
आइए सबसे पहले उनके राजनीतिक व्यंग्य की धार परखी जाय.
1882 में लार्ड रिपन के शासन काल में पहली बार जनता द्वारा चुने हुए भारतीय सदस्यों को नगर-पालिकाओं और जिला-परिषदों के स्तर पर शासन सँभालने की ज़िम्मेदारी दी गयी लेकिन उनके ज़िम्मे में मुख्य काम यही था कि वो सड़कों, गलियों और नालियों की सफ़ाई की देखरेख करें. अकबर इलाहाबादी ने नगर-पालिकाओं और जिला-परिषदों के इन निर्वाचित सदस्यों के विषय में कहा –
‘मेम्बर अली मुराद हैं, या सुख निधान हैं,
लेकिन मुआयने को, यही नाबदान (नाली के ढक्कन) हैं.’
1885 में बड़ी धूम-धाम से इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई. समाज के प्रतिष्ठित बैरिस्टर, वकील, शिक्षक, उद्योगपति, जागीरदार, ज़मींदार, पत्रकार आदि इसमें देशभक्ति और त्याग के नाम पर शामिल हुए पर उनका मुख्य उद्देश्य था कि वो आला अफसरों की निगाह में आ जायं और समाज में उनका रुतबा बढ़ जाय –
‘कौम के गम में डिनर खाते हैं, हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत हैं, मगर, आराम के साथ.’
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा का विकास पश्चिम में ही हुआ था लेकिन अंग्रेजों ने भारत में सरकार की किसी भी नीति की आलोचना करने पर कठोर प्रतिबन्ध लगा रक्खा था. अकबर इलाहाबादी ने ब्रिटिश शासन में भारतीयों को मिली हुई आज़ादी के विषय में कहा है –
‘क्या गनीमत नहीं, ये आज़ादी,
सांस लेते हैं, बात करते हैं.’     
1919 में हुए जलियांवाला बाग़ हत्याकांड का समाचार छापना, उसके विरोध में भाषण देना या जन-सभा का आयोजन करना पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया. अकबर इलाहाबादी का इस सन्दर्भ में प्रसिद्द शेर है-
‘हम आह भी भरते हैं, तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो, चर्चा नहीं होता.’ 
अकबर इलाहाबादी उन्नीसवीं सदी की पुरातनपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे. प्रगति के नाम पर सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक अथवा वैचारिक परिवर्तन उन्हें स्वीकार्य नहीं था. उनकी दृष्टि में रस्मो-रिवाज, तहज़ीब, मज़हबी तालीम, खवातीनों की खानादारी अर्थात स्त्रियों का कुशल गृह-संचालन, बड़ों का अदब आदि पौर्वात्य संस्कृति का अभिन्न अंग थे पर हमारे अग्रेज़ आक़ा हिन्दोस्तानियों की तरक्की के नाम पर इन सबको मिटाने पर और उनको मनसा, वाचा, कर्मणा काला अंग्रेज़ बनाने पर तुले हुए थे. अकबर इलाहाबादी ने जोशो-ख़रोश के साथ अपने अशआर के ज़रिये इसकी मुखालफ़त (विरोध) की थी.  अकबर इलाहाबादी यह जानते थे कि उनके जैसे परम्परावादी कौम को आगे नहीं ले जा सकते लेकिन उन्हें इस बात का भी इल्म था कि मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाने का दावा करने वाले खुद दिशा हीन थे –
‘पुरानी रौशनी में, और नयी में, फ़र्क इतना है,
उन्हें कश्ती नहीं मिलती, इन्हें साहिल नहीं मिलता.’
(कश्ती – नाव, साहिल –किनारा) 
अंगेज़ी तालीम हमको अपने धर्म, संस्कृति और अपनी ख़ास पहचान से दूर कर रही थी. ये वो तालीम थी जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हमको अपने से बड़ों के साथ बे-अदबी से पेश आना सिखा रही थी –
‘हम ऐसी कुल किताबें, क़ाबिले ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर के बेटे, बाप को खब्ती समझते हैं.’
(क़ाबिले ज़ब्ती – ज़ब्त किये जाने योग्य)
इस नयी तालीम ने भारतीय युवा पीढ़ी को सिखाए थे तो बस, सूट-बूट पहनना, टेबल मैनर्स, बालरूम डांस करना और अपनों के ही बीच बेगाना बन कर रहना –
हुए इस क़दर मुहज्ज़ब, कभी घर का मुंह न देखा,
कटी उम्र होटलों में, मरे अस्पताल जाकर.’
(मुहज्ज़ब – सभ्य)                           
अकबर इलाहाबादी स्त्री-शिक्षा के विरोधी नहीं थे लेकिन वो चाहते थे कि पढ़-लिखकर लड़की मज़हब-परस्त बने, कुशल गृहिणी बने, एक अच्छी बीबी बने, एक अच्छी माँ साबित हो न कि फैशन की पुतली और महफ़िलों की रौनक बने –
‘तालीम लड़कियों की, लाज़िम तो है मगर,
खातून-ए-खाना हो, वो सभा की परी न हो.’
(लाज़िम – आवश्यक, खातून-ए-खाना – कुशल गृहिणी)
आज से सौ-सवा सौ साल पहले कोई सोच नहीं सकता था कि सभ्य घरों की महिलाएं और लड़कियां बारात में जाएँगी और सार्वजनिक स्थानों पर खुले-आम नाचेंगी पर नयी तालीम ने हमको यह मंज़र (दृश्य) भी दिखा दिया था –
‘तालीम-ए-दुख्तरां से, ये उम्मीद है ज़रूर,
नाचे खुशी से दुल्हन, खुद अपनी बरात में.’
(तालीम-ए-दुख्तरां – शिक्षित बेटी)        
अकबर इलाहाबादी पर्दा प्रथा के बड़े हिमायती थे लेकिन उन्हें मालूम था कि एक न एक दिन हिंदुस्तान से ये रस्म ज़रूर उठ जाएगी –
गरीब अकबर ने बहस परदे की, बहुत ही खूब की, लेकिन हुआ क्या?
नकाब उलट ही दी उसने कहकर, कि कर लेगा मुआ क्या?’

मैं और मेरे साथ ही तमाम तरक्की पसंद आज अकबर इलाहाबादी को अप्रगतिशील, परम्परावादी, दकियानूसी, स्त्री-स्वातंत्र्य तथा नारी-उत्थान का विरोधी कह सकते हैं लेकिन उनके अशआर को पढ़कर ऐसा हो ही नहीं सकता कि हमको गुदगुदी न हो, हमारे होठों पर मुस्कराहट न आये या हम खिलखिलाकर हंस न पड़ें.