गुरुवार, 29 सितंबर 2016

मतदाता

महाप्राण निराला की कविता ‘भिक्षुक’ –
‘वह आता.
दो टूक कलेजे के, करके,
पछताता,
पथ पर आता ----’
का नवीन संस्करण –
‘मतदाता,
खुद अपना भाग्य मिटाता,
इस लोकतंत्र की बलिवेदी पर,
स्वयं दौड़, चढ़ जाता,  
सब काम छोड़,
मतदान केंद्र पर आता,
ऊँगली, स्याही से, स्याह करा,
मतदाता-धर्म, निभाता.
वादों पर, कर विश्वास,
वरण छलिया का,
वह, कर आता.
फिर पांच बरस तक,
हर पल, अपने निर्णय पर,
पछताता,
कुछ न कर पाता,
फोड़ता माथा.
ठग, निष्कंटक, बन बैठा,
हा, उसका भाग्य-विधाता,
लुटता, पिटता,
वह रोज़,
पटखनी खाता,
सिसक रह जाता.
गर्दिश से जोड़ा,
उसने खुद ही, नाता. 
दाता से, अगले ही पल में,
वह याचक, क्यूँ बन जाता?
समझ ना पाता,
चकित रह जाता.
फिर उठा कटोरा,
मांगो का, ले,
हाथ पसारे जाता,
कुछ नहीं पाता,
धमकियाँ खाता.
अगले चुनाव तक,
ध्यान न उस पर, जाता,
वोटर-सूची को छोड़,
सभी की नज़रों में, मर जाता,

हाय, मतदाता, हाय, मतदाता.         

रविवार, 18 सितंबर 2016

सुलेख

सुलेख
कैलीग्राफी अर्थात सुलेख अपने आप में एक स्वतंत्र कला भी है और अलंकरण के लिए भी इसका उपयोग होता है. यदि आप ताजमहल के भीतरी कक्ष में प्रवेश करेंगे तो आपको उसकी दीवालों पर छत से लेकर फ़र्श तक काले रंग में लिखी कुरान की आयतें दिखाई देंगी जो इस कक्ष की पवित्रता को बढ़ाने के साथ-साथ उसका सौन्दर्य भी बढ़ाती हैं. प्राचीन काल और मध्यकाल में सुलेख-विशेषज्ञों की चांदी थी. धर्मं-ग्रंथों, इतिहास-ग्रंथों और साहित्यिक-ग्रंथों की प्रतियाँ तैयार करने में उनकी सेवाएँ ली जाती थीं और वह भी मुंह-माँगी कीमत पर.   
कहा जाता है कि व्यक्ति की लिखावट उसके व्यक्तित्व का आयना होती है. मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर कर यह कहता हूँ  कि ये कहावत निहायत गलत है, भ्रामक है और अगर यह सही भी है तो कम से कम मुझ पर तो यह लागू नहीं होती. मेरे इस प्रबल विरोध का एक मात्र कारण यह है कि सुलेख से मेरा उतना ही करीबी रिश्ता है जितना कि कबीरदास जी का कलम-दवात और पोथियों से था, जितना कि बाबू जगजीवन राम का सुन्दरता से था, जितना कि राहुल बाबा का बुद्धि-विवेक से है या जितना कि नरेन्द्र भाई मोदी का मितभाषिता से है.        
  हमारे घर में हमारे पिताजी और बहनजी की राइटिंग साधारण, किन्तु मेरी माँ और मेरे तीनों भाइयों की राइटिंग बहुत शानदार थी. लखनऊ में, 1956 में बिना तख्ती-पूजन के मेरी शिक्षा-दीक्षा प्रारम्भ हुई. हमारे स्कूल, बॉयज़ एंग्लो बेंगाली इन्टर कॉलेज में न तो तख्ती-खड़िया का रिवाज़ था और न ही स्लेट का. कागज़-पेन्सिल पर ही उल्टी-सीधी चील-कौए जैसी आकृतियों को बना-बना कर मैं उन्हें ‘अ’, ‘आ’, ‘इ’, ‘ई’ आदि कहने लगा. मेरे भाइयों के अनुसार 1956 के बाद आने वाले भूकम्पों के कारणों में कागज़ों पर उकेरे गए मेरे सुन्दर अक्षर भी अवश्य रहे होंगे.
अपने दुर्बोध हस्तलेख के कारण कितनी बार मेरी कान-खिंचाई हुई होगी, इसकी गिनती करना मुश्किल है पर मेरे भाई लोग पुराने ज़माने में इसका हिसाब ज़रूर रखते थे. दुर्भाग्य से जब मैंने पढ़ाई शुरू की थी तो मेरे तीनों भाई मेरे ही स्कूल में पढ़ते थे और उनकी शुमार वहां के अच्छे विद्यार्थियों में की जाती थी. मेरे सभी गुरु-जन उन्हें जानते थे पर वो यह मानने को क़तई तैयार नहीं होते थे कि यह चील-कौए बनाने वाला इन्हीं सु-लेखकों का भाई है. स्कूल में कान-खिंचाई और घर में उपहास वाली खिंचाई के कारण मैं भगवान से रोज़ प्रार्थना करता था कि मेरा स्कूल भाइयों के स्कूल से अलग हो जाय.      

मुझे देवनागरी लिपि में सबसे ज्यादा खराबी यह लगती है कि हर अक्षर और शब्द पर छत (शिरो-रेखा) लगानी पड़ती है पर इस राज-मिस्त्री वाले काम में मैं आज भी कच्चा हूँ. वैसे रोमन लिपि में भी स्माल लेटर्स की क्या ज़रुरत है? स्माल ‘आर’ और स्माल ‘एन’ में इतना कम फ़र्क क्यूँ है कि मेरे द्वारा लिखे गए ‘chain’ को ‘chair’ पढ़ते हैं. स्माल ‘आई’ और स्माल ‘जे’ में ये सुहाग वाली बिंदी लगाने की क्या ज़रुरत है? और स्माल ‘टी’ की क्या हर बार गर्दन काटना ज़रूरी है? क्या रोमन लिपि में केवल कैपिटल लेटर्स से काम नहीं चल सकता था? क्या रोमन लिपि को प्रचलित करने वालों को इस बात का इल्म नहीं था कि भविष्य में कुछ होनहार बिरवान को स्माल लेटर्स लिखने में बहुत कठिनाई होने वाली है?
देवनागरी और रोमन लिपि दोनों के ही, मेरे हस्तलेख की, यह विशेषता है कि अक्षरों का आकार कभी एक सा नहीं होता और न ही, वो सैनिक अनुशासन का पालन करते हुए कभी सीधी कतार में चलते हैं. अब सांप-सीढ़ी के खेल जैसी इस लिखावट से पढ़ने वाले को कोई दिक्कत होती हो तो यह उसका सर-दर्द है, मेरा नहीं.
खैर धीरे-धीरे मैंने ऐसा लिखना सीख लिया कि पढ़ने वाला थोड़ी आँख गड़ा के, थोड़ा दिमाग लगा के, उसे पढ़ सके. अब मेरी लिखावट हड़प्पा सभ्यता की उस लिपि की भांति दुर्बोध नहीं रह गई थी जिसे कि आज भी डिसाइफ़र नहीं किया जा सका है. पर कुछ अक्षरों और शब्दों को लिखने में मुझे अपनी नानी याद आ जाती थी. ‘ह्रदय’, ‘ब्राह्मण’ ‘ह्रास’ आदि शब्द तो मेरी जान के दुश्मन बन जाते थे. मेरा बस चलता था तो मैं ‘ह्रदय’ के स्थान पर ‘दिल’ या ‘मन’, ‘ब्राह्मण’ के स्थान पर ‘विप्र’ और ‘ह्रास’ के स्थान पर ‘हानि’ का उपयोग कर लेता था.
मेरे सहपाठी मेरे राइटिंग को देखकर यह आशा करते थे कि परीक्षा में मेरा, या तो डब्बा गुल होगा या मैं जैसे-तैसे उत्तीर्ण हो पाऊंगा. पर उत्तर-पुस्तिकाओं में उत्तर लिखते समय मैं तीन घंटे का प्रश्नपत्र आम तौर पर ढाई-पौने तीन घंटों में ही कर लेता था और शेष समय मैं अक्षरों-शब्दों की अस्पष्ट आकृतियों को सुबोध बनाने में और उनके ऊपर छतें (शिरो-रेखा) बनाने में खर्च करता था.
मैं अपने सभी परीक्षकों का शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने मेरे हिंदी-अंग्रेज़ी लेखन के गुण(?)-दोषों पर ध्यान न देते हुए मेरे उत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़ा और फिर उन पर अच्छे-खासे अंक भी दिए. बुंदेलखंड कॉलेज, झाँसी से बी. ए. में और लखनऊ यूनिवर्सिटी से मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास में एम. ए.,  दोनों में ही मैंने जब टॉप किया तो अपने सुलेख के लिए प्रसिद्द मेरे अनेक प्रतिद्वंदियों ने क्षुब्ध होकर अपने-अपने फाउंटेन पेन तोड़ दिए.            
एम. ए. की अग्नि-परीक्षा के बाद मैंने अपनी लिखावट को उन्मुक्त छोड़ दिया. अब लिखावट पर अंक काटे जाने का भय समाप्त हो गया था. पर अपनी पीएच. डी. थीसिस ‘सरमद और उसका युग’ टाइप कराते वक़्त फिर बहुत परेशानी हुई. देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा में लिखी मेरी थीसिस की पांडुलिपि पढ़ने में मेरा टाइपिस्ट ज़ार-ज़ार रोता था. मैंने उसे हिदायत दी थी कि वो पहले मेरा लिखा हुआ पढ़कर मुझे सुनाएगा, फिर उसे टाइप करने ले जाएगा. पर मेरा सुलेख पढ़ते समय अक्सर वो मुझसे पूछता हुआ मिल जाता था –
सर, ये ‘मलाई’ है या ‘भलाई’?
‘मूल’ है ‘भूल’?
‘मेघा; है या ‘मेधा’?
‘रवाना’ है या ‘खाना’?    
मेरी थीसिस में अरबी-फ़ारसी शब्दों की भरमार थी, उनको टाइप कराने में उसको और मुझको, दोनों को ही, अपनी-अपनी नानियाँ याद आ जाती थीं. पर मैं आगे यह नहीं बताऊंगा कि वो पट्ठा ‘परवाने’ को क्या समझता था. मुझे रात-रात भर बैठकर अपने सामने ही सब-कुछ टाइप करवाना पड़ता था. आज से चालीस साल पहले कंप्यूटर टाइपिंग तो थी नहीं, इसलिए भूल-सुधार की गुंजाइश बहुत कम रहती थी. पर मेरे सुलेख के कारण तो इतनी गड़बड़ी होती ही थी कि दुबारा-तिबारा टाइप किये बगैर फाइनल ड्राफ्ट कभी तैयार ही नहीं हो पाता था. 
मुझे अच्छे हैण्ड राइटिंग वाली धर्म-पत्नी पाकर बहुत प्रसन्नता हुई. टाइपिस्ट को दिए जाने से पहले मेरे अनुरोध पर वो मेरे लेखों, कहानियों और कविताओं को जब अपनी लिखावट में उतार देती थीं तो मानो उनकी सूरत तो क्या उनके भाव और उनके अर्थ तक बदल जाते थे. और मेरे दुष्ट टाइपिस्ट मुझसे कहते थे –
‘सर मैडम का लिखा, टाइप करने का तीन रुपया पर पेज और आप वाले का, 5 रुपया पर पेज लगेगा.’
आकाशवाणी अल्मोड़ा के कार्यक्रमों में मेरी और मेरी श्रीमतीजी की बहुत भागेदारी रहती थी. पर वहां भी मेरी लिखावट के शत्रु बैठे थे. सब मुझसे यही अनुरोध करते थे कि या तो मैं अपनी कहानी, कविता या वार्ता, श्रीमती जैसवाल से लिखवा कर दूँ या उसे टाइप करवा कर दूँ.
मेरी बड़ी बेटी गीतिका तब सात साल की थी. अपनी उम्र के हिसाब से वो कुछ ज़्यादा ही अच्छा बोलती थी. आकाशवाणी के एक प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव परिमू साहब से मैंने उसे मिलवाया. गीतिका ने अपनी एक वार्ता उन्हें पढ़कर सुनाई तो उन्होंने स्टूडियो में फ़ौरन उसे रिकॉर्ड कर लिया. रिकॉर्डिंग करने के बाद कॉन्ट्रैक्ट पेपर पर हस्ताक्षर करने की बारी आई. बच्चे के कॉन्ट्रैक्ट पेपर पर बच्चे और उसके अभिभावक दोनों के ही हस्ताक्षर होते हैं. जब गीतिका ने अपने और अपने पापा के हस्ताक्षर किया हुआ कॉन्ट्रैक्ट पेपर परिमूजी को दिया तो उन्होंने उसे देखकर एकदम गंभीर होकर गीतिका से कहा –
‘गीतिका, तुम तो बहुत प्यारी बच्ची हो, इतना अच्छा बोलती हो. पर तुमने ये गन्दी बात क्यों की? तुमको अपने पापा के सिग्नेचर करने की क्या ज़रुरत थी?’
परिमू साहब का सवाल और उनका गुस्सा बेचारी गीतिका के तो पल्ले पड़ा नहीं पर मैं सब कुछ समझ गया. मैंने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘परिमू साहब, ये सिग्नेचर मेरे ही हैं.’.                           
अब परिमू जी का चेहरा देखने लायक था. कुछ देर तक भौंचक्के रहकर, मेरी बात को जैसे अन-सुना कर उन्होंने गीतिका से कहा –
सॉरी बेटा, मैंने समझा था कि तुमने कोई शरारत की है. तुम्हारे पापा ने देखो, कितने मज़ेदार सिग्नेचर किए हैं, तुम्हारी राइटिंग तो उनसे बहुत अच्छी है.’
ऊपर से हँसते हुए मैं सोच रहा था –
‘सात साल की लड़की की राइटिंग अच्छी और उसके बाप की ख़राब? बच्चू, तुमसे कई और कार्यक्रम न लेने होते तो मैं तुम्हें बताता.’
घर में अग्रेज़ी टाइपराइटर आने के बाद अंगेज़ी में टाइप करने वाले काम में मैं पूर्णतया आत्म-निर्भर हो गया पर हिंदी में 1998 तक टाइप कराने के लिए कभी श्रीमतीजी से तो कभी अपनी बेटियों से फेयर ड्राफ्ट तैयार करने की मुझे खुशामद करनी पड़ती थी. 1998 में घर में कंप्यूटर आने के बाद क्रान्ति आ गई. मैंने हिंदी टाइपिंग भी सीख ली. अब न किसी टाइपिस्ट की खुशामद, न श्रीमतीजी से अनुनय-विनय और न ही बेटियों के मक्खन लगाने की ज़रुरत. अब तो कबीरदास की तरह से कागज़ और कलम को छूने की ज़रुरत ही नहीं. कम्प्यूटर पर बैठकर ही सोचो, टाइप करो, ज़रुरत हो तो रि-टाइप करो, करेक्शन करो, जो चाहे जोड़ो, जो चाहे घटाओ. न अक्षर छोटे-बड़े होने का डर, न लाइन टेढ़ी-मेढ़ी होने की आशंका, न ‘ह्रदय’ जैसे शब्दों का आतंक, न ‘भलाई’ को ‘मलाई’ समझकर उसे खाने की चाहत. वाह ! जैसवाल साहब तो अब सुलेखक बन गए.         
कंप्यूटर युग ने हमारे जैसे राइटिंग वालों को आत्मनिर्भर और इज्ज़तदार बना दिया है. एक बार गीतिका ने मेरी एक कविता का प्रिंट आउट अपनी अम्मा को दिखाया. गीतिका की अम्मा अर्थात हमारी माताजी ने फ़रमाया –
‘कविता अच्छी है पर लिखावट तो बहुत ही अच्छी है. तेरा पापा तो पहले चील-बिलौटे बनाता था, अब देख कैसी मोतियों जैसी राइटिंग हो गई है.’    
सुनते हैं कि अब कहीं-कहीं परीक्षार्थियों को कम्प्यूटर के प्रयोग की सुविधा दी जाने लगी है. मेरे जैसे हस्तलेख विशेषज्ञ विद्यार्थियों के लिए तो यह समाचार एक वरदान सिद्ध होगा.
आज इन्टरनेट बैंकिंग के ज़माने में तो दस्तख़त करने की ज़रुरत भी बहुत कम पड़ती है. पेपर सेट करते समय ज़रूर इतनी सावधानी बर्तनी पड़ती है कि मेरे द्वारा लिखे गए का कुछ और न पढ़ लिया जाय पर अब मैंने खुद को पेपर सेटिंग के इस कठिन दायित्व से मुक्त कर लिया है. हाँ, अपने पत्रों पर अगर  पता मुझे खुद ही लिखना होता है तो मैं श्रीमतीजी की शरण में जाए बिना, उसे अंग्रेज़ी के कैपिटल लेटर्स में लिख देता हूँ.
मैंने आज से 60 साल पहले राइटिंग के आधार पर किसी की योग्य-योग्य मानने की मानसिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाया था. तब लोगबाग मेरी बात पर हँसते थे पर आज कम्प्यूटर पर मेरी उँगलियाँ चाहे सीधी पड़ें या टेढ़ी, उससे टाइप होने वाले अक्षर-शब्द आदि सभी खूबसूरत, सुडौल और एक सांचे में ढले होते हैं.

अगर मेरे पाठक गण मेरा आकलन करेंगे तो वो मानेंगे कि मैं अपने समय से बहुत आगे था. बीसवीं शताब्दी के छठे-सातवें दशक में ही मैंने कम्प्यूटर की ज़रुरत पर प्रकाश डाला था. अफ़सानों में मुझे ल्योनार्दो दा विन्ची, राजा राम मोहन रॉय और ए. पी. जे अब्दुल कलाम की तरह ‘फ़ार अहेड ऑफ़ हिज़ टाइम्स’ कहा जाएगा.

बुधवार, 14 सितंबर 2016

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस -

सूर की राधा दुखी, तुलसी की सीता रो रही है।
शोर डिस्को का मचा है, किन्तु मीरा सो रही है।
सभ्यता पश्चिम की, विष के बीज कैसे बो रही है ,
आज अपने देश में, हिन्दी प्रतिष्ठा खो रही है।।

हाय ! माँ, अपने ही बेटों में, अपरिचित हो रही है।
बोझ इस अपमान का, किस शाप से वह ढो रही है?
सिर्फ़ इंग्लिश के सहारे भाग्य बनता है यहाँ,
देश तो आज़ाद है, फिर क्यूं ग़ुलामी हो रही है?


हिंदी पखवाड़ा -

आज माँ की दुर्दशा पर, पुत्र अविरल रोएगा,
उसके अधिकारों की खातिर, चैन अपना खोएगा.
बोझ हिंदी भक्त का, पन्द्रह दिनों तक ढोएगा,
फिर मदर इंग्लिश के, चरणों में पड़ा, वह सोएगा.

रविवार, 11 सितंबर 2016

फ़िल्मी उल्फ़त


फेसबुक पर ‘हिंदी कविता’ में उदधृत ज़रीफ़ जबलपुरी की नज़्म में फिल्मों में ‘उल्फ़त कैसे हो सकती है’, इसके नुस्खों पर कुछ रौशनी डाली गई है. पर भूल से या जानबूझ कर इसमें जो नुस्खे छोड़ दिए गए हैं उन्हें आप सबके सामने मैं पेश कर रहा हूँ -

कलामंडी में बन्दर को, हरा पाओ, तो उल्फ़त हो,
अगर तुम बे-वजह नगमा सुना पाओ, तो उल्फ़त हो.

अगर बुर्का पहन, घर उसके घुस जाओ, तो उल्फ़त हो,
हदें, बेशर्मियों की, पार कर जाओ, तो उल्फ़त हो.

कभी शम्मी, कभी इमरान बन पाओ, तो उल्फ़त हो,
हुनर जूडो-कराते का, दिखा पाओ, तो उल्फ़त हो.

अगर रफ़्तार के जल्वे दिखा पाओ, तो उल्फ़त हो,
अगर कुछ डांस के करतब दिखा पाओ, तो उल्फ़त हो.

अगर तालीम से, पीछा छुड़ा पाओ, तो उल्फ़त हो,
गुनहगारों में, अपना नाम कर पाओ, तो उल्फ़त हो.

अगर अन्त्याक्षरी में, मात दे पाओ, तो उल्फ़त हो,
पहनकर शेरवानी, शेर कह पाओ, तो उल्फ़त हो.

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

बहाली

यह बात 1972 की है. मेरे बड़े भाई साहब ने तब उत्तरकाशी के जिलाधीश का दायित्व कुछ ही दिन पहले सम्हाला था. ऑफिस में उनके सामने एक प्रार्थना पत्र रक्खा गया जिसमें जिलाधीश के कार्यालय से सम्बद्ध, अस्थायी पद पर नियुक्त एक बर्खास्त किए गए चपरासी ने खुद को फिर बहाल किए जाने की प्रार्थना की थी.

जिलाधीश-कार्यालय की ओर से उस चपरासी को बर्खास्त किए जाने का कारण यह बताया गया था कि वह बिना कोई सूचना दिए, बिना छुट्टी का कोई आवेदन दिए, तीन महीने तक अपनी ड्यूटी पर नहीं आया, उसके घर के पते पर एक रजिस्टर्ड पत्र द्वारा उसे कार्यालय में तुरंत ड्यूटी पर आने का नोटिस भी दिया गया था जिसका कि उसने कोई जवाब नहीं दिया. अन्ततः उसके ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार को देखते हुए उसे बर्खास्त कर दिया गया. एक अस्थायी कर्मचारी को इतनी बड़ी गलती के लिए माफ़ कर देना तो एक गलत नज़ीर बन जाती इसलिए भाई साहब की नज़रों में भी उस गरीब का बर्खास्त किया जाना ही जायज़ था. पर फिर भी भाई साहब ने उस अपदस्थ चपरासी का आवेदन पूरी तरह से पढ़ना उचित समझा.

प्रार्थी ने बहुत भावुक होकर काव्यात्मक शैली में नए जिलाधीश महोदय से अपनी कृपा वृष्टि से उसके सूने जीवन में फिर से बहार लाने की गुहार लगाई थी और साथ ही उसने अपनी बहाली के पक्ष में अनेक ऐसे बिंदु रक्खे थे जो उसकी दृष्टि में ऐसे थे जिन्हें कि पढ़कर कोई भी न्यायप्रिय जिलाधीश उसको बहाल किए बिना रह ही नहीं सकता था.

एक साधारण सा प्रार्थना पत्र अब दिलचस्प होता जा रहा था. भाई साहब ने प्रार्थना पत्र में दी गई दलीलों को ध्यान से पढ़ा.

1. प्रार्थी ने पिछले 5 सालों में उत्तरकाशी में नियुक्त जिलाधीशों की तन-मन से सेवा की है और उन सभी से शाबाशी प्राप्त की है. प्रमाण के रूप में पिछले दो जिलाधीशों के द्वारा प्रार्थी को दिए गए प्रशंसा पत्र संलग्न हैं.

2. प्रार्थी ने पिछले जिलाधीश महोदय के कहने पर 1970 में परिवार नियाजन हेतु खुद अपना ऑपरेशन करवाया था जिसके लिए उसे पुरस्कार में 200 रूपये, एक कम्बल और एक प्रमाण-पत्र भी मिला था. प्रमाण-पत्र की प्रमाणित प्रतिलिपि इस प्रार्थना पत्र के साथ संलग्न है.

3. वर्ष 1972 के प्रारम्भ में प्रार्थी के गाँव में उसकी पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया जिसके कारण उसे 3 महीने अपने गाँव में रहना पड़ा और उसे अपनी ड्यूटी पर वापस आने में विलम्ब हो गया.
आगे एकाद बिंदु और थे पर दूसरे और तीसरे बिंदु को पढ़कर ही भाई साहब ने अपदस्थ कर्मचारी को अपने सामने उपस्थित होकर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का आदेश दे दिया.

प्रार्थी जिलाधीश महोदय के समक्ष प्रस्तुत हुआ तो उन्होंने उससे केवल एक सवाल पूछा –
‘तुमने अपने प्रार्थना पत्र में लिखा है कि तुमने 1970 में परिवार नियोजन हेतु अपना ऑपरेशन करा लिया था.’

प्रार्थी ने हाथ जोड़कर कहा –
‘जी हुजूर, सही बात है. मैंने तो इसका प्रमाण-पत्र भी लगाया है.’
जिलाधीश ने फिर पूछा –
‘अगले बिंदु में तुमने लिखा है कि 1972 में तुम्हारे बेटा हुआ. 1970 में परिवार नियोजन का ऑपरेशन और 1972 में बेटा? बात कुछ समझ में नहीं आई.’

प्रार्थी ने अपना माथा पीटते हुए जवाब दिया –
‘माई बाप, यह बात तो मेरे भी समझ में नहीं आई थी. लेकिन मैंने अपना बेटा होने की बात कहीं नहीं लिखी है. सिर्फ यह लिखा है कि मेरे घर में मेरी पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया. हुज़ूर, अगले तीन महीने मुझे अपने आशिक़ और इस बच्चे के बाप के साथ भागी हुई अपनी बीबी को वापस लाने में लगाने पड़े. अन्नदाता, अगर मैं बहाल नहीं हुआ तो मेरी बीबी फिर से भाग जाएगी.’

आगे की कहानी सुखांत है.

जिलाधीश महोदय ने इस विषय में आदेश निर्गत किया-
‘कर्मठ, कर्तव्यनिष्ठ और आज्ञाकारी प्रार्थी अगर दुखद परिस्थितियों के कारण अपने कर्तव्य का पालन करने में कुछ चूक गया तो उसके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए न कि उसे दण्डित किया जाना चाहिए. मैं प्रार्थी की विगत सेवाओं को देखते हुए उसके बर्खास्त किए जाने के पूर्व-आदेश को निरस्त कर उसे उसके पद पर बहाल करता हूँ.’

सोमवार, 5 सितंबर 2016

आधुनिकता


फेसबुक पर यह प्रश्न उठाया गया है कि आधुनिकता क्या है. आमतौर पर आधुनिकता को नास्तिकता, भौतिकतावाद, स्वार्थपरता, उन्मुक्त व्यवहार, संस्कारहीनता, समाज तथा परिवार से पृथक रहकर स्वयं अपने द्वारा स्थापित मूल्यों के साथ जीने की प्रवृत्ति आदि से जोड़कर देखा जाता है. सामान्यतः भारत में आधुनिक वह कहलाता है जो पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण करता हो. आधुनिकता की यह परिभाषा उचित नहीं है. यदि हम इतिहास को देखें तो यूरोप में 15 वीं शताब्दी के प्रथमार्ध तक मध्यकाल और उसके बाद 15 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से (खासकर 1453 से, जब तुर्कों ने रोमन साम्राज्य के शहर कुंस्तुनतुनिया (पुराने ग्रीस की राजधानी) पर अधिकार कर लिया था और ग्रीक बुद्धिजीवी वहां से भागकर यूरोप के अन्य देशों में जाकर बस गए थे तथा वहां उन्होंने ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित की थी) से आधुनिक युग का प्रारम्भ माना जाता है जिसे हम यूरोपीय पुनर्जागरण भी कहते हैं.

इतिहास में मध्य-युग को हम अंधकार का युग भी मानते हैं. मध्यकाल में धर्म और परंपरा के नाम पर अन्धविश्वास, कूपमंडूकता, अपरिवर्तनशीलता, हठवादिता और असहिष्णुता को अपनाया जा रहा था. राजा का आदेश ईश्वर का आदेश माना जा रहा था. धर्म, शासक, समाज के प्रभुत्व ने व्यक्तिवाद का तो मानों अस्तित्व ही मिटा दिया था. किन्तु जब हर बात को बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखने की प्रवृत्ति बढ़ी, जब ‘क्यों’, ‘कैसे’ से प्रारम्भ होने वाले प्रश्नों ने ‘जो आज्ञा’ से प्रारम्भ होने वाले वाक्यों का स्थान ले लिया तो आधुनिक युग का शुभारम्भ हुआ. इस आधुनिक युग में विज्ञान और तकनीक का अभूतपूर्व विकास हुआ, भौगोलिक खोजें हुईं, भौतिक उन्नति हुई, धर्म के नाम पर हो रहे अनवरत शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई गई, अंधविश्वास, कुरीतियों आदि को नकारा गया, शासक की निरंकुशता को अस्वीकार किया गया, नागरिक अधिकार को महत्ता दी गई, लोकतान्त्रिक प्रणाली की स्थापना के लिए अनुकूल परिस्थितियां विकसित हुईं और यातायात के साधनों में विकास के कारण, धीरे-धीरे वसुधैव कुटुम्बकम की कल्पना साकार रूप लेने लगी. यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि इस आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में प्राचीन ज्ञान को उदारता के साथ ग्रहण किया गया.

इसलिए हम आधुनिकता को एक अभिशाप न मानकर एक वरदान के रूप में देखें तो अधिक उचित होगा.

भारतीय सन्दर्भ में हम कबीर को आधुनिक कह सकते हैं क्यूंकि उन्होंने अपने समय की धार्मिक, सामाजिक मान्यताओं को बुद्धि-विवेक की कसौटी पर परख कर ही उन्हें स्वीकार अथवा अस्वीकार किया था. इस दृष्टि से हम मीरा बाई को भी आधुनिक कह सकते हैं क्यूंकि उन्होंने अपने आचरण से स्त्री-अस्मिता को एक नयी पहचान दी थी.

राजा राममोहन रॉय आधुनिक भारत के जनक कहे जाते हैं. उन्होंने सती प्रथा के अनौचित्य को दर्शाते हुए जो तर्क दिया था वह यह था कि ऋग्वैदिक काल में सती प्रथा का प्रचलन नहीं था और ‘सती’ से तात्पर्य अपने पतिव्रत धर्म का निष्ठापूर्वक पालन करने वाली स्त्री से है न कि अपने मृत पति के साथ सहमरण करने वाली स्त्री से. संस्कृत और फ़ारसी के प्रकाण्ड पंडित होते हुए भी उन्होंने अग्रेज़ी शिक्षा के प्रचलन का समर्थन इसलिए किया था क्यूंकि इसी के माध्यम से भारतीय आधुनिक विज्ञान, तकनीक, वाणिज्य, लोकतान्त्रिक प्रणाली आदि से परिचित हो सकते थे. मेरी दृष्टि में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर आधुनिक थे जिन्होंने विधवा-विवाह को शास्त्र-सम्मत सिद्ध किया था. मैं जमशेदजी टाटा को आधुनिक कहूँगा जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा अपने प्रयास का उपहास उड़ाए जाने के बावजूद भारत में एशिया का सबसे बड़ा इस्पात का कारखाना स्थापित किया था.

आम तौर पर हम लोग आधुनिकता के विषय में अकबर इलाहाबादी का ही दृष्टिकोण रखते हैं. उनकी दृष्टि में आधुनिक तथा आधुनिका का अर्थ है – माँ-बाप को खब्ती समझने वाला, अंग्रेज़ी में गिटपिट करने वाला, कांटे-छुरी से खाना खाने वाला, घर की जगह होटल में रहने वाला, बेपर्दा, अपनी ही बारात में खुद नाचने वाली, शौहर को खाना खिलाने के बजाय सिर्फ़ किस्से सुनाने वाली और सभा की परी. आख़िर हम अकबर इलाहाबादी की सौ, सवा सौ साल पुरानी दकियानूसी मानसिकता से कब उबरेंगे?

गैर ज़िम्मेदार, उद्दण्ड, निरंकुश व्यवहार करने वाले, पश्चिम की जीवन-शैली का अन्धानुकरण करने वाले कैसे आधुनिक कहे जा सकते हैं? हमारे परम्परावादी, तथाकथित भारतीय संस्कृति के संरक्षक बड़े आराम से आधुनिकता के साथ नास्तिकता, भौतिकतावाद, स्वार्थपरता, उन्मुक्त व्यवहार, संस्कारहीनता, समाज तथा परिवार से पृथक रहकर स्वयं अपने द्वारा स्थापित मूल्यों के साथ जीने की प्रवृत्ति आदि को जोड़ देते हैं. पर आधुनिकता को इस रूप में परिभाषित करने का उन्हें किसने अधिकार दिया है? और यहीं दूसरा सवाल उठता है कि हिप्पी संस्कृति के अनुयायियों, माइकल जैक्सन के अंधभक्तों, धरती पर बोझ बने युवक-युवतियों को खुद को आधुनिक कहलाने का अधिकार किसने दिया है?

मेरी दृष्टि में आधुनिक वह है जो धार्मिक वैमनस्य, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, जात-पांत, छुआछूत, लैंगिक असमानता, दहेज़ प्रथा, चमत्कार, भाग्यवाद, कर्मकांड, आडम्बर, तंत्र-मन्त्र आदि में विश्वास नहीं करता और जो केवल उन्हीं बातों पर, उन्हीं विचारों में विश्वास करता है जो बुद्धि-विवेक की कसौटी पर खरे उतरते हैं.

मैं अकबर इलाहाबादी की दकियानूसी विचारधारा का विरोधी हूँ किन्तु परम्परावादियों एवं तथाकथित आधुनिकों पर उनके द्वारा की गई यह टिप्पणी मुझे बहुत-बहुत अच्छी और सटीक लगती है –

‘पुरानी रौशनी में, और नयी में, फ़र्क इतना है,
उन्हें कश्ती नहीं मिलती, इन्हें साहिल नहीं मिलता.’

कबीर के शब्दों में कहें तो –
‘अरे इन दोउन राह न पाई.’

शनिवार, 3 सितंबर 2016

दिल ही तो है

‘आप’ के प्रवक्ता आशुतोष ने संदीप कुमार की विवाहेतर कामुक करतूतों को नितांत स्वाभाविक और आम बताते हुए अपने ब्लॉग में गांधीजी, नेहरूजी, लोहियाजी और अटलजी के प्रेम प्रसंगों का उल्लेख कर भारत भर में हलचल मचा दी है. अपने दोस्त को बचाने के चक्कर में आशुतोष खुद देश के सबसे बड़े खलनायक के रूप में उभर कर हम सबके सामने आ गए हैं. आशुतोष के इन विचारों से संदीप कुमार का तो कुछ भला नहीं होने वाला, अलबत्ता ‘आप‘ को ज़बर्दस्त नुक्सान पहुंचा है और साथ में यह भी स्पष्ट हो गया है कि ‘आप’ में आपसी फूट दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है.

यहाँ मैं देश की महान विभूतियों पर आशुतोष द्वारा लगाए आक्षेपों तक अपनी बात सीमित रखना चाहूँगा. विश्व इतिहास में ऐसे हज़ारों किस्से होंगे जहाँ महान विचारक, वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार, राजनीतिज्ञ, शासक आदि विवाहेतर प्रेम सम्बन्धों, यहाँ तक कि अप्राकृतिक यौन-सम्बन्धों में लिप्त रहे हों.

सुकरात, प्लेटो, एलेग्जेंडर आदि सम-लैंगिक सम्बन्धों के लिए बदनाम हैं और इसी सूची में ल्योनार्दो द विन्ची का नाम भी शामिल है. बाबर, रसखान, सरमद शहीद और फ़िराक़ गोरखपुरी भी इसी बिरादरी के थे.

अपनी कविता 'गिरा हुआ शहसवार में मैंने एक आशिक़ मिजाज़ अपदस्थ मंत्री की व्यथा को चित्रित किया है -

'वो जो दिन-रात रहा करता था, गुलज़ार कभी,
गुलो-बुलबुल का हंसी बाग़, उजड़ता क्यूँ है?
रासलीला तो रचाते हैं, हजारों नेता,
इक मेरा किस्सा ही, अख़बार में छपता क्यूँ है?'

इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम आजन्म अविविवाहित रही और हमेशा उसके प्रेम-प्रसंग सबकी ज़ुबान पर रहे. महान विचारक और ‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट’ रचयिता रूसो के बारे में कहा जाता था कि –
‘उसके अवैध सम्बन्धों के फलस्वरूप जन्मे बच्चे, फ्रांस के हर अनाथालय में पल रहे हैं.’

उन्नीसवीं शताब्दी में महारानी विक्टोरिया के बेंजामिन डिज़रैली के साथ छुपे प्रेम-प्रसंग की सर्वत्र चर्चा होती थी. इंग्लैंड की राजनीति के पितामह कहे जाने वाले ग्लैड्सटन बुढ़ापे तक अपने आशिक़ाना मिजाज़ के लिए बदनाम थे. एक बार चुनाव होने से पहले किसी बदनाम महिला से ग्लैड्सटन के चक्कर की खबर लेकर लोग उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी बेंजामिन डिज़रैली के पास पहुंचे. बेंजामिन डिज़रैली ने अपने समर्थकों को यह निर्देश दिया कि चुनाव होने तक वो इस खबर को जनता तक न पहुँचने दें. समर्थकों ने हैरान होकर जब इस निर्देश का कारण पूछा तो वो बोले –
‘जनता को अगर यह खबर पता चल गई तो ग्लैड्सटन की चुनाव में जीत पक्की हो जाएगी. लोग यह मानकर उसे वोट देंगे कि बुड्ढे में अभी भी दम बाक़ी है.’

1893 में शिकागो विश्व-धर्म सम्मलेन में ऐतिहासिक भाषण देकर जब स्वामी विवेकानंद विश्व-विख्यात हो गए तो अनेक गौरांग बालाएं उनकी शिष्या बन गईं. इनमें सिस्टर निवेदिता का नाम सबको ज्ञात है. सिस्टर निवेदिता ने अपने ‘मास्टर’ के प्रति अपने प्रेम और आकर्षण को कभी नहीं छुपाया. रबीन्द्रनाथ टैगोर ने विवेकानंद-सिस्टर निवेदिता सम्बन्ध पर एक उपन्यास भी लिखा था. बालमुकुन्द गुप्त ने अपने पत्र ‘भारतमित्र’ में विवेकानंद की गौरांग शिष्याओं को लेकर ‘जोगीड़ा’ शीर्षक कविता के अंतर्गत कटाक्ष किए थे.

गांधीजी के विरोधियों ने तो उनके आचरण को सदैव अनैतिक सिद्ध करने का प्रयास किया है पर हम जैसे उनके प्रशंसक भी आँख-मूंदकर उन्हें हर बात में महात्मा नहीं कह सकते.

सब जानते हैं कि नेहरूजी और कमला नेहरू के सम्बन्ध कभी मधुर नहीं रहे और कमला नेहरू की मृत्यु के बाद तो नेहरूजी के प्रेम-सम्बन्धों के किस्सों की बाढ़ ही आ गई. हमारे पुरखे इस बात पर गर्व करते थे कि हमारा जन-नायक गवर्नर-जनरल की पत्नी को टहला रहा है और इसे वो इंग्लैंड पर हिंदुस्तान की फ़तेह के रूप में देखा करते थे. पद्मजा नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, तारकेश्वरी सिन्हा के नाम तो नेहरूजी के साथ जोड़े ही गए थे. बाक़ी नाम मुझे याद नहीं आ रहे हैं.

अटलजी ने किसी साक्षात्कार में खुद कहा था कि वो अविवाहित तो हैं किन्तु ब्रह्मचारी नहीं हैं.

मेरा कहना फिर यही है कि निजी सेक्स-लाइफ़ को लेकर हमेशा हाय-तौबा मचाने की ज़रुरत नहीं है. हमारे अनेक देवी-देवता भी इस मामले में कोई दूध के धुले नहीं हैं.



संदीप कुमार का यह अपराध अक्षम्य है और वह इसलिए कि उसने अब तक कोई अच्छा काम किया ही नहीं है. वह तो लड़कियों को अपने जाल में फंसाकर उन का शोषण करने वाला एक ब्लैकमेलर है. आशुतोष ने उसकी तरफ़दारी कर खुद भी अपनी मिटटी पलीद की है. किन्तु आशुतोष के ब्लॉग में वर्णित महानुभावों के साहसिक अभियानों को लेकर इतना बड़ा हंगामा खड़ा करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है.