रविवार, 28 मार्च 2021

तोबे एकला चलो रे

 महात्मा गाँधी अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के बहुत बड़े प्रशंसक थे. 19 जुलाई, 1905 को तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड कर्ज़न ने सांप्रदायिक आधार पर बंगाल विभाजन के निर्णय की घोषणा की थी. बंगाल के निवासियों में धर्म के आधार पर फूट डालने के इस षड्यंत्र के विरोध में गुरुदेव टैगोर ने जन-जागृत अभियान का नेतृत्व किया था. बंगाल-विभाजन के विरुद्ध आन्दोलन के दौरान गुरुदेव का गीत -

‘आमार शोनार बांगला,
आमि तोमार भालोबाशी’
स्वदेशी आन्दोलन कर रहे आन्दोलनकारियों का अभियान गीत बन गया था.
दूर विदेश में रह रहे सत्याग्रह की अलख जगाने वाले गांधीजी को गुरुदेव के स्वदेशी अभियान ने अत्यधिक प्रभावित किया था. जब गुरुदेव ने स्वदेशी शिक्षा-पद्धति के आधुनिक रूप में शांति निकेतन (विश्वभारती) की स्थापना की थी तब तक गांधीजी स्वदेश लौट आए थे. गांधीजी स्वदेशी-शिक्षा का जो सपना देखते थे उसको गुरुदेव ने मानो शांति निकेतन की स्थापना कर साकार कर दिया था.
1919 में जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के विरोध में जब गुरुदेव ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त ‘सर’ की उपाधि का परित्याग किया तो गांधीजी उनके और भी बड़े प्रशंसक बन गए.
1920 में गांधीजी द्वारा प्रारम्भ किया गए असहयोग आन्दोलन का गुरुदेव ने स्वागत किया. सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, नारी-उत्थान, दलितोद्धार, मद्य-निषेध और सांप्रदायिक सदभाव के साथ स्वराज्य के लक्ष्य को दोनों ही प्राप्त करना चाहते थे.
दोनों में अंतर केवल इतना था कि गुरुदेव मूलतः स्वप्नदर्शी थे और गांधीजी उन सपनों को साकार करने में प्राण-प्रण से जुटे रहने वाले एक अहिंसक योद्धा थे.
1927 में साइमन कमीशन के गठन से अंग्रेज़ सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह भारत में राजनीतिक, संवैधानिक, प्रशासनिक एवं राजनीतिक सुधारों की प्रक्रिया में भारतीयों की भागेदारी स्वीकार नहीं करेगी. साइमन कमीशन के देश-व्यापी विरोध के बाद हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का अगला पड़ाव था - पूर्ण-स्वराज्य की मांग. इस पूर्ण-स्वराज्य की मांग को लेकर महात्मा गाँधी ने डांडी-यात्रा कर शोषक ‘नमक कानून’ तोड़कर अपना नमक सत्याग्रह प्रारम्भ किया.
अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से अपने मुट्ठीभर साथियों के साथ महात्मा गाँधी ने पद-यात्रा कर डांडी में समुद्र तट पर पहुँचने का निश्चय किया. डांडी पहुंचकर उन्होंने सरकार के नमक बनाने और उसे बेचने के एकाधिकार को तोड़कर आन्दोलन देश-व्यापी बनाने की योजना बनाई.
अंग्रेज़ सरकार ने ही नहीं अपितु अनेक राष्ट्रवादी भारतीयों ने भी महात्मा गाँधी की इस योजना को अव्यावहारिक बताया. महात्मा गाँधी ने अपनी पदयात्रा को जन-जागृति अभियान कहा था किन्तु अधिकांश इसे उनका पागलपन मान रहे थे. इतनी सशक्त अंग्रेज़ सरकार को मुट्ठी-भर आन्दोलनकारियों की पदयात्रा कैसे हिला सकती थी?
गुरुदेव टैगोर को महात्मा गाँधी के इस निर्णय की आलोचना स्वीकार्य नहीं थी. उन्हें पूर्ण विश्वास था कि महात्माजी का जन-जागृति अभियान समस्त भारतवासियों को पूर्ण-स्वराज्य प्राप्ति के अभियान से जोड़ देगा. उन्होंने गांधीजी के समर्थन में इस अमर गीत की रचना की -
जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसे
तोबे एकला चलो रे
तोबे एकला चलो, एकला चलो,
एकला चलो, एकला चलो रे
जोदी केउ कोथा ना कोए
ओ रे … ओ ओभागा
केउ कोथा न कोए …
जोदी सोबाई थाके मुख फिराए
सोबाई कोरे भोई
तोबे पोरान खुले …
ओ तुई मुख फूटे तोर मोनेर कोथा
एकला बोलो रे
जोदी सोबाई फिरे जाए
ओ रे ओ ओभागा …
सोबाई फिरे जाई
जोदी गोहान पोथे जाबार काले केउ
फिरे ना चाय
तोबे पोथेर काँटा …
ओ तुई रोक्तो माखा चोरोनतोले
एकला डोलो रे
जोदी आलो ना धोरे, ओ रे …
ओ ओभागा
आलो ना धोरे
जोड़ी झोर-बादोले आंधार राते
दुयार देये घोरे
तोबे बज्रानोले …
आपोन बुकेर पाजोर जालिये निये
एकला जोलो रे
जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसे
तोबे एकला चलो रे
तोबे एकला चलो, एकला चलो
एकला चलो, एकला चलो रे
(हिंदी भावार्थ -
अगर तेरी पुकार पर कोई भी नहीं आए तो फिर तू अकेला ही चला चल
यदि तेरी पुकार का कोई भी जवाब न दे तो फिर तू अकेला ही चला चल
यदि सभी तुझसे मुख मोड़ लें,
सब डरकर, तेरा साथ देने के लिए बाहर भी न निकलें,
तो फिर तू अकेला ही चला चल
तब तू बिना किसी से डरे हुए,
खुले गले से अपनी बात सब से कह,
यदि तेरा साथ देने से सब लोग इंकार कर दें,
सब लोग लौट जाएं तो हे हतभाग्य ! फिर तू अकेला ही चला चल
यदि रात अँधेरी हो, कुछ भी सूझता न हो
पथ में बिछे कांटे तेरे पैर लहूलुहान भी कर दें,
तो भी तू अपने घायल पैरों से अकेला ही चला चल.
हे हतभाग्य ! तेरे मार्ग में यदि कहीं एक दिया भी नहीं न जल रहा हो,
यदि तेज़ बारिश में तुझे शरण देने के लिए कोई भी अपने घर का द्वार तक न खोले,
तब तू अपने हृदय को वज्र बना ले और अपनी राह पर चलता चला चल
अगर तेरी पुकार पर कोई भी नहीं आए तो फिर तू अकेला ही चला चल.)
गुरुदेव के इस गीत ने न केवल महात्मा गाँधी का उत्साह बढ़ाया अपितु समस्त देशवासियों में देशभक्ति की एक ऐसी लहर उत्पन्न कर दी कि लाखों-करोड़ों भारतीय महात्मा जी के इस जन -जागृति व पूर्ण-स्वराज्य अभियान से जुड़ गए. शहर-शहर, क़स्बा-क़स्बा, गाँव-गाँव चौराहों पर, गलियों में नमक क़ानून तोड़ा जाने लगा. लाठियों और गोलियों की किसी आन्दोलनकारी ने परवाह नहीं की और देश की सभी जेलें महात्माजी के अहिंसक सैनानियों से भर गईं.

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

युवा-पीढ़ी के नाम एक महत्वपूर्ण संदेश

 'संस्कारों के अभाव में युवा अजीबोगरीब फ़ैशन करने लगे हैं और घुटनों पर फटी

जींस पहनकर अपने आप को बड़े बाप का बेटा समझने लगे हैं.
ऐसे फ़ैशन में लड़कियां भी पीछे नहीं हैं'
तीरथ सिंह रावत (मुख्यमंत्री उत्तराखंड)
राष्ट्र के युवाओं के नाम धर्म-संस्कृति-सभ्यता रक्षक श्री तीरथ सिंह रावत का
संदेश -
पश्चिम की कर के नक़ल
ख़ुद को ना भटकायं
धर्म-संस्कृति-सभ्यता
अपनी ही अपनायंं
फटी जींस को पहन कर
संस्कार मिट जायं
बेशर्मी करनी अगर
राजनीति में आयं

मंगलवार, 16 मार्च 2021

नया सत्र

(गीतिका के बेटे यानी कि हमारे नाती, अमेय ने कक्षा 1 की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है और अब वह अप्रैल में कक्षा 2 में प्रवेश करने जा रहा है.
गीतिका ने इस ख़ुशी के मौक़े पर अमेय के सफल जीवन की कामना की है और साथ में पिछले साल हुई एक दुखद घटना को याद भी किया है.
अंग्रेज़ी में लिखी गयी उसकी इस भावुकतापूर्ण पोस्ट का मैंने हिंदी भावानुवाद किया है.
इस भावानुवाद के बाद मैंने गीतिका के मूल-उदगार भी जोड़ दिए हैं.)
ये एक फ़ुर्सत से भरी सुबह है.
पहले की तरह मुझे अलार्म लगा कर अपने बेटे को स्कूल जाने के लिए तैयार करने की कोई जल्दी नहीं है.
आख़िरकार, वर्ष 2020-21 का शैक्षिक सत्र अब समाप्त हो रहा है.
मैं नींद से उठ कर अपने बेटे को सोता हुआ देख कर आनंदित हो रही हूँ.
उसके भोले से चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कान देख कर मैं बहुत भावुक हो रही हूँ.
हे भगवान ! यह कैसा साल था !
कितने उतार-चढ़ाव थे इसमें !
और सच कहूं तो इसमें चढ़ाव तो कम और उतार ही ज़्यादा थे !
मैं बच्चों की समुत्थान शक्ति (गिरने के बाद फिर से उठ खड़े होने की ताक़त) देख कर चकित हूँ.
इस महामारी का दौर हम सब के लिए बहुत कष्टकारी रहा है लेकिन यह बच्चों पर सबसे ज़्यादा भारी पड़ा है.
बच्चों को घर में ही नज़रबंद हुए पूरा एक साल बीत गया है.
न तो उनके हॉबी क्लासेज़ हो पा रहे हैं और न ही वो पहले की तरह से पढ़ने के लिए स्कूल जा पा रहे हैं.
मैं देख रही हूँ कि मेरा बेटा अपने दोस्तों को, अपनी टीचर्स को, अपने क्लास-रूम को और अपनी स्कूल बस को बहुत मिस कर रहा है.
अब उसने इन हालात से समझौता कर लिया है कि इस साल इन सबके बिना ही उसे काम चलाना पड़ेगा.
मैंने देखा है कि वह पढ़ने की नई-नई तकनीक, नई-नई विधियाँ सीख रहा है.
ऑनलाइन स्कूली ज़िंदगी के अनुरूप उसने ख़ुद को ढाल लिया है.
लेकिन मेरे बेटे ने अपनी अद्वितीय समुत्थान-शक्ति का प्रदर्शन तब किया जब पिछले साल उसकी दादी का देहांत हुआ.
उसने देखा कि भली-चंगी दादी एकदम से उसकी और हम सबकी, ज़िंदगी से बहुत दूर चली गईं.
हमारे परिवार के लिए उनका जाना और इस दारुण दुःख से हमारा उबर पाना बहुत दुष्कर कार्य था.
मैं तो इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकती कि मेरा बेटा इस मुश्किल दौर से कैसे गुज़रा होगा.
अमेय अपनी दादी से बहुत हिला हुआ था.
उनका आपसी रिश्ता दादी-पोते का कम और दोस्तों का ज़्यादा था.
दोनों मिल कर धमा-चौकड़ी मचाते थे.
अमेय को हर काम में, हर अभियान में, आगे बढ़ाने में चीयर लीडर की भूमिका उसकी दादी ही निभाया करती थीं.
मुझे यह देख कर बहुत संतोष है कि वह अपनी दादी को खोने के गम से उबर कर अब फिर आगे बढ़ चला है.
अमेय ने अपनी दादी को खोने के दुःख को बहुत शांत हो कर सहा है.
वह आज भी उनकी कमी महसूस करता है और हर रात प्रार्थना करते समय उनको याद भी करता है.
ऑनलाइन क्लास के दौरान उसकी टीचर ने उस से पूछा था –
‘अगर तुमको कोई जादुई चिराग मिल जाए तो तुम उस से क्या मांगोगे?’
अमेय ने जवाब दिया –
‘मैं उस चिराग से मांगूगा कि मेरी दादी वापस आ जाएं.’
अमेय की इस बात को सुन कर मेरा दिल भर आया.
मेरा मन किया कि मैं उसको कस कर अपने सीने से लगा लूं.
मेरी बेटी इरा तो अभी बहुत छोटी है. इस हादसे की गंभीरता को पूरी तरह से समझ पाना उसकी पहुँच के बाहर है.
वह तो यही समझ रही थी कि दादी इंडिया गयी हैं.
लेकिन कुछ दिन पहले उसने मुझे बताया कि उसकी दादी एक तारा बन गयी हैं. मेरी बेटी को यह नया ज्ञान उसके भाई ने दिया था.
मेरे पास अमेय की तारीफ़ के लिए अल्फ़ाज़ नहीं हैं.
मुझे उस पर नाज़ है.
मुझे पता है कि स्वर्ग में विराजमान उसकी दादी को उसकी उपलब्धियों पर मुझ से भी कहीं अधिक नाज़ होगा.
मैं उम्मीद करती हूँ कि आने वाला साल, पिछले साल की तुलना में हम पर और ख़ास कर, हमारे बच्चों पर, बहुत मेहरबान होगा.
It is a lazy morning. No ringing of the alarm and no rush for the early morning classes for my son. Yes the academic year 2020-21 has finally come to an end. I get up and look at my son sleeping blissfully. I am overwhelmed with emotions as I notice a sweet smile on that cherubic face. What an year it has been! Full of high and lows...probably more lows. And I marvel at the resilience of childhood.
Pandemic has been tough for all of us but it has taken the maximum toll on kids. Just imagine being locked up indoors for months, missing all your hobby classes and having to attend the school without actually visiting the school for a whole year. I have seen my son missing his friends, his teachers, classroom and bus and then coming to terms with the fact that he can not meet them this year. I saw him learning new academic apps and getting adjusted to "online school life".
But my boy showed maximum resilience this year when he lost his dadi. He saw her going from being absolutely fine to one day just vanishing from our lives. It was an extremely tough time for my family coming to terms with this massive loss and I can't even imagine what my son went through during that period. He was extremely close to her...they were like best buddies and she was probably his biggest cheerleader. And yet I saw him bouncing back.
He was just so calm while processing his grief. He still misses her and remembers her while saying his prayers every night. The other day his teacher asked him what would be his wish if he got a magic lamp and he said I will bring my dadi back.
It really broke my heart and I just wanted to hug him tight.
My daughter who is still too young to understand the whole situation believed Dadi is in India.
But few days back she told me that Dadi is a star in the sky. Her brother told her that.
I had no words. I really feel so proud of him. And I know his Grandma would have been even prouder of all his achievements this year.
I just hope that the coming year will be kinder to all of us, especially our kids.

शनिवार, 13 मार्च 2021

भैंस के आगे बीन बजाए

 भैंस के आगे बीन बजाए -

उत्तराखंड के तराई-क्षेत्र, जौनसार-बावर के मूल निवासी खुद को द्रौपदी की सन्तान कहते हैं.
पुराने ज़माने में यहाँ की मातृसत्तात्मक सभ्यता में स्त्रियों के मध्य बहु-पतिवाद का चलन एक आम बात हुआ करती थी.
करीब 50-60 साल पुरानी बात है.
उन दिनों जौनसार-बावर में सरकार के द्वारा स्त्री-शिक्षा प्रचार के साथ-साथ बहु-पतिवाद की कु-प्रथा के विरुद्ध सामाजिक जागृति का अभियान भी बड़े ज़ोर-शोर से चलाया जा रहा था.
बहुत से एन. जी. ओ. भी इस सामाजिक-परिष्कार कार्यक्रम में जुटे हुए थे.
सरकारी अनुदान द्वारा पोषित एक एन. जी. ओ. की संचालिका थीं - उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव की धर्मपत्नी (मुख्य सचिव का नाम मैं नहीं बताऊंगा).
हमारी ये मोहतरमा सामाजिक-जागृति की और नारी-उत्थान की अपनी मशाल लेकर जौनसार-बावर पहुँच गईं.
जौनसार-बावर की मूल-निवासी महिलाओं का बाहरी दुनिया से तब तक नाम-मात्र का संपर्क हो पाया था.
कबीर की आत्मस्वीकृति – ‘मसि, कागद छूयो नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ’ इन महिलाओं पर बिलकुल सटीक बैठती थी. अपनी स्थानीय भाषा के अतिरिक्त उन्हें कोई और भाषा नहीं आती थी.
मुख्य सचिव की समाज-सुधारक श्रीमती जी को तथाकथित मानव-सभ्यता से कोसों दूर रहने वाली इन स्त्रियों तक अपना जागृति-संदेश पहुँचाने के लिए एक ऐसे दुभाषिए के सेवाओं की आवश्यकता पड़ी जो कि उनके हिंदी में दिए गए भाषण का स्थानीय भाषा में अनुवाद कर उनको उसका मर्म समझा सके.
स्थानीय स्त्रियों के लिए आयोजित सभा में हमारी मोहतरमा पूरी तैयारी से पहुँचीं.
उन्होंने उदाहरण सहित बहु-पतिवाद की तमाम बुराइयाँ बताते हुए यह सिद्ध किया कि यह प्रथा भारतीय धर्म-संस्कृति के सर्वथा विरुद्ध है और इसका सबसे ज़्यादा नुक्सान खुद औरत को ही उठाना पड़ रहा है.
भाषण के बीच में दुभाषिया मोहतरमा की बातों का न केवल स्थानीय भाषा में अनुवाद करता जा रहा था बल्कि उन्हें अपनी तरफ़ से उसका भावार्थ भी बताता जा रहा था.
महिलाओं द्वारा अपनी बात को ध्यानपूर्वक सुनते देख मोहतरमा उत्साहित हो गईं.
उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण देते हुए बहु-पतिवाद के विरूद्ध अपना भाषण कुछ इन शब्दों में ख़त्म किया –
‘बहनों ! आप मुझ को देखिए ! मैं पढ़ी-लिखी हूँ और ख़ुद अपने पैरों पर खड़ी हुई हूँ. मैं शादीशुदा हूँ. मेरे पति के चार भाई हैं.
इन में दो इन से बड़े हैं और दो इन से छोटे हैं.
मेरे पति के दोनों बड़े भाई यानी कि मेरे जेठ मेरे लिए अपने बड़े भाइयों की तरह हैं और उनके दोनों छोटे भाई यानी कि मेरे देवर मेरे अपने छोटे भाइयों की तरह हैं.
क्या इस व्यवस्था से मैं आपको ज़रा सा भी दुखी नज़र आती हूँ?
आप लोग भी अगर मेरी तरह से सिर्फ़ एक-पतिव्रत का पालन करेंगी और अपने पति के बड़े भाइयों को अपने बड़े भाइयों के समान तथा अपने पति के छोटे भाइयों को अपने छोटे भाइयों के समान समझेंगी तो आप भी मेरी तरह से सुखी रहेंगी.’
दुभाषिए ने उपस्थित महिलाओं के समक्ष भाषण के अंतिम अंश का अनुवाद कर दिया लेकिन किसी भी महिला ने भाषण-काण्ड संपन्न होने पर ताली नहीं बजाई.
लगता था कि मोहतरमा का संदेश और उनका उपदेश उनके समझ में ही नहीं आया था.
मोहतरमा के आदेश पर दुभाषिए ने उनके हिंदी में दिए गए भाषण का एक बार फिर स्थानीय बोली में भावार्थ बताया लेकिन सभा में बैठी हुई महिलाओं के चेहरों पर उसे समझने का कोई भाव नहीं आया.
मोहतरमा और दुभाषिए की परेशानी देख कर भीड़ में बैठी एक सयानी बुढ़िया उठ खड़ी हुई.
बुढ़िया ने दो-तीन मिनट तक अपनी साथी महिलाओं से स्थानीय भाषा में न जाने क्या कहा कि सभा में एकदम से सन्नाटा छा गया. सारी की सारी औरतें तरस खाती हुई निगाहों से लम्बा भाषण झाड़ने वाले मोहतरमा को देखने लगीं.
बुढ़िया की बात सुन कर दुभाषिए के चेहरे पर तो हवाइयां उड़ने लगीं.
बुढ़िया के संबोधन के बाद मोहतरमा को दुभाषिए के और अपनी श्रोताओं के हाव-भाव में अचानक हुए परिवर्तन का रहस्य समझ में नहीं आया.
मोहतरमा ने दुभाषिए से इन सबकी वजह पूछी तो वह बोला –
‘मैडम जी ! मुझे माफ़ कीजिए ! आप चाहें मेरी जान ले लें, मैं तब भी आपको नहीं बताऊँगा कि बुढ़िया ने आपकी बात को क्या समझा और अपनी साथियों को इस ने उसे कैसे समझाया.’
मैडम जी के बार-बार अनुरोध किए जाने पर और अभय-दान दिए जाने पर दुभाषिए ने बुढ़िया की बात को उनके सामने ज्यों का त्यों दुहरा दिया -
‘देखो, ये औरत जो हमारे बीच आई है, कितनी सुन्दर है ! ये तो खूब पढ़ी-लिखी भी है और ख़ुद कमाती भी है !
इस बिचारी के पांच मर्द थे लेकिन इसके बीच वाले मर्द को छोड़ कर बाकी ने इसे छोड़ दिया है.
इसके साथ जैसा अन्याय हुआ है भगवान न करे कि हम में से किसी के साथ भी वैसा अन्याय हो.
अब ये दुखियारी औरत हम सबसे अपना दुखड़ा रोने आई है.’
जागृति अभियान में संलग्न हमारी समाज-सुधारक मोहतरमा ने बुढ़िया की बात सुनते ही बिजली की गति से जौनसार-बावर क्षेत्र का अपना दौरा वहीं समाप्त कर दिया और फिर वो आजीवन उस इलाक़े में जन-जागरण की मशाल लेकर कभी फटकी भी नहीं.

रविवार, 7 मार्च 2021

मुस्तैद पुलिस

 1971 की बात है. मेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल बरेली में एस. डी. एम. बहेड़ी की हैसियत से पोस्टेड थे. अत्यंत सुरक्षित माने जाने वाले और प्रतिष्ठित क्षेत्र ए. डी. एम. कंपाउंड में उनका बंगला था.

हमारी भाभी घर में नया मेहमान लाने वाली थीं.
भाभी को जब अस्पताल ले जाने का समय आया तो घर में भाई साहब, भाभी के अलावा सिर्फ़ मेरे छोटे भाई साहब थे और घरेलू नौकर राम आसरे था.
राम आसरे पर घर की निगरानी छोड़ कर परिवार के सदस्य अस्पताल चले गए.
उसी रात हमारे परिवार में एक सुन्दर सा बालक शामिल हो गया.
भाभी को और छोटे भाई साहब को अस्पताल में छोड़ कर भाई साहब कुछ ज़रूरी सामान लाने के लिए जब अगली सुबह घर पहुंचे तो घर के दरवाज़े चौपट खुले हुए थे और स्टील की अल्मारी का लॉकर तोड़ कर उसका सारा कीमती सामान साफ़ कर दिया गया था.
भाई साहब ने बैंक-लॉकर भी नहीं लिया था इसलिए भाभी के सभी गहने भी घर की अल्मारी के लॉकर में ही थे और चोरों ने उन पर भी हाथ साफ़ कर दिया था.
हैरत की बात यह थी कि भाई राम आसरे खर्राटे भरते हुए तब भी सो रहे थे.
पूरे बरेली में हाहाकार मच गया.
कमिश्नर, जिलाधीश, एस. पी. और न जाने किस-किस वी. आई. पी. के बंगलों के आसपास के महा-सुरक्षित बंगले में एक आई. ए. एस. ऑफ़िसर के घर में चोरी और वह भी तब जब कि रखवाली के लिए नौकर मौजूद था.
पुलिस की बड़ी थू-थू हुई.
एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद पुलिस चोरों को पकड़ नहीं पाई. फिर एक चमत्कार हुआ.
चोरी की घटना के कुछ दिनों बाद एक लड़के ने पुलिस-स्टेशन पर जाकर ख़ुद कुबूल किया कि ए. डी. एम. कंपाउंड में हुई चोरी में उसका और उसके तीन साथियों का हाथ था.
उस लड़के को अपने साथियों से यह शिकायत थी कि उन्होंने उसे चोरी के माल में बराबर का हिस्सा नहीं दिया था.
पुलिस ने आनन-फ़ानन में उस चोर के बाक़ी तीनों साथियों को धर-दबोचा लेकिन एक कैमरे के अलावा चोरी का कोई भी सामान उन से बरामद नहीं हुआ.
पुलिस वालों की दुबारा थू-थू हुई.
जब बरेली जेल में भाई साहब की और चोरों की भेंट कराई गयी तो चार पुलिसिये उन चोरों को उल्टा लटका कर लाठियों से पीट रहे थे.
भाई साहब ने जेलर से पूछा –
‘इन चोरों की इस बेरहम पिटाई से क्या मेरा चोरी हुआ माल वापस आ जाएगा?
आप फ़ौरन इस दरिन्दगी को रोकिए नहीं तो मैं आलाकमान से आपकी शिक़ायत कर दूंगा.’
चारों चोर दयालु साहब के मुरीद हो गए.
भाई साहब को केस के सिलसिले में जब भी जेल जाना पड़ा तो वो चोर दौड़ कर –
‘हमारे साहब आ गए ! हमारे साहब आ गए !’
कह कर उनके चरण पकड़ लेते थे.
भाई साहब को अपने घर में हुई चोरी का उतना दुःख नहीं था जितना कि इन चोरों से – ‘हमारे साहब’ कहलाने का.
1974 में हमारे भाई साहब को छोटे भाई साहब की शादी में मेरठ जाना था.
उन दिनों भाई साहब वाराणसी में रीजनल फ़ूड कंट्रोलर थे.
वाराणसी के एस. एस. पी. साहब को पता चला कि जैसवाल साहब भाई की शादी में मेरठ जा रहे हैं तो उन्होंने उनके बंगले के दो कमरे अपनी बेटी की होने वाली शादी में मेहमान टिकाने के लिए मांग लिए.
शादी के समारोह में शामिल होने के बाद भाई साहब जब वाराणसी लौटे तो पता चला कि उनके घर में चोरी हो गयी है.
वाराणसी का एक बड़ा पुलिसिया महकमा भाई साहब के बंगले पर मौजूद था लेकिन उन से दो कमरे मांगने वाले एस. एस. पी. साहब गायब थे.
पुलिस की लाख कोशिशों के बाद न तो चोर मिले और न ही चोरी का कोई सामान बरामद हुआ.
एक हफ़्ते बाद माननीय एस. एस. पी. महोदय भाई साहब के सामने पेश हुए.
भाई साहब ने उन से पूछा –
‘आपको अपने बंगले के दो कमरे देकर मैंने आपकी निगरानी में उसे छोड़ा था और आप चोरी होने के एक हफ़्ते बाद तशरीफ़ ला रहे हैं.
क्या यही पुलिस की मुस्तैदी है?’
एस. एस. पी. साहब ने अफ़सोस जताते हुए कहा –
‘जैसवाल साहब, किस मुंह से मैं आपको अपना मुंह दिखाता?
बेटी की शादी की भाग-दौड़ में मुझ से तो आपके उन दो कमरों के तालों की चाबियाँ भी खो गयी हैं.’
अब आख़िरी क़िस्सा 1998 का जो कि मेरे साथ हुआ.
श्रीमती जी के गॉल ब्लैडर के ऑपरेशन के सिलसिले में हमारा परिवार अल्मोड़ा से दिल्ली पहुंचा था.
दिल्ली में हमको खबर मिली कि हमारे घर में चोरी हो गयी है.
श्रीमती जी को दिल्ली में ही छोड़ कर मैं दोनों बेटियों को लेकर अल्मोड़ा पहुंचा.
चोरों ने ज़बर्दस्त तरीक़े से घर खंगाला था.
दिल्ली जाने की जल्दी में बैंक लॉकर के बजाय कुछ जेवरात, कुछ नक़दी और चांदी के सिक्के घर में ही छूट गए थे.
जेवर, नक़दी और चांदी के सिक्के ही क्या, चोरों ने तो श्रीमती जी की लिपस्टिक और मेरा आफ्टर शेव लोशन तक नहीं छोड़ा था.
मेरे लाख मना करने पर भी बड़े भाई साहब ने अल्मोड़ा के जिलाधीश को फ़ोन कर दिया कि इस चोरी के मामले में छानबीन कराने में वो मेरी मदद करें.
केंद्र सरकार के एक जॉइंट सेक्रेटरी के अनुरोध पर जिलाधीश महोदय और एस. पी. महोदय इतने सक्रिय हुए कि अगले दिन ही कोतवाल साहब मेरे दुगालखोला के गरीबखाने पर तशरीफ़ ले आए.
चोर को पकड़ने के लिए और उस से सामान बरामद करने के लिए कोतवाल साहब तो काल्पनिक जासूस शरलॉक होम्स की सेवाएँ भी लेने को तत्पर थे लेकिन हुआ कुछ भी नहीं.
न तो चोर पकड़ा गया और न ही मेरा कोई सामान मिला.
हाँ, चोरी हुए सामान के साथ मेरा एक और नुक्सान यह हुआ कि मुझे तीन-चार बार मुस्तैद पुलिस वालों की चाय बिस्किट्स और नमकीन से सेवा भी करनी पड़ी.
एक कहावत है –
‘हाकिम की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी, दोनों खतरनाक हैं.’
मुस्तैद पुलिस के साथ पारिवारिक अनुभव के बाद मैं कहता हूँ –
मुस्तैद पुलिस की अगाड़ी, पिछाड़ी ही नहीं, बल्कि उसके अगल-बगल खड़े होने में भी जान-माल का ख़तरा है.’
Abhilasha Chauhan

शनिवार, 6 मार्च 2021

गाँधी का नमक

 नेहरूजी और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में श्री महावीर त्यागी ने एक सफल प्रशासक के रूप में ख्याति प्राप्त की थी.

लेखक और पत्रकार त्यागीजी का नाम गाँधीवादी आन्दोलनकारियों में बड़े आदर से लिया जाता है.
प्रथम विश्वयुद्ध में त्यागीजी ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हुए थे लेकिन जलियांवालाबाग हत्याकांड के बाद उन्होंने सेना से त्यागपत्र दे दिया जिसके कारण उनका कोर्टमार्शल भी हुआ था.
गांधीजी के आंदोलनों में भाग लेने के कारण त्यागीजी कुल 11 बार जेल गए थे.
यह प्रसंग 1930 का है. नमक बनाने और उसे बेचने का एकाधिकार सरकार के पास सुरक्षित था. इस शोषक कानून के कारण नमक की असली कीमत से उसका बाज़ार भाव 40 गुना था.
महंगे नमक को न तो गरीब आदमी अपने प्रयोग के लिए पर्याप्त खरीद पाता था और न ही वो अपने मवेशियों को उसे दे पाता.
कम नमक मिलने के कारण मनुष्यों और मवेशियों के शरीर में आयोडीन की कमी हो जाती थी जिसके परिणामस्वरूप उन्हें घेंघा और कई अन्य घातक रोग हो जाते थे.
मार्च, 1930 में गांधीजी ने भारत को पूर्ण स्वराज्य दिए जाने की मांग को लेकर अंग्रेज़ सरकार के इस सबसे शोषक और अमानवीय कानून ‘नमक कानून’ को तोड़ने का निश्चय किया था.
देहरादून में इस आन्दोलन का नेतृत्व त्यागीजी कर रहे थे.
आन्दोलनकारी किसी सार्वजनिक स्थल पर आग जलाकर एक बड़े कड़ाह में पानी में नमक डाल कर उसे उबालते थे और जब पानी जलकर केवल नमक शेष रह जाता था तो उसे एक पुड़िया में एकत्र कर लेते थे.
बाद में नमक कानून तोड़ कर इस नमक को बेचा जाता था.
पुलिस नमक कानून तोड़ने वालों को गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करती थी.
हर आन्दोलनकारी अपना जुर्म बिना किसी दबाव के, ख़ुद ही कुबूल कर लेता था और फिर उसे दण्डित कर जेल भेज दिया जाता था.
त्यागीजी को देहरादून के एक चौराहे पर नमक बनाते हुए पुलिस ने गिरफ्तार कर, नमक की पुड़िया सहित मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया.
मजिस्ट्रेट एक भारतीय थे.
मजिस्ट्रेट ने त्यागीजी से नमक कानून तोड़ने के अपराध के विषय में पूछा तो उन्होंने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया, उल्टे यह कहा कि जो सफ़ेद चूर्ण पुलिस ने कड़ाह में से बरामद किया है वो नमक है ही नहीं.
त्यागीजी जैसा बार-बार जेल जाने के लिए तैयार बैठा आन्दोलनकारी अपना ऐसा झूठा बचाव करेगा, ऐसी किसी को आशा नहीं थी.
मजिस्ट्रेट साहब ने त्यागीजी से कहा –
‘ आप नमक ही बना रहे थे. आपने नमक कानून तोड़ा है, और आन्दोलनकारियों की तरह आप अपना जुर्म कुबूल क्यूँ नहीं कर लेते?’
त्यागीजी ने कहा –
‘जनाब जो पाउडर पुलिस को मौक़ा-ए-वारदात पर मिला है वो नमक है ही नहीं. इसलिए मैंने नमक कानून नहीं तोड़ा है.’
मजिस्ट्रेट ने कहा –
‘लेकिन ये तो नमक ही लग रहा है.’
त्यागीजी ने कहा –
‘आप इसे चख कर देख लीजिये. ये नमक नहीं है.’
मजिस्ट्रेट ने पुड़िया में रखे उस सफ़ेद पाउडर पर ऊँगली लगा कर अपनी जीभ पर रखी और फिर नाराज़ होकर उन्होंने त्यागीजी से कहा –
‘आप खुद को बचाने के लिए झूठ बोल रहे हैं? ये तो नमक ही है.’
त्यागीजी ने मुस्कुराते हुए कहा –
‘जी हाँ यह नमक ही है और मैं नमक कानून तोड़ने का अपना जुर्म कुबूल करता हूँ.
मजिस्ट्रेट साहब, अब तक आपने अंग्रेजों का नमक खाया था पर आज आपने गाँधी का नमक खाया है.
गाँधी के इस नमक के साथ नमक हरामी मत कीजियेगा.’
मजिस्ट्रेट साहब ने त्यागीजी को नमक कानून तोड़ने के अपराध में सज़ा देकर जेल भेज दिया पर फिर गाँधी के नमक का हक अदा करने के लिए उन्होंने खुद सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया.