रविवार, 14 जून 2015

इश्क्ज़ादे

रिफ्रेशर कोर्स के लिए एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में मुझे जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. वहां देश के महान इतिहासकार, मेरे आदर्श, प्रोफ़ेसर एक्स से मिलने की आशा से मैं बहुत उत्साहित था. हम प्रशिक्षार्थियों का स्वागत करने के लिए स्वयं प्रोफ़ेसर एक्स उपस्थित थे. क्या शीरीं जुबान, क्या शराफत, क्या शाइस्तगी, क्या विश्वकोश के समान ज्ञान और उसपर ऐसी विनम्रता. मेरी हमेशा से ये आरज़ू थी कि मुझे प्रोफ़ेसर एक्स जैसा कोई गुरु मिले, अब बरसों बाद मेरी ये आरज़ू पूरी होने वाली थी. स्वागत समारोह के दौरान एक मैडम बहुत चहक चहक कर, ‘प्यार किया तो डरना क्या’ वाले अंदाज़ में प्रोफ़ेसर एक्स से बात कर रही थीं. अब इतनी कम उम्र की मैडम हमारे 60 साल के प्रोफ़ेसर साहब की बीबी तो लग नहीं रही थीं.

लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरे उस्ताद रह चुके प्रोफ़ेसर वाई अब इस विश्वविद्यालय की शोभा बढ़ा रहे थे. मैंने मैडम तथा प्रोफ़ेसर एक्स के सम्बन्ध के विषय में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया –
‘बरखुरदार ये बादशाह अकबर यानी तुम्हारे प्रोफ़ेसर एक्स की अनारकली हैं.’
मैंने अपने ऐतिहासिक ज्ञान को टटोलते हुए आपत्ति की –
‘सर, अनारकली तो सलीम की थी और बादशाह अकबर ने उसे दीवार में चुनवा दिया था.’
प्रोफ़ेसर वाई ने जवाब दिया –‘इस बार बादशाह अकबर ने अनारकली के सलीम के कैरियर को दीवार में चुनवाकर उसे शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया और अनारकली को अपना बना लिया है. तुम मैडम को पहचान नहीं रहे हो.ये मैडम जेड हैं.’
‘मैडम जेड? रेवेन्यू एडमिनिस्ट्रेशन पर सबसे बड़ी अथॉरिटी? ये प्रोफ़ेसर एक्स की अनारकली हैं?’
‘हाँ वही, पर इनकी सब किताबें और इनके सारे रिसर्च पेपर्स तुम्हारे प्रोफ़ेसर एक्स ने लिखे हैं. हमारे बादशाह अकबर और अनारकली के इश्क के चर्चे पिछले दस साल से सब की जुबान पर हैं लेकिन तुम्हारी जनरल नौलिज तो बहुत कमज़ोर लगती है. तुम बड़ी किस्मत वाले हो. अनारकली रोज़ तुम्हारा क्लास लेगी.’
मैंने पूछा – ‘पढ़ाती कैसा है?’
प्रोफ़ेसर वाई बोले – ‘अपने से पंद्रह सीनियर्स को सुपरसीड करके कम्बख्त प्रोफ़ेसर बनी है. पर जब इसका क्लास पढोगे तो नया तो क्या सीखोगे, अपना पुराना ज्ञान भी भूल जाओगे.’
मैंने पूछा –‘महारानी जोधा बाई बादशाह अकबर से अनारकली को लेकर कोई ऐतराज़ नहीं जतातीं?’
प्रोफ़ेसर वाई ने जवाब दिया – ‘वो बेचारी ऐतराज़ क्या जताएंगी आजकल तो बादशाह अकबर अनारकली की जगह उनको ही दीवार में चुनवाने की फिराक में रहते हैं.’

रिफ्रेशर कोर्स के दौरान हमलोगों को रोजाना मैडम जेड का बोरिंग, नोट्स लिखाने वाला लेक्चर सुनने की सजा दी जाती थी. क्लास में और क्लास से बाहर भी हमको डांटने-फटकारने और धमकाने का कोई भी मौका अनारकली मैडम हाथ से जाने नहीं देती थीं. उनसे पिटते-पिटते हम लोगों के सब्र का बाँध जब टूट गया तो उनकी शिकायत लेकर उनके बादशाह के पास पहुंचे. बादशाह अकबर ने अपनी अनारकली की ज्यादतियों के लिए हमसे माफ़ी मांगी, हमको आइसक्रीम खिलाई पर साथ ही साथ यह इशारा भी कर दिया कि हमको उनकी अनारकली की ज्यादतियों को कोर्स ख़त्म होने तक बर्दाश्त करना ही होगा. मैडम जेड उर्फ़ अनारकली के ज़ुल्मो-सितम के सामने घुटने टेकने के सिवा हमारे पास और चारा भी क्या था.

मैंने प्रोफ़ेसर वाई से इस मॉडर्न अनारकली को हम सब के रास्ते से हटाने के बारे में पूछा –
‘सर ! जनता की बेहद मांग पर क्या बादशाह अकबर को मजबूर नहीं किया जा सकता कि वो अनारकली को दीवार में चुनवाने का हुक्म फिर से सुना दे?’
प्रोफ़ेसर वाई ने मुझे समझाया – ‘अब बादशाह अकबर पूरी तरह से अनारकली के शिकंजे में है. अनारकली ने अपने खुद के आधा दर्जन सलीम पाल रक्खे हैं पर बादशाह अकबर अनारकली का कुछ भी बिगड़ नहीं पा रहे हैं.’
मैंने नाराजगी और हैरत जताते हुए कहा – ‘डीन और वाइस चांसलर कुछ एक्शन क्यों नहीं लेते? क्या उन्हें ये अंधेर दिखाई नहीं देता?’
जवाब मिला –‘डीन और वाइस चांसलर को ये अंधेर दिखाई तो देता है पर उन बेचारों को कोई भी एक्शन लेने की फुर्सत ही कहाँ है? बाजी राव बने हमारे डीन अपनी मस्तानी के साथ इश्क फरमाने में और विश्वामित्र बने हमारे वाईस चांसलर अपनी मेनका के साथ प्रेम की पींगे लेने में मसरूफ हैं.’


बुधवार, 10 जून 2015

वाह्य परीक्षक

वाह्य परीक्षक दो प्रकार के होते हैं. पहले वो जो स्नातकोत्तर, स्नातक स्तर पर मौखिकी अथवा प्रायोगिकी परीक्षा लेने के लिए आते हैं. इनकी बड़ी आवभगत होती है, बिलकुल दूल्हे के जीजा या फूफा की तरह. दूसरे किस्म के विशिष्ट वाह्य परीक्षक पीएच. डी. वायवा लेने के लिए आते हैं. इन्हें वीवीआईपी श्रेणी में रखा जाता है और इनकी खातिर-तवज्जो दूल्हे की तरह की जाती है. आज हम सिर्फ विशिष्ट वाह्य परीक्षकों की ही चर्चा करेंगे. 

कुछ सिद्धांतवादी विशिष्ट वाह्य परीक्षक चेहरे पर ज़बरदस्ती की गम्भीरता और शालीनता ओढ़कर आते हैं, बिलकुल नो नॉनसेंस ऐटिट्यूड  के साथ. इनके सामने शोधार्थी तो क्या शोध निर्देशक की सिट्टीपिट्टी भी गुम हो जाती है. इनको अपने काम से काम होता है और इनका काम होता है हर किसी के सामने अपने सिद्धांतों तथा अपनी काबिलियत का रौब झाड़ना. इनसे पीएच. डी. की उपाधि हेतु संस्तुति प्राप्त कर पाना टेढ़ी खीर होता है पर ऐसे महानुभाव न तो विश्वविद्यालय का बजट ख़राब करते हैं और न ही शोधार्थी का. 

विशिष्ट वाह्य परीक्षकों की बहुसंख्यक जमात सांसारिक होती है जिसको कि परपीडन के बजाय आत्म-लाभ में ही दिलचस्पी होती है. इनके आने-जाने, रहने और खाने-पीने की कुल व्यवस्था शोधार्थी को अपने पैसे से करनी पड़ती है, यह बात और है कि विश्वविद्यालय से भी ये पूरा लगान वसूल कर लेते हैं. ऐसे विशिष्ट परीक्षक आमतौर पर अपनी श्रीमती और यदाकदा अपना परिवार भी साथ लाते हैं. वायवा से पहले इन्हें शोधार्थी की जेब पर शौपिंग करना बहुत पसंद होता है. एक विशिष्ट परीक्षक हमारे यहाँ इतनी बार आते थे कि उनको दूर से ही देखकर मिठाई वाले और शाल की दुकान वाले अपना सबसे बढ़िया माल बाहर निकाल लेते थे. ऐसे विशिष्ट परीक्षक वायवा लेते समय शोधार्थी की खाट खडी करने के स्थान पर कोफी, मिष्ठान और नमकीन को उदरस्थ अथवा कंठस्थ करने में ही व्यस्त रहते हैं. पांच मिनट में ही वायवा की रस्म-अदायगी पूरी हो जाती है, शोधार्थी को सब बधाई देते हैं और वो सब गुरुजनों के चरण छूता/छूती है. 

अधिकाँश विशिष्ट परीक्षक स्थानीय मंदिरों के दर्शन कराने का दायित्व भी शोधार्थी पर डाल देते हैं. कुछ धार्मिक किस्म के परीक्षक तो वायवा की तिथि से चार दिन पहले ही पहुँच जाते हैं और फिर शोधार्थी के साथ बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा करके ही वायवा लेने के लिए पहुँचते हैं. ऐसे परीक्षकों से निपटने के बाद शीघ्र ही डॉक्टर कहलाने वाले/वाली को उधार चुकाने की प्रक्रिया में व्यस्त हो जाना पड़ता है.

मेरे कुछ दोस्त विशिष्ट परीक्षक की भूमिका की सेंचुरी तक मना चुके हैं और एक मैं हूँ कि आज भी ऐसे किसी एक निमंत्रण की भी बाट देख रहा हूँ. असली दूल्हा बने तो मुझे एक युग बीत चुका है पर हे ईश्वर! एक बार तो मुझे विशिष्ट वाह्य परीक्षक बनाकर दूल्हे की भाँति अपनी खातिर-तवज्जो करवाने की मेरी आरज़ू पूरी कर दे.


मंगलवार, 9 जून 2015

रजिस्ट्रार गुरूजी

गुरूजी तीन प्रकार के होते हैं. पहले प्रकार के गुरूजी कुल गुरुजनों के दस प्रतिशत से भी कम होते हैं, जिन्हें हम कबीरदास की परंपरा निभाने वाला अनपढ़ कह सकते हैं. इनको कक्षाओं में किसी भी तरह का कागज़ ले जाने से परहेज़ होता है और ये अपनी सारी ऊर्जा व्याख्यान देने में लगा देते हैं कुल गुरुजनों के लगभग बीस प्रतिशत दूसरी प्रकार के गुरूजी होते हैं जिन्हें कक्षाओं में व्याख्यान देते समय स्लिप्स या पुर्चियों की समय समय पर आवश्यकता पड़ती रहती है. ऐसे गुरूजी 'डिप्टी रजिस्ट्रार गुरूजी' की श्रेणी में आते हैं पर सत्तर प्रतिशत से भी अधिक अध्यापक 'रजिस्ट्रार गुरूजी' की उस श्रेणी में आते हैं जिनका कि कक्षाओं में बिना पोथियों और रजिस्टरों के, गुज़ारा हो ही नहीं सकता. आँखों पर चश्मा चढ़ाकर पुराने पीले पड़े हुए रजिस्टर में से विद्यार्थियों को इमला (डिक्टेशन) बोलने का फ़र्ज़ वो ता-उम्र निभाते रहते हैं. उनकी कक्षाओं में अगर एक विद्यार्थी भी मुस्तैद होकर नोट्स लिखता रहे तो बाकी विद्यार्थी कक्षा में सुख की नींद ले सकते हैं और बाद में उस जागरूक विद्यार्थी के नोट्स की कॉपी कर या उसे फोटो स्टेट कराकर अपना काम चला सकते हैं. ऐसे रजिस्ट्रारों के प्रशंसक उन्हें डिक्टेटर भी कहते हैं क्योंकि डिक्टेशन देने के अलावा उन्हें कुछ भी नहीं आता.

मेरे अधिकाँश 'रजिस्ट्रार गुरूजी' श्रेणी के मित्र मेरी मुंहफट आलोचना से बहुत दुखी रहते थे. मैंने अपने एक 'रजिस्ट्रार गुरूजी' मित्र को उनके अनुरोध पर कबीरदास का अनुयायी बनाने का भरसक प्रयास किया पर वो अपने रजिस्टर प्रेम से मुंह नहीं मोड़ पाए. अपनी असफलता का ठीकरा मेरे ही सर पर फोड़ते हुए उन्होंने मुझसे कहा - 'मैं आपकी तरह से रट्टू तोता नहीं हो सकता कि बिना कागज़ देखे बोल सकूं अगर कन्फ्यूज़न में अकबर की राजपूत नीति की जगह औरंगजेब की राजपूत नीति पढ़ा गया तो क्या आप मेरी मदद के लिए आएंगे?'
हमारे एक कुलपति भी मेरी ही तरह इन 'रजिस्ट्रार गुरुजियों' के खिलाफ थे. उन्होंने यह कानून बना दिया कि क्लास में कमसे कम आधे समय रजिस्टर और पुर्चियों का प्रयोग न हो पर उनका यह कानून सैकड़ों अध्यापकों के प्रबल विरोध के कारण पंद्रह दिन में ही पूरी तरह से भंग कर दिया गया.

रोजाना दो हज़ार से लेकर पांच हज़ार रुपये कमाने वाले हमारे 'रजिस्ट्रार गुरूजी'

चार सौ - पांच सौ पन्नों की अपनी जमापूँजी से डिक्टेशन दे दे कर अपनी नौकरी के 30-40 साल मज़े से बिता लेते हैं और सभी ज़रूरी पदोन्नतियां भी प्राप्त करते रहते हैं. ये वो गुरूजी होते हैं जो अगर अपना चश्मा घर पर ही छोड़ आयें तो विद्यार्थियों की या तो छुट्टी कर देते हैं या क्लास में फ़िल्मी अन्त्याक्षरी का आयोजन करा देते हैं. विद्यार्थियों में ऐसे गुरुजनों की लोकप्रियता अच्छी खासी होती है क्योंकि उनको भी दो मिनट में तैयार होने वाली मैगी ही खाना पसंद है. आज का कबीर ऐसे गुरुओं को भगवान से भी ऊपर का दर्जा देते हुए कहता है -

गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पायं,
बलिहारी गुरु आपने , जिन इमला दियो लिखाय.



सोमवार, 8 जून 2015

हमारे कुलपति



कुलपति के पद तक पहुंचना हम जैसे आम अध्यापकों के लिए पिछले सात जन्मों के पुण्यों का फल होता है. जिसके भाग्य में लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा लिखी होती है और जिसे माँ शक्ति का वरदान प्राप्त होता है वही इस मक्खन, मलाईदार पद का हक़दार होता है. आम तौर पर कुलपति पद तक पहुँचने के लिए अकादमिक क्षेत्र में विशेष झंडे गाड़ने की ज़रुरत नहीं पड़ती। सत्ताधारियों की सफलतापूर्वक चाटुकारिता कर पाना ही इस शीर्षस्थ स्थान तक पहुँचने का आधार होता है. 


मैंने कुलपतियों में नम्रता, मितभाषिता और सरलता-सादगी के दर्शन बहुत कम किये हैं. लखनऊ विश्वविद्यालय में अध्यापन करते समय एक रिटायर्ड कमिश्नर हमारे कुलपति बने तो उन्होंने अपने लिए सायरन युक्त लालबत्ती वाली कार और अपनी सुरक्षा के लिए स्टेन गन्स लिए सुरक्षा कर्मियों की फ़ौज रखना ज़रूरी समझा। 

कुमाऊं विश्विद्यालय के एक कुलपति अपने छह साल के शासन काल में छह बार यूनिवर्सिटी के खर्चे पर विदेश गये थे. कुलपति के कक्ष के अलंकरण और आधुनिकीकरण में उन्होंने आज से 30 साल पहले लाखों खर्च करवा दिए थे.

हमारे एक कुलपति अपने चाटुकारों द्वारा दुनिया भर में यह प्रचार करवाते रहते थे कि उनका नाम भौतिक शास्त्र के नोबल प्राइज के लिए पैनल में आ चुका है. यह बात दूसरी है कि हर साल कोई दूसरा ही इस पुरस्कार पर अपना कब्ज़ा कर लेता था. 

हमारे एक और कुलपति थे जिन्होंने यह हिदायत दे रखी थी कि हर कांफ्रेंस और हर सेमिनार में कुलपति, उनकी पत्नी व विशिष्ट अतिथियों को सुपर फाइन शाल भेंट किए जाएँ. मेरे हिसाब से तीन साल में उन्हें कमसे कम 400-500 शाल तो मिले ही होंगे। हो सकता है कि अब अवकशप्राप्ति के बाद उनकी शाल बेचने की खुद की दुकान हो. 

एक कुलपति को विश्वविद्यालय के हर समारोह में अपना 5 पृष्ठों वाला जीवन परिचय पढ़वाना बहुत अच्छा लगता था. उनके अवकशप्राप्ति से पूर्व ही हमको उनका जीवन परिचय कंठस्थ हो चुका था.
हमारे एक कुलपति कहा करते थे कि यूनिवर्सिटी तो वही अच्छी लगती है जिसके ऑफिस में और जिसके क्लास रूम्स में ताले जड़े हों. वो स्वयं छात्रों, अध्यापकों और छात्रेतर कर्मचारियों को हड़ताल करने के लिए उकसाते रहते थे. 

हर कुलपति के अपने चहेते 4-5 गुंडे अध्यापक होते थे जिनका काम कुलपति के विरोधियों और आलोचकों की खाट खड़ी करना होता था. लेक्चरर से लेकर प्रोफेसर्स तक का खुलेआम अपमान करने वाले कुलपति, छात्र नेताओं के समक्ष भीगी बिल्ली बने रहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करते थे. इन सावधानियों के बावजूद छात्र नेताओं से गाली खाना या उनके हाथों पिटाई हो जाना एक आम घटना मानी जाती थी. 

एक कुलपति महोदय महीने में 20 दिन सपत्नीक दौरे पर रहते थे. नैनीताल में रहते हुए भी शायद ही कभी उनके अपने घर का चूल्हा जला होगा। कहा जाता था कि उनके घर गैस सिलेंडर करीब एक साल चलता है।
हर कुलपति अपने कार्यकाल में 20-25 ऐसे लोगों का अध्यापक के रूप में चयन कर लेता था जिनको अपनी योग्यता के आधार पर चपरासी का पद मिलना भी मुश्किल हो सकता था. हम लोगों की इतनी हिम्मत तो नहीं होती थी कि अपने कुलपतियों की खुलेआम आलोचना कर सकें पर मन ही मन उनको इतनी गालियां और बद-दुआएं देते थे कि अगर भगवान उसके एक प्रतिशत पर भी अमल करता तो वो सब स-शरीर नरकगामी हो चुके होते।

अब मैं अवकाश प्राप्त कर चुका हूँ पर अब भी मुझे कुलपतियों की छवि और उनका स्मरण डराता है. मुझे बेचैन देखकर और नींद न आने की वजह से परेशान होते हुए देखकर मेरी स्वर्गीया माँ मेरे ख़यालों में आकर मुझे डराते हुए कहती है -'सो जा बेटा, नहीं तो तेरा कोई कुलपति बुला लूंगी।' आप विश्वास नहीं करेंगे पर मैं इसके बाद हमेशा डरकर सो जाता हूँ।