वाह्य परीक्षक दो प्रकार के होते हैं. पहले वो जो स्नातकोत्तर, स्नातक स्तर पर मौखिकी अथवा प्रायोगिकी परीक्षा लेने के लिए आते हैं. इनकी बड़ी आवभगत होती है, बिलकुल दूल्हे के जीजा या फूफा की तरह. दूसरे किस्म के विशिष्ट वाह्य परीक्षक पीएच. डी. वायवा लेने के लिए आते हैं. इन्हें वीवीआईपी श्रेणी में रखा जाता है और इनकी खातिर-तवज्जो दूल्हे की तरह की जाती है. आज हम सिर्फ विशिष्ट वाह्य परीक्षकों की ही चर्चा करेंगे.
कुछ सिद्धांतवादी विशिष्ट वाह्य परीक्षक चेहरे पर ज़बरदस्ती की गम्भीरता और शालीनता ओढ़कर आते हैं, बिलकुल नो नॉनसेंस ऐटिट्यूड के साथ. इनके सामने शोधार्थी तो क्या शोध निर्देशक की सिट्टीपिट्टी भी गुम हो जाती है. इनको अपने काम से काम होता है और इनका काम होता है हर किसी के सामने अपने सिद्धांतों तथा अपनी काबिलियत का रौब झाड़ना. इनसे पीएच. डी. की उपाधि हेतु संस्तुति प्राप्त कर पाना टेढ़ी खीर होता है पर ऐसे महानुभाव न तो विश्वविद्यालय का बजट ख़राब करते हैं और न ही शोधार्थी का.
विशिष्ट वाह्य परीक्षकों की बहुसंख्यक जमात सांसारिक होती है जिसको कि परपीडन के बजाय आत्म-लाभ में ही दिलचस्पी होती है. इनके आने-जाने, रहने और खाने-पीने की कुल व्यवस्था शोधार्थी को अपने पैसे से करनी पड़ती है, यह बात और है कि विश्वविद्यालय से भी ये पूरा लगान वसूल कर लेते हैं. ऐसे विशिष्ट परीक्षक आमतौर पर अपनी श्रीमती और यदाकदा अपना परिवार भी साथ लाते हैं. वायवा से पहले इन्हें शोधार्थी की जेब पर शौपिंग करना बहुत पसंद होता है. एक विशिष्ट परीक्षक हमारे यहाँ इतनी बार आते थे कि उनको दूर से ही देखकर मिठाई वाले और शाल की दुकान वाले अपना सबसे बढ़िया माल बाहर निकाल लेते थे. ऐसे विशिष्ट परीक्षक वायवा लेते समय शोधार्थी की खाट खडी करने के स्थान पर कोफी, मिष्ठान और नमकीन को उदरस्थ अथवा कंठस्थ करने में ही व्यस्त रहते हैं. पांच मिनट में ही वायवा की रस्म-अदायगी पूरी हो जाती है, शोधार्थी को सब बधाई देते हैं और वो सब गुरुजनों के चरण छूता/छूती है.
अधिकाँश विशिष्ट परीक्षक स्थानीय मंदिरों के दर्शन कराने का दायित्व भी शोधार्थी पर डाल देते हैं. कुछ धार्मिक किस्म के परीक्षक तो वायवा की तिथि से चार दिन पहले ही पहुँच जाते हैं और फिर शोधार्थी के साथ बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा करके ही वायवा लेने के लिए पहुँचते हैं. ऐसे परीक्षकों से निपटने के बाद शीघ्र ही डॉक्टर कहलाने वाले/वाली को उधार चुकाने की प्रक्रिया में व्यस्त हो जाना पड़ता है.
विशिष्ट वाह्य परीक्षकों की बहुसंख्यक जमात सांसारिक होती है जिसको कि परपीडन के बजाय आत्म-लाभ में ही दिलचस्पी होती है. इनके आने-जाने, रहने और खाने-पीने की कुल व्यवस्था शोधार्थी को अपने पैसे से करनी पड़ती है, यह बात और है कि विश्वविद्यालय से भी ये पूरा लगान वसूल कर लेते हैं. ऐसे विशिष्ट परीक्षक आमतौर पर अपनी श्रीमती और यदाकदा अपना परिवार भी साथ लाते हैं. वायवा से पहले इन्हें शोधार्थी की जेब पर शौपिंग करना बहुत पसंद होता है. एक विशिष्ट परीक्षक हमारे यहाँ इतनी बार आते थे कि उनको दूर से ही देखकर मिठाई वाले और शाल की दुकान वाले अपना सबसे बढ़िया माल बाहर निकाल लेते थे. ऐसे विशिष्ट परीक्षक वायवा लेते समय शोधार्थी की खाट खडी करने के स्थान पर कोफी, मिष्ठान और नमकीन को उदरस्थ अथवा कंठस्थ करने में ही व्यस्त रहते हैं. पांच मिनट में ही वायवा की रस्म-अदायगी पूरी हो जाती है, शोधार्थी को सब बधाई देते हैं और वो सब गुरुजनों के चरण छूता/छूती है.
अधिकाँश विशिष्ट परीक्षक स्थानीय मंदिरों के दर्शन कराने का दायित्व भी शोधार्थी पर डाल देते हैं. कुछ धार्मिक किस्म के परीक्षक तो वायवा की तिथि से चार दिन पहले ही पहुँच जाते हैं और फिर शोधार्थी के साथ बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा करके ही वायवा लेने के लिए पहुँचते हैं. ऐसे परीक्षकों से निपटने के बाद शीघ्र ही डॉक्टर कहलाने वाले/वाली को उधार चुकाने की प्रक्रिया में व्यस्त हो जाना पड़ता है.
जय हो । सफेद्पोश फर्जियों की जय हो । आप को यू जी सी अवार्ड दिया जा सकता है ।
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