मंगलवार, 9 जून 2015

रजिस्ट्रार गुरूजी

गुरूजी तीन प्रकार के होते हैं. पहले प्रकार के गुरूजी कुल गुरुजनों के दस प्रतिशत से भी कम होते हैं, जिन्हें हम कबीरदास की परंपरा निभाने वाला अनपढ़ कह सकते हैं. इनको कक्षाओं में किसी भी तरह का कागज़ ले जाने से परहेज़ होता है और ये अपनी सारी ऊर्जा व्याख्यान देने में लगा देते हैं कुल गुरुजनों के लगभग बीस प्रतिशत दूसरी प्रकार के गुरूजी होते हैं जिन्हें कक्षाओं में व्याख्यान देते समय स्लिप्स या पुर्चियों की समय समय पर आवश्यकता पड़ती रहती है. ऐसे गुरूजी 'डिप्टी रजिस्ट्रार गुरूजी' की श्रेणी में आते हैं पर सत्तर प्रतिशत से भी अधिक अध्यापक 'रजिस्ट्रार गुरूजी' की उस श्रेणी में आते हैं जिनका कि कक्षाओं में बिना पोथियों और रजिस्टरों के, गुज़ारा हो ही नहीं सकता. आँखों पर चश्मा चढ़ाकर पुराने पीले पड़े हुए रजिस्टर में से विद्यार्थियों को इमला (डिक्टेशन) बोलने का फ़र्ज़ वो ता-उम्र निभाते रहते हैं. उनकी कक्षाओं में अगर एक विद्यार्थी भी मुस्तैद होकर नोट्स लिखता रहे तो बाकी विद्यार्थी कक्षा में सुख की नींद ले सकते हैं और बाद में उस जागरूक विद्यार्थी के नोट्स की कॉपी कर या उसे फोटो स्टेट कराकर अपना काम चला सकते हैं. ऐसे रजिस्ट्रारों के प्रशंसक उन्हें डिक्टेटर भी कहते हैं क्योंकि डिक्टेशन देने के अलावा उन्हें कुछ भी नहीं आता.

मेरे अधिकाँश 'रजिस्ट्रार गुरूजी' श्रेणी के मित्र मेरी मुंहफट आलोचना से बहुत दुखी रहते थे. मैंने अपने एक 'रजिस्ट्रार गुरूजी' मित्र को उनके अनुरोध पर कबीरदास का अनुयायी बनाने का भरसक प्रयास किया पर वो अपने रजिस्टर प्रेम से मुंह नहीं मोड़ पाए. अपनी असफलता का ठीकरा मेरे ही सर पर फोड़ते हुए उन्होंने मुझसे कहा - 'मैं आपकी तरह से रट्टू तोता नहीं हो सकता कि बिना कागज़ देखे बोल सकूं अगर कन्फ्यूज़न में अकबर की राजपूत नीति की जगह औरंगजेब की राजपूत नीति पढ़ा गया तो क्या आप मेरी मदद के लिए आएंगे?'
हमारे एक कुलपति भी मेरी ही तरह इन 'रजिस्ट्रार गुरुजियों' के खिलाफ थे. उन्होंने यह कानून बना दिया कि क्लास में कमसे कम आधे समय रजिस्टर और पुर्चियों का प्रयोग न हो पर उनका यह कानून सैकड़ों अध्यापकों के प्रबल विरोध के कारण पंद्रह दिन में ही पूरी तरह से भंग कर दिया गया.

रोजाना दो हज़ार से लेकर पांच हज़ार रुपये कमाने वाले हमारे 'रजिस्ट्रार गुरूजी'

चार सौ - पांच सौ पन्नों की अपनी जमापूँजी से डिक्टेशन दे दे कर अपनी नौकरी के 30-40 साल मज़े से बिता लेते हैं और सभी ज़रूरी पदोन्नतियां भी प्राप्त करते रहते हैं. ये वो गुरूजी होते हैं जो अगर अपना चश्मा घर पर ही छोड़ आयें तो विद्यार्थियों की या तो छुट्टी कर देते हैं या क्लास में फ़िल्मी अन्त्याक्षरी का आयोजन करा देते हैं. विद्यार्थियों में ऐसे गुरुजनों की लोकप्रियता अच्छी खासी होती है क्योंकि उनको भी दो मिनट में तैयार होने वाली मैगी ही खाना पसंद है. आज का कबीर ऐसे गुरुओं को भगवान से भी ऊपर का दर्जा देते हुए कहता है -

गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पायं,
बलिहारी गुरु आपने , जिन इमला दियो लिखाय.



2 टिप्‍पणियां:

  1. आशिक मिजाज गुर जी पर अगली कड़ी होगी क्यों ? :)

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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

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