गुरुवार, 30 जुलाई 2015

'दहशतगर्दों का इस्तक़बाल'


मुल्क की सरहद खुली है आइये,
और छाती पर मेरी चढ़ जाइए.
बम-धमाकों से हमारी नींद खोली शुक्रिया,
बढ़ती आबादी की कुछ रफ़्तार कम की, शुक्रिया.
आपकी मेहमांनवाज़ी अब हमारा है धरम,
आप आये, है इनायत, आपके हम पर करम.
वो दरिंदा है सुनाया जिसने फांसी का हुकुम,
फैसला बदलेगा, या फिर ख़ुदकुशी कर लेंगे हम..
नादिर, अब्दाली को अस्मत, सौंप दी थी, बेहिचक,
अब बची जो लाज, उसको लूटकर ले जाइये.
क़त्लो-गारद आपका मज़हब, हमें भी है कुबूल,
खून की नदियाँ बहाकर, मुल्क पर छा जाइये.
मुल्क की सरहद खुली है, आइये ----

सोमवार, 27 जुलाई 2015

कलम का सिपाही


31 जुलाई को  कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद की एक सौ पैतीसवीं जयन्ती है. उनकी जन्मभूमि लमही में उनके टूटे-फूटे स्मारक में एक समारोह हो जायेगा और कई जगह उनके पुराने चित्रों को झाड-पोंछकर उन पर मालाएं चढ़ा दी जाएँगी, छात्र-छात्राओं को प्रेमचंद पर भाषण प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर दिया जायेगा और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त साहित्यकार व साहित्यिक अभिरुचि का दावा करनेवाले राजनीतिज्ञ उन्हें उपन्यास सम्राट तथा कहानी सम्राट का तमगा पहना देंगे. प्रेमचंद के देहावसान को उन्यासी वर्ष बीत चुके हैं पर आज भी उनके उपन्यासों और कहानियों के पात्र जीवंत प्रतीत होते हैं. अगर हमको उनकी रचनाओं में से केवल एक पात्र चुनना हो तो हम निश्चित ही ‘गोदान’ के होरी को चुनेंगे. किसान से खेतिहर मजदूर बना अशिक्षित और दुनियादारी से सर्वथा वंचित होरी आज भी दिन-रात मेहनत करने के बावजूद क़र्ज़ के बोझ तले दबा हुआ है. खेतिहर मजदूर होने की वजह से किसी भी विपदा में उसे सौ-दो सौ के चेक के रूप में कोई सरकारी मदद भी नहीं मिल सकती. उसकी घरवाली धनिया, उसकी बेटियां रूपा और सोना, भगवान् न करे, अगर सुन्दर हुईं तो ज़रूर कोई न कोई महाजन या किसी ज़मींदार का वंशज उन पर घात लगाये बैठा होगा. ऐसे में गले में रस्सी का फन्दा ही उसका एक मात्र सहारा हो जाता है. इस उठते हुए भारत में, इस शाइनिंग इंडिया में अनगिनत होरी अपनी करुण गाथा लिखवाने के लिए प्रेमचंद का आवाहन कर रहे हैं –

हे प्रेमचंद, फिर कलम उठा, नवभारत का उत्थान लिखो,
लाखों होरी के पुनर्मरण पर, एक नया गोदान लिखो.


प्रेमचंद के सुपुत्र श्री अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ लिखकर हिंदी-उर्दू भाषियों के साहित्य प्रेम पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ा है. गांधीजी के आवाहन पर शिक्षा विभाग की अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर हमारा कथा सम्राट राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेता है और हमेशा-हमेशा के लिए गरीबी उसका दामन थाम लेती है. उसके बिना कलफ और बिना इस्तरी किये हुए गाढ़े के कुरते के अन्दर से उसकी फटी बनियान झांकती रहती है. उसकी पैर की तकलीफ को देखकर डॉक्टर उसे नर्म चमड़े वाला फ्लेक्स का जूता पहनने को को कहता है पर उसके पास उन्हें खरीदने के लिए सात रुपये नहीं हैं. वो अपने प्रकाशक को एक ख़त लिख कर उसमें विस्तार से अपनी तकलीफ बताकर सात रुपये भेजने की गुज़ारिश करता है. अभावों से जूझता हमारा नायक जब अंतिम यात्रा करता है तो उसे कन्धा देने के लिए दस-बारह प्रशंसक जमा हो जाते हैं. शव यात्रा देखकर कोई पूछता है –‘कौन था?’ जवाब मिलता है –‘कोई मास्टर था.’

प्रेमचंद हमेशा अपनी रचनाओं और अपने प्रगतिशील पत्रों – ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ के माध्यम से स्वदेशी, सांप्रदायिक सद्भाव, नारी-उत्थान और दलितोद्धार का सन्देश देते रहे. उनका सम्पूर्ण साहित्य धार्मिक सामाजिक, आर्थिक शोषण, असमानता, अनाचार, भ्रष्टाचार, पाखंड, लिंग भेद, अन्धविश्वास, अकर्मण्यता, आलस्य, जातीय दंभ, बनावटीपन, शेखीखोरी, असहिष्णुता, धर्मान्धता, विलासिता और अवसरवादिता के विरुद्ध संघर्ष है. उन्हें अल्लामा इकबाल का यह शेर बहुत पसंद था –

‘जिस खेत से दहकान को मयस्सर न हो रोटी,
उस खेत के हर खेश-ए-गंदुम को जला दो.’


(जिस खेत से खुद किसान को रोटी नसीब न हो, उस खेत की गेंहू की हर बाली को जला दो)

पर इस शेर का मर्म समझने की हमारे देश के नेताओं को आजतक फुर्सत नहीं है. प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ का अमर पात्र देवीदीन जो असहयोग आन्दोलन के दौरान अपने दो बेटों की क़ुरबानी दे चुका है, देश के एक भावी कर्णधार से पूछता है कि क्या वो ये नहीं सोचते कि जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो इनके बंगलों पर वो खुद क़ब्ज़ा कर लेंगे. नेताजी के हाँ कहने पर देवीदीन सोचने लगता है कि इस आज़ादी की लड़ाई में क़ुरबानी देने से आम आदमी को क्या मिलेगा. आज भी हम उसी देवीदीन की तरह असमंजस की स्थिति में हैं पर अब हमारा खुद से प्रश्न होता है –‘क्या हम वाकई आजाद हैं?’

आज हमको फिर एक नए प्रेमचंद की ज़रुरत है, आज फिर हमको आम आदमी का दर्द समझने वाले कलम के सिपाही की दरकार है, आज फिर ‘गबन’, ‘गोदान’, ‘निर्मला’, ‘सदगति’, ‘सवा सेर गेंहू’ ‘ठाकुर का कुआँ’ ‘ईदगाह’, पूस की रात’ ‘कफ़न’, और ‘मन्त्र’ लिखे जाने की ज़रुरत है क्योंकि आज भी वही अन्याय और वही अनाचार फल-फूल रहा है जिसके खिलाफ कभी प्रेमचंद ने निर्भीकता से आवाज़ बुलंद की थी.

                                        


गुरुवार, 23 जुलाई 2015

सन्दर्भ सहित व्याख्या

कुछ साहित्य मर्मज्ञों की व्याख्या ऐसी होती है कि आम श्रोता और पाठक ही नहीं बल्कि उनके द्वारा  जिस साहित्यिक रचना की व्याख्या की जा रही है, उसका रचयिता भी अपना सर धुनने को विवश हो जाता है. कुछ प्रचलित (पहली दो व्याख्या) और कुछ नितांत मौलिक व्याख्या (बाद की दो व्याख्या मेरी अपनी हैं) प्रस्तुत हैं –

1. ‘सूरदास तब बिहंसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो’
सूरदास जी ने हंसकर माता यशोदा को गले लगा लिया.

2. ‘जहां सुमति, तहं संपत नाना’
तुलसीदासजी के नाना का नाम संपत और उनकी नानी का नाम सुमति था. श्री संपत अपनी पत्नी को उतना ही प्रेम करते थे जितना कि तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली को करते थे. श्रीमती सुमति जहाँ कहीं भी जाती थीं, श्री संपत उनके पीछे-पीछे पहुँच जाते थे.

3. ‘केशव के सन अस करी, जस अरि हूँ न कराहिं,
चन्द्र बदनि मृग लोचिनी, बाबा कहि कहि जाहिं.’

कवि केशवदास का बेटा मुसलमान हो गया था और मुसलमान बनने के बाद उसका नाम अस्करी हो गया था. वह अपने पिता का दुश्मन बन गया था पर उसकी पुत्रियाँ चन्द्र बदनि और मृगलोचिनी, केशवदास को बहुत प्यार करती थी और उन्हें बाबा-बाबा कहकर बुलाती थीं.

4. ‘हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा.’

इस शेर में राज कपूर और नर्गिस के अमर किन्तु असफल प्रेम का उल्लेख किया गया है. नर्गिस की राज कपूर से शादी नहीं हो सकी इसलिए वो हमेशा रोती रही. सुनील दत्त से शादी करने के बाद बहुत मुश्किल से अर्थात बहुत वर्षों बाद उनके एक पुत्र हुआ जिसको उन्होंने ‘दीदावर’ नाम दिया. इसी ‘दीदावर’ को आज हम संजय दत्त के नाम से जानते हैं.